सर्वधर्म समभाव ही भारत की आत्मा है: महात्मा गांधी

भारत आज तमाम तरह के संकटों से गुजर रहा है। परंतु यह तो स्पष्ट है कि इस वक्त का सबसे बड़ा संकट बढ़ती और जड़ जमाती "सांप्रदायिकता’’ है। भारत के हुक्मरान यह भूल रहे हैं कि भारत की दृढता का आधार ’’सर्वधर्म समभाव’’ ही हो सकता है।

Updated: Oct 02, 2023, 08:44 AM IST

"दूसरे धर्मों को बरदाश्त करने में उनकी (धर्मों की) कमी मान ली जाती है। आदर में मेहरबानी का भाव आता है। अहिंसा हमें दूसरे धर्मों के लिए समभाव, बराबरी का भाव सिखाती है। आदर और सहिष्णुता अहिंसा की नजर में काफी नहीं है। दूसरे धर्मों के लिए समभाव रखने के मूल में अपने धर्म की अपूर्णता का स्वीकार आ ही जाता है। और सत्य की आराधना, अहिंसा की कसौंटी यही सिखाती है।
महात्मा गांधी 23-9-30
(यरवदा (जेल) मंदिर)
       
भारत आज तमाम तरह के संकटों से गुजर रहा है। परंतु यह तो स्पष्ट है कि इस वक्त का सबसे बड़ा संकट बढ़ती और जड़ जमाती "सांप्रदायिकता’’ है। भारत के हुक्मरान यह भूल रहे हैं कि भारत की दृढता का आधार ’’सर्वधर्म समभाव’’ ही हो सकता है। गांधी इस तथ्य को शुरू से ही जानते थे और लगातार अपने सनातनी हिन्दू होने को स्वीकारते हुए, सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष करते रहे और अंततः इसी सांप्रदायिकता ने उनके प्राण भी ले लिए। बहरहाल इस स्वर्णकाल में कुछ भी चमकता नजर नहीं आ रहा है। सब ओर घना कोहरा छाया है। यह कोहरा इतना घना है कि इसने प्रेम के सूरज की किरणें भी अपने में समेट ली हैं। यह कोहरा नहीं छटा तो अगली स्थिति गहन अंधकार की है और उसके बाद? उसके बाद इतना बड़ा प्रश्नचिन्ह हैं, जिसमें एक सौ चालीस करोड़ का देश अटक गया है। हमें सोचना होगा कि क्या हम एक असाध्य विनाश की ओर बढ़ चले हैं? 
        
वर्तमान भारत में बहुसंख्यक के ऊपर अपने धर्म की उच्चता का जो भीषण नशा छा गया है, उसने उसे विवेकशून्यता की ओर ढ़केल दिया है। दिल्ली में गणेश पंडाल में एक मुस्लिम युवक को बिजली के खंबे से बांधकर उसी के मोहल्ले में उसी के परिचितों ने पीट-पीटकर इसलिए मार डाला गया क्योंकि उसने प्रसाद (केला) खा लिया था। कुछ कह रहे हैं कि उसने चुराकर खाया था! अजीब बात है, चोरी की सजा, सार्वजनिक मौत! वह भी उन्मादी भीड़ के सामुहिक निर्णय के आधार पर? गौरतलब है उस जगह से कुछ ही कोसों की दूरी पर जहां पर जन्म लेने वाले भगवान "माखन चोर’’ कहलाए थे। 

मध्य प्रदेश में एक बारह साल की छोटी सी मासूम लड़की अपने घर से सात सौ किलोमीटर दूर ’’धार्मिक नगरी’’ उज्जैन में वहशी बलात्कारियों का शिकार हो जाती है। गुमशुदगी की रिपोर्ट के बावजूद, मध्य प्रदेश की पुलिस सक्रिय नहीं होती। बलात्कार पीड़ित लड़की घिसटते, गिरते-पड़ते आठ किलोमीटर, महाकाल की पवित्र नगरी में पैदल चलती रहती है। एक भी व्यक्ति उसकी मदद करने सामने नहीं आता! सैकड़़ों करोड़ों रू. का सार्वजनिक धन, महाकाल लोक बनाने में लगा। परंतु इससे नागरिकों की संवेदनशीलता में तो कोई परिवर्तन नहीं आया। हम पढ़ने भर लगे कि इस सप्ताहांत आठ लाख लोगों ने महाकाल के दर्शन किये। करोड़ों का चढ़ावा आया। पंरतु एक लड़की उस पवित्र शहर में सुरक्षित नहीं है। अभी तक एक भी पुलिस कर्मचारी, निलंबित नहीं हुआ। कोई सवाल नहीं कि वे क्या कर रहे थे। जाहिर है राष्ट्र की राजधानी दिल्ली में लड़की कार के नीचे फंसकर बीस किलोमीटर घिसटती है और उज्जैन में एक लड़की आठ किलोमीटर पैदल चलती है, लहुलुहान, दोनों को कोई नहीं बचाता! क्या ये गांधी की कल्पना का भारत है? 

