द कश्मीर फाइल्स पर यह क्या कह गए एमपी के आईएएस
The Kashmir Files: देशभर में ‘द कश्मीर फाइल्स’ की चर्चा है। पक्ष-विपक्ष के तर्कों से सोशल मीडिया भरा पड़ा है। वर्तमान और पूर्व ब्यूरोक्रेट इस पर कोई भी राय देने से बच रहे हैं। लेकिन एमपी के दो आईएएस इस मामले पर मुखर हुए हैं। जानिए दोनों से ऐसा क्या कहा कि राजनीति गरमा गई है।

देशभर में द कश्मीर फाइल्स की चर्चा है। यह फिल्म भोपाल निवासी विवेक अग्निहोत्री के निर्देशन में बनी है। इस फिल्म ने रिलीज होते ही बॉक्स ऑफिस तो ठीक देश की राजनीति में कई लहरें पैदा कर दी है। पक्ष-विपक्ष के तर्कों से सोशल मीडिया भरा पड़ा है। कुछ लोग कश्मीरी पंडितों के मामले में अब तक चुप रहने पर सवाल उठा रहे हैं तो कुछ इस फिल्म की टाइमिंग और उद्देश्य को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। कई राज्यों में फिल्म को टैक्स फ्री किया गया है। मध्य प्रदेश में तो गृहमंत्री ने पुलिस के मुखिया डीजीपी ने कहा है कि यह फिल्म देखने के लिए पुलिस कर्मचारियों को छुट्टी दी जाए।
इतना सब होने के बाद भी वर्तमान और पूर्व ब्यूरोक्रेट इस पर कोई भी राय देने से बच रहे हैं। लेकिन एमपी के एक सीनियर आईएएस इस मामले पर मुखर हैं। पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव मनोज श्रीवास्तव की सोशल मीडिया पर सक्रियता यूं तो हमेशा ही चर्चा में रही है मगर इस बार फिल्म को लेकर उनकी मुखरता अधिक है। उन्होंने इस फिल्म को भारतीय फिल्म जगत की नई ट्रेंड सेंटर फिल्म भी करार दिया है। वे द कश्मीर फाइल्स को हिंदी सिनेमा का एक बड़ा प्रस्थान बिंदु कहते हैं। आईएएस मनोज श्रीवास्तव की यह मुखरता सोशल मीडिया के बाहर भी चर्चा में हैं।
मनोज श्रीवास्तव जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के प्रमुख सचिव हुआ करते थे तब उनकी तूती बोलती थी। फिर सीएम सचिवालय से अचानक विदाई हुई और उन्हें अपेक्षाकृत कमतर विभाग दिया गया। यह विदाई हैरान कर देने वाली थी। सेवानिवृत्ति के बाद अमूूमन सीएस और एसीएस का किसी पद पर पुनर्वास हो जाता है। मनोज श्रीवास्तव को इस मामले भी निराशा ही हाथ लगी है।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से लेकर वर्धा के महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में कुलपति जैसे पदों के जरिए मनोज श्रीवास्तव के शिक्षा क्षेत्र में जाने की चाहत की चर्चाएं आम होती रही हैं। विचारधारा के साम्य के बाद भी पुनर्वास नहीं हुआ तो भी मनोज श्रीवास्तव खाली भी नहीं बैठे। इन दिनों वे मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल की साहित्यिक पत्रिका अक्षरा का संपादन कर रहे हैं। साहित्य और सोशल मीडिया में उनकी इस सक्रियता और मुखरता को एक अलग यात्रा का प्रस्थान बिंदु माना जा रहा है। जिसके अपने राजनीतिक ,सामाजिक निहितार्थ खोजे जा रहे हैं।
दूसरी तरफ एक युवा आईएएस ने भी बिना नाम लिए टिप्पणी कर राजनीति गर्मा दी है। आईएएस अधिकारी नियाज खान ने कहा है कि वे अलग-अलग मौकों पर मुसलमानों के नरसंहार को दिखाने के लिए एक किताब लिखने की सोच रहे थे। ताकि द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म द्वारा अल्पसंख्यकों के दर्द और पीड़ा को भारतीयों के सामने लाया जा सके। कश्मीर फाइल ब्राह्मणों का दर्द दिखाती है। उन्हें पूरे सम्मान के साथ कश्मीर में सुरक्षित रहने की अनुमति दी जानी चाहिए। निर्माता को कई राज्यों में बड़ी संख्या में मुसलमानों की हत्याओं को दिखाने के लिए भी एक फिल्म बनानी चाहिए। मुसलमान कीड़े नहीं बल्कि इंसान हैं और देश के नागरिक हैं। कि निर्माता मुसलमानों की हत्याओं पर भी फिल्म बनाएं। वे कीड़े नहीं बल्कि इंसान हैं।
नियाज खान के कहे के बाद बीजेपी से पलटवार होना शुरू हो गया है। छवि बिगाड़ने और बनाने के इस माहौल में दो आईएएस की सक्रियता कितनी और कैसी राजनीतिक उड़ान तय करती है, देखना होगा।
