Adivasi: खनिज और वन्य सम्पदा के बदहाल मालिक

ये आदिवासी हैं, धरती के सबसे खूबसूरत हिस्से के मालिक। वन,घाटियों और पहाड़ियों, खनिज, वन उपज, वन सम्पदा के अधिकारी ही नहीं संरक्षक और पालक भी। मगर आज भी ये आदिवासी अपने जीवन अस्तित्व को ले कर वैसा ही संघर्ष कर रहे हैं जैसा आदिम मानव किया करता था। इनके लिए योजनाएँ कम नहीं है मगर उनका हासिल कुछ नहीं है। जल,जंगल और जमीन के रखवालों  को लेकर कब सरकारें स्थानीयता पर आधारित योजनाओं को अंजाम देगी,यह कह पाना मुश्किल है।

Publish: Jul 23, 2020, 03:53 PM IST

मेदिनीनगर की तटवर्ती नदी कोयल पर बंधे पुल की छांव में बैठकर आराम कर रहे मजदूरों के एक समूह पर लॉकडाउन के दौरान झारखंड पुलिस की नजर पड़ी और जब उनसे पूछा गया कि वे कौन है और कहाँ से आए है तो जवाब सुनकर पुलिस भी अवाक रह गई। दरअसल उन मजदूरों ने बताया कि वे हैदराबाद से करीब डेढ़ हजार किलोमीटर पैदल सफर तय करते हुए 1 महीने में अपने गृह प्रदेश झारखंड लौटे है। हैदराबाद की एक निर्माण कंपनी में काम करने वाले इन मजदूरों को लॉकडाउन कि घोषणा के बाद मालिक ने अपने हाल पर छोड़ दिया तो वे भूखे प्यासे पैदल ही अपने घर कि और निकल पड़े। ये सभी पलामू के रहने वाले है और यह स्थान खनिज संसाधनों से भरपूर माना जाता है। आदिवासी बाहुल्य यह इलाका खूबसूरत वन,घाटियों और पहाड़ियों के लिए विख्यात है जहां सैकड़ों प्रजाति के वन्य प्राणी रहते है और यह स्थान पर्यटकों को बहुत आकर्षित  करता रहा है। यहाँ कि कोयले कि खदानें 9 सालों से बंद पड़ी है,यदि यह चालू हो जाए तो हजारों लोगों को रोजगार मिल सकता है। यही नहीं पर्यटन केंद्र के रूप में इसका विकास होने से भी बड़ी संख्या में रोजगार मिल सकता है लेकिन यहाँ के बदनसीब गरीब मजदूरी करने के लिए दूसरे राज्यों में जाने को मजबूर है। यही  स्थिति पूरे झारखंड की है।  झारखंड में आदिवासियों की आबादी 26.2 फीसदी है। इसमें से अधिकांश मजदूरी करते है और अपनी जीने की मूलभूत सुविधाओं को भी नहीं जुटा पाते है।

साढ़े तीन करोड़ की आबादी वाला झारखंड पूरे देश के भौगोलिक क्षेत्र का 2.62 फीसदी है और पूरे देश का 40 फीसदी खनिज इस भौगोलिक क्षेत्र में पाया जाता है। घने वन,जंगल और झाड़ के कारण इस राज्य का नाम झारखंड पड़ा है। राज्य का पूरा प्रदेश पठारी है और यहाँ का छोटा नागपुर  पठार पर खनिज और ऊर्जा का विपुल भंडार है। खनिज की दृष्टि से सबसे संपन्न इस राज्य में देश का 57 फीसदी अभ्रक,34 फीसदी कोयला,33 फीसदी ग्रेफ़ाइट,18 फीसदी लौह अयस्क,48 फीसदी कायनाइट,26 फीसदी तांबा,32 फीसदी  बॉक्साइट तथा 95 से 100 फीसदी पाइराइट का उत्पादन होता है। राज्य के दक्षिणी छोटा नागपुर की तुलना जर्मनी की रूर घाटी से की जाती है। यूरोप के प्रमुख औद्योगिक केन्द्रों में रूर घाटी को शुमार किया जाता है,इस क्षेत्र में कई विशाल औद्योगिक नगर हैं। यहाँ यूरोप का सबसे बड़ा एवं विश्वविख्यात कोयला क्षेत्र है। जर्मनी का  80 फीसदी कोयला इसी क्षेत्र से निकाला जाता है। रूर घाटी को जर्मनी के विकास का केंद्र माना जाता है और यहां रहने वाले लोग बेहद संपन्न माने जाते है। वहीं खनिज संसाधन की उपलब्धता में रूर घाटी से कहीं बेहतर झारखंड को देश के सबसे गरीब,पिछड़े और अशिक्षित राज्यों में शुमार किया जाता है। इस क्षेत्र से स्वर्णरेखा,करकरी,कोयल दामोदरऔर सोन जैसी नदिया निकलती है जिसमें  स्वर्णरेखा नदी में सोने के कण मिलते है और यहां के कई इलाकों के आदिवासियों के रोजगार का यह प्रमुख साधन है। झारखण्ड में कई ऐसी जगह है जो अलग अलग वजहो से लोगों को आकर्षित करती हैं। एक तरफ जहां नेतरहाट वर्ष भर ठंडा रहता है और पर्यटको को गर्मी से बचने का मौका देता हैं वहीं देवघर में सावन के महीने में लाखों श्रद्धालू आते है।झारखण्ड के बेतला और हजारीबाग के राष्ट्रीय उद्यान अपनी अप्रतिम  सुंदरता और जीव जन्तुओ में विभिन्नता के लिए प्रसिद्ध हैं।