किसी राजनीतिज्ञ या प्रशासनिक अमले के चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। सब कुछ यथावत ही चल रहा है। कुछ बयान जरूर आ रहे हैं, परंतु वे भी अंततः खोखले ही सिद्ध होगे। विपक्ष ने भी इस घटना के विरोध में अपनी चुनावी गविविधियों को एक दिन का विराम नहीं दिया। एक भी सभा इसी विषय को लेकर नहीं हुई। आपदा शायद सभी के लिए अपने-अपने हिसाब से अवसर ही है।

दरअसल भारत में हिंसा का क्रूरता और वीभत्सता में बदले जाने के पीछे मुख्यत : ’’सांप्रदायिकता’’ ही जिम्मेदार है। सन 2002 में गुजरात से शुरू हुआ यह नया घृणित दौर अब पूरे देश में अपना विष फैला रहा है। मणिपुर में घृणित बलात्कार और पीड़ितों के नग्न प्रदर्शन के बाद अब दो युवाओं की नृशंस हत्या का ’’लाइव’’ वीडियो समझा रहा है कि हम किस राह चल पड़े है। गांधी ’’जेल’’ को ’’मंदिर’’ बना देते हैं और हम "मंदिर’’ को एक ’’युद्ध क्षेत्र’’ में बदल रहे है। अयोध्या यानी जहां युद्ध ही नहीं हुए वह नए तरह के सांप्रदायिक युद्ध की शुरूआत कर गया। 

सुधीर चन्द्र अपनी पुस्तक ’’गांधी एक असंभव संभावना’’ में 10 दिसंबर 1947 के गांधी जी एक वक्तव्य को उद्धत करते है, ’’हिन्दू-मुसलमानों के बारे में एक तरह से सुनता हूं कि ऐसे व्याख्यान भी चलते है, अभी नाम नहीं बताऊंगा, क्योंकि पूरा-पूरा नाम अभी नहीं आया है। कि चंद मुसलमान पड़े हैं, उनको रहने नहीं देंगे। जो मस्जिद रह गई हैं, उन पर कब्जा करेंगे, और उनमें रहेंगे। फिर क्या करेंगे, ’देव’ जानता है, मैं नहीं जानता हूं। हम विनाश का काम कर रहे हैं। ’’सुधीर चंद्र बात आगे बढाते हुए अपनी टिप्पणी में कहते हैं,’’ गांधी को अकल्पनीय डर लग रहा था। हमने उनके अकल्पनीय को संभव बना दिखाया है। चालीस साल में थोड़ा ही ऊपर हमें लगा है, गांधी और गांधी के समय के हे ये की श्रेय बनाने में! भले ही उस समय दिल्ली के दंगों में सौ से ज्यादा मस्जिद बर्बाद कर दी गई हों थोड़ी देर के लिए-और देश दूसरे हिस्सों में भी ऐसी बर्बादी हुई हो-स्थाई तरीके से-पर न गांधी और न ही देश की सार्वजनिक चेतना गर्व से संचरित हुई थी उन कृत्यों के कारण।’’ 

जाहिर है आज स्थितियां हम सबके सामने है। मणिपुर में दो सौ ज्यादा चर्च नष्ट हो गए। सारा देश बुलडोजर की चपेट में है। एक नई बुलडोजर संस्कृति का उदय हो गया। दिल्ली हो या नूह। कानपुर हो या खरगोन। पूरा देश बुलडोजर के पंजों से घायल हो रहा है। कानून अब अदालतों से ज्यादा सड़कों पर लागू किया जा रहा है। सांप्रदायिकता अब देश की नई ’’पहचान’’ बनने के प्रयास में है। खालिस्तान का मामला नए सिरे से सामने आया है। देशप्रेम नए तरह से व्याख्यायित हो रहा है।

गांधी कहते हैं, ’’आज जो हिंसा दिख रही है, वह नामर्दों की हिंसा है। एक मर्द की हिंसा भी होती है। मान लीजिए, चार-पांच आदमी अपनी तलवारों से लड़ते-लड़ते मर जाते हैं। उसमें हिंसा जरूर है, परंतु वह मर्दों की हिंसा है। जब दस-बारह हजार सशस्त्र आदमी एक गांव के निहत्थे लोगों पर हमला करके स्त्री-बच्चों सहित उन्हें काट डालते हैं, तो वह नामर्दों की हिंसा हुई। अमेरिका का एटम बम एकतरफ और सारा जापान दूसरी तरफ। यह नामर्दां की ही हिंसा थी।’’ तो आज जो भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में हो यह रहा है कि, अल्पसंख्यक लगातार हिंसा का शिकार हो रहे है। भारत में सांप्रदायिकता अब राजनीति की धुरी बनती जा रही है। कोई कम सांप्रदायिक है तो कोई ज्यादा। 

