आधी रात में गांधी के दलितोत्थान की अंत्येष्टि    

हाथरस में पुलिस द्वारा आधी रात को दलित युवती का अंतिम संस्कार किया गया तो गांधी के राज्य को लेकर यह विचार सच साबित हुए कि राज्य हिंसा का धनीभूत और संगठित रूप है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की हकीकत भयावह है। महात्मा गांधी  के भारत में सामाजिक और आर्थिक बराबरी का सपना पूरा नहीं हो सका है। अभी भी लोग नारकीय जीवन जीने को मजबूर है। इन सबके बीच प्रश्न यह है कि विशेष सीटों से चुने गए दलित सांसद और विधायक अपने समुदाय के पक्ष में आवाज उठाने में नाकाम क्यों रहते हैं? 

Updated: Oct 05, 2020, 06:44 AM IST

बापू के भारत में मानवीय गरिमा और समता मूलक समाज की स्थापना को लेकर संविधानिक प्रावधानों में कोई कमी नहीं है लेकिन इसे लागू करने का अधिकार राज्य को दिया गया है। महात्मा गांधी की सबसे बड़ी चिंता यही तो थी. उन्हें अंदेशा था कि राज्य शोषण का सबसे बड़ा स्रोत बनकर सामन्तवाद को स्थापित कर देगा और सामान्य और वंचित व्यक्ति के सम्मान को तार तार कर देगा।

हाथरस में आधी रात को एक दलित नवयुवती का अंतिम संस्कार पुलिस द्वारा किया गया तो गांधी के राज्य को लेकर यह विचार सच साबित हुए कि राज्य हिंसा का धनीभूत और संगठित रूप है। यह हिंसा पर जीवित रहता है और इसे हिंसा से कभी अलग नहीं किया जा सकता।” भारत के संविधान में अंतिम संस्कार को लेकर स्पष्ट उल्लेखित है कि यह मानवीय गरिमा से जुड़ा अधिकार है। जबकि हाथरस में मजबूर माँ अपनी बेटी के अंतिम संस्कार को सही तरीके से करने को लेकर गिड़गिड़ाती रही।

पीड़िता की माँ कहती रही हैं उन्हें एक बार अपनी बेटी के पार्थिव शरीर को घर ले जाने दिया जाए, वह अपने रस्म-ओ-रिवाज से हल्दी चंदन लगाकर बेटी को अंतिम विदाई देना चाहती हैं। लेकिन मृतका का अंतिम संस्कार घर वालों की ओर से बताए गए रीति रिवाजों के बग़ैर हो गया। परिवार की आवाज के उलट अंतिम संस्कार के सही तरीके से होने को लेकर जिले के कलेक्टर और पुलिस के मुखिया बयान दे रहे थे। संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकारों को दरकिनार कर प्रशासनिक अमले से जुड़े अधिकारी या पुलिस आधी रात में अंतिम संस्कार को जबर्दस्ती करके उसे न्यायोचित ठहराने लगे, तो शासन तंत्र और सरकार पर आम जन का भरोसा कैसे कायम रह सकेगा। हाथरस की घटना के 15 दिनों तक चर्चा में रहने और विरोध प्रदर्शन की गूंज पूरे भारत में होने पर भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा कार्रवाई तब की गई जब उन्हें देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा फोन किया गया। जाहिर है देश के प्रधानमंत्री की संवेदनाएं जाग गई, लेकिन राज्य के मुखिया की मानवीय अस्मिता से जुड़े प्रश्न पर कई दिनों तक मौन परेशान करने वाला है।

दरअसल, भारत में लोकतंत्र के उच्च प्रतिमानों के बाद भी मध्ययुगीन सामन्तवाद ने अपनी जड़ों को मजबूत बनाये रखा है। इन सबके बीच समाज का वंचित वर्ग हैरान,परेशान,बेहाल और अभिशिप्त है। देश की कुल जनसंख्या का एक चौथाई अनुसूचित जाति–जनजातीय समाज सदियों से प्रचलित असमानता और सामजिक विषमता से बेहाल है। वह स्वतंत्र भारत में अपने लिए संवैधानिक विशेषाधिकारों के बूते  अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है।

