विराट प्रश्नों के बौने उत्तर

प्रधानमंत्री का सर्वज्ञाता होने का भरोसा वास्तव में भारत के वर्तमान संकटों, भूख, भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी, सांप्रदायिता के पीछे का एक बड़ा कारण है, आज भारत में नागरिक फेसबुक पर सजीव दिखाकर आत्महत्या कर रहे हैं और वर्तमान नीतियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।

Updated: Feb 12, 2022, 06:19 AM IST

Photo Courtesy: mint
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अमरीकी पत्रकार लुई फिशर ने महात्मा गांधी की जीवनी ‘‘दि लाईफ आफ महात्मा गाँधी’’ (हिन्दी में गांधी की कहानी) के अध्याय वेदना की पराकाष्ठा में लिखा हैं, ‘‘वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीब पांच सौ सदस्यों की एक सभा में गए। भाषण के बाद एक प्रश्न आया, "क्या हिन्दू धर्म अत्याचारी को मारने की अनुमति देता है?" गांधी जी ने उत्तर दिया, ‘‘एक अत्याचारी दूसरे अत्याचारी को सजा नहीं दे सकता, सजा देना सरकार का काम है जनता का नहीं।’’ इसी समयकाल में वह यह भी कहते हैं, ‘‘जिस समय प्रासंगिक हो, उस समय सच बोलना ही पड़ता है, चाहे वह कितना ही नागवार क्यों न हो। अगर पाकिस्तान में मुसलमानों के कुकृत्यों को रोकना या बंद करना अभीष्ट है, तो भारतीय संघ में हिंदुओं के कुकृत्यों का छत पर खड़े होकर एलान करना होगा।’’ लुई फिशर लिखते हैं, हिन्दू होने के नाते गांधी जी हिन्दुओं के प्रति सबसे अधिक निष्ठुर थे।

2 फरवरी 2022 को राहुल गांधी ने लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते हुए जो कुछ कहा उससे वर्तमान राजनीति में भूचाल सा आ गया है। उनके भाषण से असहमति होना एक स्वाभाविक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। परंतु उस भाषण का प्रति उत्तर जिस अशालीन व असंसदीय भाषा में दिया जा रहा है, वह यह जतला रहा है कि भाषण की चोट काफी तीव्रता से महसूस की गई। भारतीय राजनीतिक परिदृष्य के परिप्रेक्ष्य में देखें तो समझ में अता है कि विराट प्रश्नों के बेहद बौने और अप्रासंगिक उत्तर सामने आए हैं। इन्हें उत्तर माना भी जाए या नहीं इसमें भी शंका है। राहुल गांधी ने कुछ मूलभूत लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर अपनी बात रखी थी और उस पर सत्ता पक्ष, विशेषकर प्रधानमंत्री से प्रत्युत्तर की अपेक्षा थी। परंतु वहां तो जैसे निराशा का विस्फोट ही हो गया। टुकड़े टुकड़े गैंग और शहरी (अरबन) नक्सली जैसे शब्दों की झड़ी प्रधानमंत्री के मुंह से झड़ पड़ी और उन्होंने संसदीय बहस को किसी विद्यालय की वाद-विवाद प्रतियोगिता जिसके विषय थे, कांग्रेस बनाम भाजपा और आजाद भारत के चौदह प्रधानमंत्री और नरेंद्र मोदी में बदल डाला। उन्होंने यह सिद्ध करने का सायास प्रयास किया कि पूर्व प्रधानमंत्रियों ने पिछले 70 वर्षों में या तो कुछ नहीं किया या किया भी तो उनके अवतरण को समारोहित करने के लिए किया।