Jharkhand: देश के औसत से ज़्यादा बेरोज़गारी 

राज्य में विपुल खनिज और वन्य संपदा होने के बाद भी नीतिगत खामियों के चलते यहाँ के लगभग 35 फीसदी दलित आदिवासी परिवार एक कमरे के कच्चे घरों में रहने को मजबूर है। 80 फीसदी परिवार महीने का मुश्किल से 5000 रुपया कमा पाते है,देश की औसत बेरोजगारी दर जहां 6.1 फीसदी है वहीं झारखंड के गांवों में बेरोजगारी दर 7.1 फीसदी और शहरों में बेरोजगारी दर 10.5 फीसदी है।  झारखंड में 38 लाख हेक्टेयर जमीन खेती योग्य है। राज्य में स्वर्णरेखा,करकरी  कोयल,दामोदर,और सोन जैसी कई बड़ी नदियां होने के बाद भी 29 फीसदी इलाके में ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। जाहिर है राज्य के प्राकृतिक रूप से सम्पन्न होने के बाद भी व्यवस्थागत कमियों और बेहतर योजनाओं को  लागू न करने कि नाकामी के चलते यहाँ के लाखों दलित आदिवासी रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करने को मजबूर है। प्रति व्यक्ति आय में देश के 28 प्रमुख राज्यों की रैंकिंग में झारखंड 25वें नंबर पर है। राज्य के ग्रामीण इलाकों में लगभग एक हजार स्वास्थ्य केंद्रों के अपने भवन नहीं हैं। ग्रामीण इलाकों में जरूरत के हिसाब से 41 फीसदी स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है। 63.6 फीसदी स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसव के कमरे नहीं हैं,42 फीसदी रूरल हेल्थ सेंटर में बिजली नहीं है और 35.8 फीसदी स्वास्थ्यकर्मियों की कमी है।

Click एनकाउंटर पुलिस की सबसे बड़ी विफलता

बिहार से अलग करके झारखंड को एक अलग राज्य इसीलिए बनाया गया था कि आदिवासी बाहुल्य इस इलाके का विकास हो। इसका फायदा निर्माण कंपनियों को तो मिला लेकिन आदिवासियों कि स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। हथकरघा उद्योग को लेकर राज्य में बहुत संभावनाएं है,झारक्राफ्ट राज्य की पहचान है और मिट्टी की सुंदर मूर्तियां बनाना यहाँ की प्रमुख कला है। आदिवासी चित्रकला बेंत और बांस के सामान को सरकार यदि बड़ा बाज़ार दे तो यहाँ लाखों लोगों का जीवन स्तर सुधर सकता है और  इन सभी कलाओं में आदिवासी पारंपरिक तरीके से पारंगत है।  वन्य इलाकों को पर्यटन केंद्र के रूप में उन्नत करके और खनिज संसाधनों से लाखों आदिवासियों को रोजगार मिल सकता है,लेकिन यह योजनाएँ महज चुनावी नारा बनकर रह जाती है।