इन सबके बीच यह प्रश्न पुनः उठ खड़ा हुआ है कि संसद और विधायिका में विशेष सीटों से चुने गए दलित सांसद और विधायक अपने समुदाय के पक्ष में आवाज उठाने में नाकाम क्यों रहते हैं? इसे लेकर डॉ.अंबेडकर आशंकित थे। वे लंदन में हुए राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में दलितों के लिए सेपरेट इलेक्टोरेट के समर्थन में अभियान चला रहे थे, जिससे इस वर्ग के प्रतिनिधि मुखरता से अपनी बात कह सके। 1932  में अंग्रेजी सरकार ने दलित जातियों को आम हिन्दू निर्वाचन क्षेत्र में मतदान का अधिकार देने के साथ ही साथ अपने पृथक निर्वाचन क्षेत्र में भी मत देने का अधिकार दे दिया। दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरोध में महात्मा गांधी ने यरवदा जेल में आमरण अनशन का रास्ता चुना। महात्मा गांधी ने कहा कि दलित जातियों के प्रति अन्याय हिन्दू धर्म का पाप है और उन्हें इसका प्रायश्चित भी करना चाहिए। बाद में पूना पैक्ट बना और दलितों को हिंदू धर्म से जोड़कर विशेष अधिकार दिए गए जिसमें संसद और विधानसभाओं में विशेष प्रतिनिधित्व भी शामिल है। इसी प्रावधान की वजह से लोकतान्त्रिक सदन की लगभग 1200 सीटें अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए सुरक्षित हो जाती हैं। लेकिन देखा यह गया है कि इन सीटों से चुनकर आने वाले अधिकांश प्रतिनिधियों ने अपने समुदाय को लगातार निराश किया है।

दलित और आदिवासी हितों के सवाल उठाने में ये जनप्रतिनिधि अधिकांश मामलों में बेहद निकम्मे साबित हुए हैं। उत्तरप्रदेश दलितों पर अत्याचार के लिए कुख्यात है और यहां की 80 लोकसभा सीटों में से 17 आरक्षित है। अफ़सोस इस बात का है कि हाथरस जैसी घटनाओं पर भी आरक्षित सीटों पर से चुन कर आने वाले सांसद,विधायक  दलित अधिकारों के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करने का साहस नहीं दिखा पाते। यह बात डॉ. अंबेडकर जानते थे और उन्होंने 1955  में शेड्यूलड कास्ट सम्मेलन में सुरक्षित सीटों को समाप्त करने की मांग की थी।

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की हकीकत भयावह है। महात्मा गांधी  के भारत में सामाजिक और आर्थिक ग़ैरबराबरी को ख़त्म करने का सपना पूरा नहीं हो सका है। अभी भी लोग नारकीय और दोयम दर्जे का जीवन जीने को मजबूर है। समावेशी विकास और सभी की गरिमा की लड़ाई भारत के पुनः विभाजन का कारण न बन जाये इसीलिए संविधान में मौलिक अधिकारों को प्राथमिकता दी गई। लेकिन सामन्तवाद सत्ता पर इस तरह हावी हो गया कि वंचित वर्ग के मानवीय और संविधानिक अधिकारों को वह रोज कुचलता है। समाज पर वह पूरी तरह से हावी है और सरकारें उन्हीं के अनुसार चलती है। हाथरस और बलरामपुर की घटना इसी का आईना दिखाती है।

महात्मा गांधी के राम राज्य में वैष्णव जन से यह अपेक्षा की गई है कि वह उच्च मानवीय आदर्शों के साथ वंचित वर्ग के विकास की परिस्थितियां निर्मित करेगा। लेकिन आधी रात को जब अंतिम संस्कार किया गया तो भारतीय समाज के स्थापित धर्म गुरुओं ने इसे लेकर राज्य का विरोध नहीं किया। इस घटना के बाद जिस प्रकार दलितों की नाराजगी सामने आ रही है,उससे यह भी आशंका गहरा गई है कि आने वाले समय में दलितों के यहां अंतिम संस्कार आधी रात में करके दलितों पर अत्याचार के समय अक्सर खामोश रहने वाले कथित धर्मगुरुओं और परम्परवादियों को आईना दिखाने की प्रतिकात्मक कोशिशें न शुरू हो जाए। 1932 में पूना पैक्ट के जरिए हिन्दू धर्म के संभावित विभाजन को महात्मा गांधी ने टाल दिया था। इस समय न तो गांधी है जिन पर सभी वर्ग विश्वास करते हो और न ही अंबेडकर जिन पर दलितों की स्वीकार्यता हो।

भारत में दलितों पर भयावह अत्याचार की घटनाएं और परम्परावादी लोगों की मूक सहमति बापू की उस अपेक्षा को गलत ठहरा रही है जिसमें उनके द्वारा प्रायश्चित की अपेक्षा की गई थी। वहीं डॉ.अंबेडकर की संविधान सभा में चेतावनी को याद रखने की जरूरत है जिसमें उन्होंने साफ कहा था कि, अगर हमने इस ग़ैरबराबरी को ख़त्म नहीं किया तो इससे पीड़ित लोग उस ढांचे को ध्वस्त कर देंगे,जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है। जाहिर है देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए वंचित वर्गों के अधिकारों के प्रति ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत है।