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वर्तमान प्रधानमंत्री भारतीय राजनीति के ऐसे अनूठे अवतार हैं कि भारत के पिछले सात दशकों के सारे अच्छे कार्य सिमट कर पिछले सात वर्षों में समा गए हैं और पिछले सात वर्षों में सामने आई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक विषमताओं की जिम्मेदारी उनके पूर्वजों या पूर्व प्रधानमंत्रियों पर डाल दी गई है। वे अपने अलावा किसी को भी देश में हुए अच्छे कार्य का श्रेय नहीं देते, भले ही उनके ही दल के प्रधानमंत्री रहें हों या उनका दल उस सरकार में शामिल रहा हो। अतएव कांग्रेस व निपक्ष को बहुत विचलित होने की आवश्यकता भी नहीं है। इस लिहाज से तो वर्तमान प्रधानमंत्री से ज्यादा समतावादी और कोई है ही नहीं।  गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, ‘‘भारत में राष्ट्रवाद’’ निबंध में लिखते हैं, ‘‘मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि जिन्हें प्रेम की नैतिक शक्ति व आत्मीय एकता का वरदान प्राप्त है, जिनमें परायों के प्रति भी शत्रुता की भावना नहीं है और परायों की जगह खुद को रखकर सहानुभूतिपूर्ण अंतदृष्टि से काम लेते हैं, वे ही आने वाले युग में स्थायी जगह पाने के योग्यतम सिद्ध होंगे। जबकि वे, जो परायों से झगड़ने व उनके प्रति असहनशीलता का भाव बनाए रखते हैं, वे विलुप्त हो जाएंगे।’’ संदर्भित संदसीय बहस को यदि उपरोक्त नजरिए से देखते हैं तो काफी राहत महसूस होती है।

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अपने भाषण में राहुल गांधी ने भारत के विरुद्ध चीन व पाकिस्तान के लगातार मजबूत होते गठजोड़ को सबसे खतरनाक घटना के रूप में सामने रखा था। प्रधानमंत्री ने तो इस पर चर्चा नहीं की, लेकिन तमाम प्रबुद्ध लोग जिसमें द हिन्दू के पूर्व संपादक एन.राम जैसे बड़े पत्रकार भी शामिल हैं, उनके इस विश्लेषण से सहमत नहीं थे। परंतु भाषण के तीन दिनों के भीतर ही चीन पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर ही नहीं बल्कि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान व चीन के जो बयान सामने आए हैं, उससे स्थिति स्पष्ट हो जाती है। भाषण की एक और बात, भारत के अलग थलग पड़ जाने, पर विचार कीजिए। आजादी के बाद से चली आ रही भारतीय विदेश नीति की वजह से पूरे विश्व में संभवतः भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसके रूस, अमेरिका, यूरोप व यूक्रेन सभी से बेहतरीन रिश्ते हैं। सभी से जीवंत व्यापारिक व सांस्कृतिक संबंध भी बने हुए हैं। परंतु यूक्रेन विवाद निपटाने में हमारी कोई भूमिका नहीं है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की इससे बुरी स्थिति क्या हो सकती है ?

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समाधानमूलक उत्तर न दे पाने की स्थिति में उलझ जाने से प्रधानमंत्री एकदम विचलित हो गए और उन्होंने कोरोना काल में मददगार की भूमिका निभाने के लिए कांग्रेस की जमकर आलोचना की। यह तर्क समझ से परे है कि जब रेल संचालन केंद्र सरकार का विशेषाधिकार है तो कांग्रेस ने ठप्प पड़ी रेल व्यवस्था में किन्हें टिकट खरीदकर वापस घर भेजा? इस दौरान उन्होंने एक नया व मौलिक सिद्धांत भी गढ़ दिया कि संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना अब ‘‘पाप’’ की श्रेणी में आएगा। लाखों लाख भारतीयों का हजारों हजार किलोमीटर भूखे प्यासे अपने घर लौटने को "संकट" की नहीं बल्कि ‘‘प्रलय’’ की श्रेणी में गिना जाएगा। सड़क पर बच्चे को जन्म देती माँ की स्थिति को तो समझिए। वह प्रसव के कुछ ही घंटे बाद उस नवजात को गोदी में लिए पुनः प्रवास पर चल पड़ती है। वे ढूंढे उस बच्चे को जिसका नाम एनएच-3 रखा गया, क्योंकि उसका जन्म मुंबई-आगरा राजमार्ग पर हुआ था।

