भोपाल के भूजल में अब भी फैल रहा ज़हर, यूनियन कार्बाइड के विषैले रासायनिक कचरे का असर

Bhopal Gas Tragedy: भोपाल गैस कांड के 36 साल बाद भी यूनियन कार्बाइड की फ़ैक्ट्री में जमा ज़हरीले रासायनिक कचरे का क़हर भोपाल की 48 बस्तियों के लाखों निवासियों को झेलना पड़ रहा है

Updated: Apr 07, 2021, 08:19 AM IST

Photo Courtesy: SheThePeople
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भोपाल। 2-3 दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात हुए भोपाल गैस कांड के 36 साल बाद भी उस भयानक त्रासदी का बुरा असर शहर के लाखों लोगों को झेलना पड़ रहा है। उस वक़्त प्रकृति में घुल गए रासायनिक कचरे के दुष्प्रभाव का सिलसिला लगभग अब तक जारी है। ख़ासतौर पर राजधानी भोपाल के अंडर-ग्राउंड वॉटर यानी भूजल में यूनियन कार्बाइड की फ़ैक्ट्री से निकले ज़हरीले रासायनिक कचरे का असर अब तक न सिर्फ मौजूद है, बल्कि लगातार और फैलता जा रहा है। यह स्थिति प्रदेश की राजधानी के लाखों निवासियों के लिए ख़तरे का सबब बनी हुई है।

अब भी ज़मीन में दबा है करीब 10 हज़ार टन रासायनिक कचरा

रिपोर्ट्स के मुताबिक यूनियन कार्बाइड के अब बंद पड़े कारखाने के भीतर और बाहर लगभग 10 हजार टन रासायनिक कचरा ज़मीन में दबा हुआ है, जो मिट्टी, हवा और पानी में मिलकर उन्हें लगातार जहरीला बना रहा है। कुल 12 अनवरत जैविक प्रदूषकों (Persistent Organic Pollutants) में से 6 प्रकार के रसायन भोपाल के गैस पीड़ित इलाकों के भू-जल में पाए गए हैं।

भोपाल की 48 बस्तियों में ज़हरीला हुआ भूजल

भारतीय विष विज्ञान संस्थान द्वारा पिछले वर्ष की गई जांच में पता चला था कि भोपाल की 42 बस्तियों के भूजल में 6 प्रकार के अत्यंत जहरीले रसायन पाए गए हैं। इनकी वजह से करीब एक लाख की आबादी बुरी तरह प्रभावित हो रही है। संभावना ट्रस्ट की रिपोर्ट के अनुसार इस साल शहर में 6 नई बस्तियों में भूजल प्रदूषित पाया गया। यानि अब शहर में प्रदूषित भूजल वाली बस्तियों की संख्या बढ़कर 48 हो चुकी है।

14 एकड़ में फैला ज़हरीला कचरा

भोपाल में यूनियन कार्बाइड ने वर्ष 1977 से 1984 के बीच अपने कारखाने के पीछे लगभग 14 एकड़ ज़मीन पर तीन सौर वाष्पीकरण तालाबों (Solar Evaporation Ponds) का निर्माण कराया था। इन तालाबों को अत्यंत ज़हरीले कचरे का निपटारा करने के लिए बनाया गया था, जिस कारण स्थानीय लोग इन्हें जहरीला तालाब भी कहते हैं। इनके नीचे प्लास्टिक की एक मोटी लाइनिंग बिछाई गई थी। इन तालाबों में तरल रासायनिक कचरा डाला जा रहा था। कंपनी का मानना था कि तालाबों में भरा यह रासायनिक ज़हर गर्मियों में भाप बनकर अपने आप ही खत्म हो जाएगा। बताया जाता है कि फैक्ट्री के अंदर लगभग 21 और जगहों पर भी ऐसे जहरीले रासायनिक कचरे को दबाया गया है। 

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1982 में पहली बार सामने आया था मामला