एम.एस.गोलवलकर ने सन 1939 में एक पर्चे में लिखा था, "जर्मन जाति का गर्व आज चर्चा का विषय बन गया है। अपनी जाति एवं संस्कृति की शुद्धता को बनाए रखने के लिए जर्मनी ने यहूदी जाति का उन्मूलन करके संसार को सदमा पहुंचाया। यहां जाति-गर्व अपने सर्वोच्च रूप में अभिव्यत होता है। जर्मनी ने भी यह दर्शाया है कि किस प्रकार मतभेदों के गहरे होने से जातियों और संस्कृतियों का मिलकर एक होना लगभग असंभव है, जो हिन्दुस्तान में हमारे लिए एक अच्छा सबक है, जिससे हम लाभ उठा सकते हैं।’’ 

उपरोक्त कथन के आधार पर आज के भारत का आकलन कीजिए और इसी के समानांतर यह भी खोजिए कि उपरोक्त नीतियों की वजह से तत्कालीन जर्मनी का क्या हश्र हुआ था। इस बात पर भी गौर करिए कि यूरोप का पिछले सौ वर्षों का इतिहास देशों के विघटन और टूटन का है और इसके ठीक विपरीत भारत पिछले सौ वर्षों में ज्यादा सुगठित और संयुक्त हुआ है। भारत का इतिहास जुड़ाव का रहा है। परंतु आज तो सब ओर जैसे सबकुछ टूटता सा दिख रहा है, और इसकी बड़ी वजहें, पहली तो साप्रदायिकता और दूसरी है बढ़ती सामाजिक हिंसा और क्रूरता।

अहिंसा अब जैसे कोई दूसरी दुनिया का शब्द और रीति है। महात्मा गांधी ने 18 सिंतबर 1947 को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) के एक कार्यक्रम में कहा था, "मैं यह दावा करता हूं कि मैं सनातनी हिन्दू हूं। ’’सनातन’’ का मूल अर्थ लेता हूं। हिन्दू शब्द का सही मूल क्या है, यह कोई नहीं जानता। यह नाम हमें दूसरों ने दिया और हमने उसे अपने स्वभाव के अनुसार अपना लिया। हिन्दू धर्म ने दुनिया के सभी धर्मों की अच्छी बातें अपना ली हैं और इस अर्थ में यह कोई वर्जनशील धर्म नहीं है। अत: इसका इस्लाम धर्म के अनुयायियों के साथ ऐसा कोई झगड़ा नहीं हो सकता जैसा कि आज दुर्भाग्यवश हो रहा है। जबसे हिन्दू धर्म ने अस्पृश्यता का जहर फैला तब से इसक पतन आरंभ हुआ। एक चीज निश्चित है, और मैं यह बात जोर से कहता आया हूं, यानी यदि अस्पृश्यता बनी रही तो हिन्दू धर्म मिट जाएगा।’’ उनका वह पूरा संबोधन ही बेहद महत्वपूर्ण है। 

गौरतलब है संघ के प्रमुख जिस तरह से जर्मनी की फासिस्ट नीति की प्रशंसा कर रहे हैं, वह आज के परिप्रेक्ष्य में ध्यान देने योग्य है और इसके ठीक उलट महात्मा गांधी आर एस एस के कार्यक्रम में उन्हें ठीक-ठीक सलाह दे रहे थे। परंतु संघ ने उनकी सलाह को तब भी अनुसना किया था और आज जो कुछ उनके माध्यम से हो रहा है वह भी हम सबसे छुपा नहीं है।

भारत आज एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जिसमें अब आगे जाने का रास्ता नहीं बल्कि चौड़ी दीवार खड़ी हो गई है। नफरत, सांप्रदायिकता और हिंसा की। इस दीवार को सिर्फ प्रेम और परस्पर विश्वास से ही गिराया जा सकता है। और यही गांधी का मार्ग और संदेश दोनों ही हैं। भारत में आज सांप्रदायिकता की आड़ में सामाजिक विषमता और जातीय हिंसा की ओर से ध्यान हटाया जा रहा है। याद रखिए राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के अनुसार प्रति सोलह मिनट में एक दलित के विरूद्ध, किसी गैर दलित द्वारा अपराध किया जाता है। (यह गैर-दलित कौन हैं?) प्रतिदिन चार से अधिक अछूत महिलाओं का गैर अछूत द्वारा बलात्कार किया जाता है। (ये गैर-अछूत कौन समाज के हैं?) प्रत्येक सप्ताह तेरह दलितों की हत्या होती है और छः दलितों का अपहरण होता है। (यह कौन करता है?) वृहद बहुसंख्य संमाज को सांप्रदायिकता से इतर उपरोक्त मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए। क्या ऐसा संभव हो पाएगा? हम सांप्रदायिकता के पागलपन से कब उभर पाएंगे? 
 
अंत में एक बार पुन : गांधी की विराट दृष्टि को नमन करते हुए, उनके इस कथन पर गौर करते हैं, "मेरी दृष्टि में ईश्वर सत्य है और प्रेम हैं, ईश्वर नीति है और सदाचार है, ईश्वर निर्भयता है। ईश्वर प्रकाश और जीवन का स्त्रोत है, और फिर भी वह इन सबसे ऊपर है और परे है। ईश्वर विवेक बुद्धि है। वह नास्तिक की नास्तिकता भी है।’’ उनकी दिव्य दृष्टि को नमन्।