राहुल गांधी का भाषण पिछले 6-7 वर्षों का संसद में दिया गया सर्वाधिक सारगर्भित भाषण था। असहमति की गुंजाइश तो हमेशा रहती है, लेकिन उसे दूर किए जाने की कोशिश की जानी चाहिए। परंतु प्रधानमंत्री की भाषा ने तो जैसे संवाद के रास्ते ही बंद कर दिए। सत्ताधारी दल के 300 सांसदों में से एक ने भी परोक्ष रूप से भी प्रधानमंत्री के संबोधन पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं किया। वहीं इस भाषण के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा हरिद्वार संसद में दिए गए अप्रिय भाषणों की निंदा की गई। इतना ही नहीं उन्होंने हिजाब विवाद में भी उग्र विरोध करने वालों से मतभेद को स्पष्ट तौर पर जाहिर किया। यह स्वागत योग्य है। राहुल गांधी ने अपने भाषण में केंद्र राज्य संबंधों पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए संघवाद की भावना की बात की थी। परंतु प्रधानमंत्री ने अपने प्रत्यारोप में जिस लहजे और भाषा में दिल्ली और महाराष्ट्र का जिक्र किया, वह वास्तव में अचंभित करने वाला है। कोई राष्ट्रप्रमुख अपने लोकतांत्रिक राष्ट्र के एक भूभाग पर यदि कोई और वैचारिक मत का शासन है तो क्या ऐसे शब्दों व भावना की अभिव्यक्ति कर सकता है ? उनके इस कथन ने राजनीति को नये निम्न (न्यू लो) तक पहुंचा दिया है। यह दुर्भावना उन तक ही सीमित नहीं रही। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने जिस गंदे तरीके से केरल, पश्चिम बंगाल व कश्मीर को कोसा है, वह भारतीय लोकतंत्र की अभूतपूर्व घटना है, जिसमें एक राज्य का मुख्यमंत्री दूसरे राज्यों से इस तरह से संबोधित हो रहा है।

राहुल गांधी के संबोधन ने भारतीय जनता पाटी की वैचारिक शून्यता को पूरी तरह से उधेड़कर रख दिया। इसके समर्थकों ने अनजाने ही ‘‘शहंशाह’’ की अवधारणा को सही सिद्ध कर दिया है। अपने वैचारिक विरोधियों पर व्यक्तिगत छींटाकशी हमेशा अनैतिक ही कहलाएगी। यह तो पता नहीं कि, राहुल गांधी को ‘‘पप्पू’’ और ‘‘बाबा’’ कहने के पीछे क्या आधार था। परंतु संसद में उनके भाषण के बाद आई प्रतिक्रियाओं ने यह बता दिया है कि भाजपा में ‘‘पप्पुओं’’ और ‘‘बाबाओं’’ की पूरी सेना अस्तित्वमान है। वैसे डा. मनोज झा और महुआ मोइत्रा के भाषणों तथा दिग्विजय सिंह और पी. चिदंबरम के भाषणों के जवाब भी प्रधानमंत्री के पास नहीं थे। उन्होंने अपने पूरे जवाब को मैं बनाम कांग्रेस व मैं बनाम गाधीं - नेहरु परिवार पर केंद्रित कर उन महत्वपूर्ण सवालों से पीछा छुड़ाने का असफल प्रयास किया जो निजी तौर पर उन पर और साथ ही साथ उनकी सरकार पर उठाए गए थे। आरोपों का समाधान होना चाहिए। प्रत्यारोप कोई समाधान नहीं होता बल्कि यह लगाए गए आरोपों को औचित्यपूर्ण ही ठहरा देता है।