भोपाल गैस हादसे के 2 साल पहले अप्रैल 1982 में जब स्थानीय मवेशियों के अचानक मरने की खबरें आने लगी तब पहली बार इस मामले में तूल पकड़ा। उसी साल यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड ने यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन को यह जानकारी दी कि तालाब में लगी मोटी पॉलीथिन फट रही है, जिससे ज़हरीला रसायन रिसकर भूजल में मिल रहा है। लेकिन उस वक़्त इन बातों पर किसी ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। इसके दो साल बाद ही भोपाल एक ऐसी त्रासदी का गवाह बना जिसमें 10 हजार से भी ज्यादा जानें चली गयीं। इस भयावह त्रासदी का दूसरा रूप एक बार फिर से जल प्रदूषण के रूप में भोपाल शहर में पांव पसार रहा है।

वर्ष 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने कारखाने के आसपास 14 बस्तियों को चिन्हित किया था, जहां भूजल में बेहद ज़हरीले रसायन पाए गए थे। साल 2012 में राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान और भारतीय विष विज्ञान अनुसंधान द्वारा किए गए एक साझा शोध में पता चला कि इन रसायनों ने आसपास के 4.5 एकड़ में फैली 22 बस्तियों को अपनी चपेट में ले लिया है। भारतीय विष विज्ञान संस्थान ने भी 2019 में बताया था कि अब ये विषाक्त रसायन कुल 42 बस्तियों तक जा पहुंचे हैं और लगातार तेज़ी से फैल रहे हैं। 

मध्य प्रदेश सरकार की तरफ़ से 2005 में किए गए एक अध्ययन में पता चला कि प्रदूषित भूजल पीने वाले रहवासियों में आंख, स्किन, श्वसन तथा पाचन तंत्र से जुड़ी बीमारियां हो रही हैं। 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे 10 हज़ार से अधिक परिवारों के मुफ्त इलाज की व्यवस्था करवाने के निर्देश दिए थे। लेकिन भोपाल ग्रुप ऑफ इन्फॉर्मेशन एंड एक्शन की सदस्य रचना ढींगरा का आरोप है कि उन पीड़ित परिवारों को आज तक मुफ्त इलाज मुहैया नहीं करवाया गया।  

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संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को सरकार ने ठुकराया

चिंगारी ट्रस्ट की अध्यक्षा व भोपाल गैस पीड़ितों के लिए काम कर रही राशिदा बी के मुताबिक यूनियन कार्बाइड का कारखाना भोपाल शहर के लिए कैंसर साबित हुआ है। इस मसले को लेकर केंद्र व राज्य सरकारों की उदासीनता ने भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरणीय कार्यक्रम (UNEP) तक जाने को मजबूर कर दिया। UNEP इसकी जांच वैज्ञानिकों से करवाने को तैयार था लेकिन सरकार ने UNEP को विदेशी कहकर उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि विदेशियों को इस मामले में शामिल करना ठीक नहीं रहेगा। हमारी संस्थाएं ज़हरीले रसायनों को निकालने में सक्षम हैं। वर्ष 1996 में सरकार ने उन तालाबों में लास्टिक की एक और परत बिछाई। साथ ही तीन तालाबों के कचरे को दो तालाबों में स्थानांतरित कर दिया। बाद में वे परतें भी पूरी तरह फट गईं, जिससे ज़हरीला कचरा भूजल में मिल गया।

मध्य प्रदेश सरकार ने ज़हरीले रसायनों से छुटकारा पाने के लिए डीपीआर बनाने की ज़िम्मेदारी स्पेस मैटर्स कंपनी को दी थी, लेकिन यह कंपनी भी उन्हीं संस्थाओं से यह काम करवाना चाहती है, जिनकी रिपोर्ट को 2011 में भारत सरकार ने खारिज कर दिया था। भोपाल ग्रुप ऑफ इन्फॉर्मेशन एंड एक्शन की सदस्य रचना ढींगरा का कहना है कि सफाई का मुद्दा तो बाद में आएगा। पहले सरकार यह तो तय करे कि ज़हरीले रसायन कहां, कितनी गहराई में और कितनी मात्रा में हैं। लेकिन सरकार इस मुद्दे पर ठीक से गौर करने की बजाय प्रभावित इलाके में नर्मदा का साफ पानी पहुंचाने के दावे कर रही है। जबकि भूजल में मिल चुका ज़हर लगातार लोगों को बीमार बना रहा है।