अफसरों की सक्रियता और चुप्पी की बात ही चली है तो बीते सप्ताह दो मामले ऐसे भी हुए जब भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसरों ने मौन को ही सबसे बड़ी प्रतिक्रिया माना। पहला मामला भोपाल में पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती का पत्थर कांड है। शराब बंदी की मांग करती और आंदोलन की धमकी देने वाली उमा भारती एक दिन अचानक भोपाल के भेल क्षेत्र की शराब दुकान पर पहुंची और शराब की बोतल पर ईंट मार कर अपना गुस्सा जताया। घटना का वीडियो वायरल हुआ। कई तरह के सवाल उठे। खासकर उमा भारती के तरीके की आलोचना हुई। कांग्रेस ने समर्थन देने के शब्दों में शिवराज सरकार की पुलिसिंग पर भी सवाल उठाए।
तमाम सवालों के बीच यह प्रश्न अधिक बलवान था कि पत्थरबाजों के लिए कानून लाने वाले मध्य प्रदेश में पुलिस और जिला प्रशासन ने उमा भारती पर कोई प्रकरण क्यों दर्ज नहीं किया सरकार और भाजपा में सन्नाटा पसरा था। जब सवाल अफसरों से हुए तो वे भी मौन हो गए। बताते हैं कि भोपाल कलेक्टर ने अपना फोन बंद कर चुप रहना उचित समझा तो पुलिस और आबकारी विभाग शिकायत न आने की बात कह कर मौन धारण किए रहे। जब सरकार ही मौन है तो अधिकारी क्यों बोलें वैसे भी अफसरशाही को लेकर उमा भारती के बोल काफी तीखे रहे हैं। एक वायरल वीडियो में वे कहते हुए दिखाई दे रही थीं , ' आपको गलतफहमी है ब्यूरोक्रेसी कुछ नहीं होती है , चप्पल उठाने वाली होती है। चप्पल उठाती है हमारी...।'
चुप्पी का ऐसा ही मामला केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के क्षेत्र का है। गुना के सांसद केपी यादव अशोकनगर कलेक्टोरेट में मीटिंग लेने पहुंचे तो पुलिस अधीक्षक को न देख कुपित हो गए। एसपी की गैर मौजूदगी पर सांसद ने कहा कि उनसे मुझे बात करनी थी लेकिन वे नहीं आए। बताते हैं कि पुलिस अधीक्षक जान कर बैठक में नहीं आए थे। सांसद केपी यादव से सिंधिया का छत्तीस का आंकड़ा जग जाहिर है। यादव कभी सिंधिया के समर्थक हुआ करते थे मगर लोकसभा 2019 के चुनाव में यादव ने सिंधिया को ऐतिहासिक रूप से पराजित किया। भाजपा में जाने, राज्यसभा चुनाव जीतने , केंद्रीय मंत्री बनने के बाद भी सिंधिया हार की इस टीस को भूला नहीं पाए हैं।
कहते हैं, सिंधिया के आने के बाद भाजपा ने सांसद केपी यादव को तवज्जो देनी बंद कर दी है। सिंधिया के साथ बिगाड़ के डर से अफसरों ने भी सांसद यादव को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया है। सरकारी कार्यक्रमों में तवज्जो न दिए जाने से नाराज सांसद यादव ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को पत्र लिख कर पार्टी में हलचल मचा दी थी। भाजपा नेताओं ने अंदरूनी मामला कह कर इस विवाद से पल्ला झाड़ लिया लेकिन बेचारे अफसर क्या करें? वे तो सिंधिया की नाराजगी मोल के बदले सांसद यादव का गुस्सा झेल लेना ही बेहतर मान रहे हैं।
मध्य प्रदेश के प्रशासनिक जगत में इनदिनों आईएएस तरुण पिथोड़े और उनकी किताब भी चर्चा में है। राजगढ़, सीहोर, बैतूल में कलेक्टर रहे चुके 2009 बैच के आईएएस अधिकारी तरुण पिथोड़े कोविड महामारी के समय भोपाल के कलेक्टर थे। उन्होंने कोरोना के समय के मैदानी अनुभवों को किताब का रूप दिया है। इस पुस्तक द बैटल अगेंस्ट कोविड: डायरी ऑफ ब्यूरोक्रेट ’ में पिथोड़े ने केवल अपने ही नहीं बल्कि मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात, असम, बिहार , उत्तर प्रदेश के ब्यूरोक्रेट्स से चर्चा कर कोरोना संक्रमण की पहली, दूसरी लहर में उनके अनुभवों, रणनीति को भी शामिल किया है।
जब कोरोना से निपटने में जुटे सभी वर्गों को कोविड योद्धा कह कर संबोधित किया गया है, प्रशासनिक अफसरों के कार्यों को उम्मीद के मुताबिक सम्मान नहीं मिला है। आईएएस तरुण पिथोड़ की यह पुस्तक कम से कम आईएएस अफसरों के कार्यों को रेखांकित करने का काम तो करती ही है।