MP: 21 फीसदी से ज्यादा आदिवासी मगर आर्थिक स्थिति बेहद खराब

मध्यप्रदेश में आदिवासियों कि आबादी 21 फीसदी से ज्यादा है और उनकी आर्थिक स्थिति भी बेहद खराब है। मनरेगा के लिए पंजीयन कराने वाले मजदूरों में एक तिहाई से ज्यादा आदिवासी है।  शहडोल और उमरिया के जो मजदूर काम के सिलसिले में महाराष्ट्र गए थे,उन्हें इतनी दूर जाना ही नहीं पड़ता यदि इस इलाके को लेकर हमारी बेहतर योजनाएँ होती। शहडोल और उमरिया दोनों जिले वन्य संपदा से भरपूर है,पर्यटन केंद्र के रूप में पहचाने जाने वाला यह पूरा क्षेत्र हजारों रोजगार पैदा कर सकता है लेकिन व्यवस्थागत खामियों और विकास की कार्य योजना के अभाव में बदनसीब आदिवासी दूसरे राज्यों में रोजगार के लिए जाने को मजबूर है। औरंगाबाद के पास पटरियों पर अपनी जान खोने वाले 16 मजदूर इसी इलाकों से थे।

Click असली लॉकडाउन की शुरुआत तो अब हुई है

नक्सल प्रभावित मध्यप्रदेश के बालाघाट के हजारों मजदूर हैदराबाद और चेन्नई से पैदल लौटे हैं। इन आदिवासी क्षेत्रों में वनोपज से रोजगार की असंख्य संभावनाएं है। बालाघाट का बांस तो लाखों आदिवासियों को रोजगार के साथ खुशहाली और बेहतर जिंदगी दे सकता है लेकिन इस और नीतियाँ सही तरीके से लागू ही नहीं की गई। बांस की कटाई के लिए आदिवासियों का उपयोग किया जाता है जबकि बांस से महंगे फर्नीचर,होटलें को सजाने और बेशकीमती घर बनते है। बांस से बने खिलौने न केवल पर्यावरण के संरक्षण  लिए बहुत उपयोगी हो सकते है बल्कि इससे आदिवासियों को बड़ा रोजगार भी मिल सकता है। जरूरत है बांस से बनी वस्तुओं के प्रशिक्षण को लेकर कौशल विकास केन्द्रों की। सरकार के ऐसे प्रयास इस क्षेत्र के आदिवासियों का जीवन बदल सकते है।  मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ और अलीराजपुर जिले मे पलायन बड़ी  समस्या रहा है। झाबुआ की आबादी करीब 11 लाख है जिसमें से 4 लाख मजदूर हर साल पड़ोसी राज्य गुजरात,महाराष्ट्र और राजस्थान में रोजगार की तलाश में पलायन कर जाते है। यह जिला आदिवासी हस्तशिल्प खासकर बांस से बनी वस्तुओं, गुडियों, आभूषणों और अन्य बहुत सारी वस्तुओं के लिए पहचाना जाता है,लेकिन इसे रोजगार का साधन बनाएँ जाने की कमी  के चलते इसका लाभ आदिवासियों को नहीं मिल पाता। यह बाघ प्रिंट का बड़ा सेंटर हैं,लेकिन इसे हथकरघा उद्योग को बढ़ावा न मिल पाने से कारीगरों की कमाई बहुत ज्यादा नहीं होती। आलीराजपुर जैसे आदिवासी बहुल इलाकों में डोलोमाइट के पत्थर बड़ी मात्रा में हैं लेकिन  मजदूर की मजबूरियां बदस्तूर जारी है। झाबुआ-आलीराजपुर इलाके में बनने वाली महुआ की शराब और ताड़ी बहुत ही स्वास्थ्यवर्धक मानी जाती है। इन क्षेत्रों में अंग्रेजी शराब की बिक्री पर प्रतिबंध का बड़ा आर्थिक लाभ इस इलाके में रहने वाले आदिवासियों को मिल सकता है।