सुकरात कहते हैं, ‘‘मैं ज्ञानी इस अर्थ में हूँ कि मैं जानता हूँ कि मैं कुछ नहीं जानता।’’ भारतीय उपनिषदों में लेखक (जिनका नाम ज्ञात नहीं है) कहता है, ऐसा मैंने जानने वालों से जाना है। परंतु प्रधानमंत्री का सर्वज्ञाता होने का भरोसा वास्तव में भारत के वर्तमान संकटों, भूख, भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी, सांप्रदायिता के पीछे का एक बड़ा कारण है। आज भारत में नागरिक फेसबुक पर सजीव दिखाकर आत्महत्या कर रहे हैं और वर्तमान नीतियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहे है। पिछले 3 वर्षों में बीस हजार से ज्यादा बेरोजगार युवा और कर्जा न चुका पाने वाले आत्महत्या कर चुके हैं। भारत की समस्याओं को लेकर सर्वदलीय बैठकें तो इतिहास बन चुकी हैं और अब तो संसद में भी उनपर बहस नहीं हो पाती। यह बेहद डरावनी स्थिति है। पेगासस में संसदीय समिति का गठन न होना यहीं दर्शाता है। तीनों किसान कानूनों को जारी करते समय और वापस लेते समय बहस से इंकार समझा रहा है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था रीतती जा रही है।

मुझसे एक भूल हो रही थी कि प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी के एक भी प्रश्न या बात का जवाब नहीं दिया। याद करिए राहुल गांधी ने अपने भाषण में ‘ए फेक्टर’ यानी अंबानी-अडानी का जिक्र किया था। प्रधानमंत्री ने इसका पुरजोर जवाब देकर ‘‘उनकी’’ (अडानी-अंबानी) की स्थिति स्पष्ट की। इसके लिए उन्हें साधुवाद। यह दोस्ती का अनुकरणीय उदाहरण है।’’ सच्चिदानंद सिन्हा, ने बड़ी मार्मिक बात लिखी है, ‘‘समाज के संभ्रांत लोगों में जिनके घरों में आसुँओं से गुँथी रोटियां खाने की मजबूरी नहीं होती, राजनीतिक भ्रष्टाचार की चर्चाएं अतिआवश्यक चटकारा होती हैं, जिससे मध्यवर्गीय जीवन की एकरसता मिटाई जाती है। इस वर्ग के ‘फील गुड’ के लिए स्केंडल उतना ही अपरिहार्य है जितना कि इसकी कारों के लिए चमचमाती सड़कें।’’ राहुल गांधी इसी बढ़ती असमानता की बात तो कर रहे थे। इसका भी जवाब नहीं मिला।

सत्ताधारी दल पर इस भाषण का असर होता है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि कांग्रेस के कार्यकर्ता क्या इस भाषण का पाठ करेंगे और उस दिशा में आगे बढ़ने की वैचारिक व संगठनात्मक तैयारी शुरु करेंगे? कोई भी सीख दूसरे से ज्यादा स्वयं के लिए होती है। आज की सबसे बड़ी जरुरत है, कांग्रेस को अपनीं आजादी से पहले की भूमिका का गहन अध्ययन कर उस पर अमल कर इस देश को पुनः एकसूत्र में जोड़ने में जुटना। तभी इस भाषण की सार्थकता भी सिद्ध होगी। विनोबा एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कहते हैं, "कला संबंधी एक पुस्तक में मूर्ति को अपूर्ण से पूर्ण की ओर ले जाने की पद्धति का निषेध किया गया है। लेखक का मत है, इस भाव से कार्य न करे कि मिट्टी को कैसा अंतिम आकार प्राप्त होगा। बल्कि इस ढंग से निर्माण का कार्य करे कि आदि से लेकर अंत तक किसी भी समय कोई उसे देखे, तो वह समझ जाए कि क्या चल रहा है। ऐसा होने पर ही मूर्ति में कला का संचार होता है।" हमें लोकतंत्र को मजबूत बनाने में इसी पारदर्शी प्रक्रिया को अपनाने का प्रयत्न करना होगा।

(गांधीवादी विचारक चिन्मय मिश्रा के यह स्वतंत्र विचार हैं)