Odisha: भरपूर खनिज फिर भी बेरोज़गारी 

ओडिशा में करीब 22 फीसदी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है और यहाँ के करीब 15 लाख मजदूर अन्य राज्यों में रोजगार के लिए पलायन कर जाते है। इसमें अधिकांश आदिवासी ही है जो गुजरात की फैक्ट्रियों में काम करते है। ओडिशा भारत के महत्वपूर्ण राज्यों में से एक है, जो कई प्रकार के खनिज स्रोतों से पूरी तरह संपन्न है। उद्योगों के लिए ओडिशा के खनिज स्रोत उच्च स्तरीय हैं। यहाँ लौह अयस्क, क्रोमाइट,मैगनीशियम-अयस्क,बॉक्साइट,गैरकोकिंग कोयला,चीनी मिट्टी और टिन के भंडार है। यही वजह है कि यहां राउरकेला स्टील प्लांट,राष्ट्रीय एलुमिनियम कंपनी,नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन की स्थापना की गई है,जो न केवल देश में बल्कि विश्वभर के बाजारों में अपनी अलग पहचान रखते हैं। ओडिशा में नियमगिरि,कलिंगनगर,पोस्को जैसे इलाकों में जल,जंगल,जमीन चुनावी मुद्दा तो बनते है लेकिन यहाँ के संसाधनों पर पहला अधिकार इसी क्षेत्र के आदिवासियों का है। खनिज और वन्य संसाधनों का  फायदा बड़ी कंपनियाँ उठा रही है जबकि यहाँ का आदिवासी अन्य राज्यों में रोटी की तलाश में जाने को मजबूर है। यहां खैर या कत्था के वृक्ष बहुतायत में पाये जाते है,कत्था पान में लगाया जाता है।  मधुका इंडिका एक और उपयोगी वृक्ष है जिसके फल से अच्छा खाद्य तेल बनता है।  टर्मिनाला अर्जुना नामक वृक्ष की पत्तियों का अच्छा चारा बनता है। पेड़ों पर टसर के रेशमी कीड़े पाले जाते हैं और इससे देहातों में लाभकारी रोजगार मिलता है। उड़ीसा का टस्सर, उत्कृष्ट सिल्क माना जाता है। सरकार सुविधाएं और कौशल विकास के जरिए न केवल लाखों लोगों को रोजगार दे सकती है बल्कि एक अच्छा बाज़ार भी मिल सकता है।

Chhattisgarh: बेशकीमती वनोपज़ पर चाहिए पहला अधिकार

तकरीबन 32 फीसदी आदिवासी आबादी वाला छत्तीसगढ़ राज्य साल और सागोन के वन के लिए पहचाना जाता है। कोयला,लौह अयस्क, बॉक्साइट, चुना पत्थर और टिनकी खनिज संपदा से भरा यह राज्य भारत में विशिष्ट स्थान रखता है। देश के कुल खनिज उत्पादन मूल्य का लगभग 16 प्रतिशत छत्तीसगढ़ में संचालित हो रहे खनन प्रक्रिया से प्राप्त होता है। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में खनिज क्षेत्र का 11 प्रतिशत से अधिक का योगदान है और प्रदेश में 80 प्रतिशत से अधिक खनिज आधारित उद्योगों का संचालन हो रहा है। लेकिन यहाँ का आदिवासी नक्सलवादियों और सरकार के बीच बुरी तरह फंसा हुआ है। देश की जनसंख्या जहां उतरोत्तर बढ़ी है वहीं छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की आबादी में कमी आई है। 2011 में हुई जनगणना में राज्य में कुल 78 लाख 22 हजार आदिवासी थी। यह राज्य की कुल आबादी का 30.62  फीसदी है, जबकि 2001 में हुई  जनगणना में आदिवासी कुल आबादी का 31.8 फीसदी थे। जाहिर है तुलनात्मक रूप से अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या में  सवा फीसदी की कमी आई है। इसका प्रमुख कारण राज्य से आदिवासियों का पलायन है जो रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों में जाने को मजबूर है। बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य नागरिकों का मूलभूत अधिकार है लेकिन रोजगार के लिए दर दर भटकते आदिवासियों को कैसे सुकून मिलेगा,इसकी कोई योजना दूर दूर तक नहीं दिखाई पड़ती।

छत्तीसगढ़ मे साल और सागोन के घने वन पाये जाते है,जिसका लकड़ी का उपयोग रेलवे के स्लीपर के साथ घरों के निर्माण में किया जाता है। तेंदुपत्ता,शहद,मोम, रेशम,हर्रा,आंवला और बांस जैसे बेशकीमती वनोपज़ पर आदिवासियों का पहला अधिकार है और इससे वे बेहतर जीवन अर्जन भी कर सकते है।

आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए आदिवासियों के लिए व्यापक कौशल केंद्र खोलने की जरूरत है। इससे न केवल आदिवासियों को रोजगार मिल सकता है बल्कि देश के पिछड़े इलाकों की तस्वीर भी बदल सकती है। स्थानीय स्तर पर वन्य और खनिज संपदा का उपयोग करने से पलायन को रोकने में बड़ी मदद मिल सकती है। बहरहाल जल,जंगल और जमीन के रखवालों  को लेकर कब सरकारें स्थानीयता पर आधारित योजनाओं को अंजाम देगी,यह कह पाना मुश्किल है।