राजघाट विध्वंस: गांधी विचार से उपजा भय

नई वैचारिक शासन व्यवस्था के अन्तर्गत वाराणसी स्थित राजघाट विध्वंस कोई पहला विध्वंस नहीं है। इससे पहले गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति को एक दक्षिणपंथी विचार के व्यक्ति को सौंपकर उनके माध्यम से समिति द्वारा विनायक दामोदर सावरकर को महिमामंडित करते हुए विशेष अंक जारी कर इस विध्वंस की शुरूआत की गई थी। इसके बाद साबरमती आश्रम का नंबर आया।

Updated: Aug 14, 2023, 06:54 PM IST

विनोबा कहते हैं, ’’मैं सुप्रीम सिमेंटिग फेक्टर हूं क्योंकि मैं किसी के पक्ष में नहीं हूं। परंतु यह तो मेरा ’निगेटिव’’ वर्णन हो गया। मेरा ’’पाजिटिव’’ वर्णन यह है कि सब पक्षों में जो सज्जन हैं, उन पर मेरा प्रेम है। इसलिए मैं स्वयं को ’सुप्रीम सिमेंटिग फेक्टर’ मानता हूं। यह मेरा व्यक्तिगत वर्णन नहीं है। जो शख्स ऐसा काम उठाता है, जिससे कि ह्दय परिवर्तन की प्रक्रिया से क्रांति होगी, वह एक देश के लिए नहीं बल्कि सब देशों के लिए ’सिमेंटिंग फेक्टर’ होगा! 
 
बनारस के राजघाट पर बने गांधी विचार संकुल जो कि सर्व सेवा संघ का एक महती उपक्रम है, में स्थित गांधी विद्यामंदिर, पुस्तकालय गांधी-विनोबा विचार के प्रचार में रत प्रकाशन संस्थान सबको भारतीय लोकतंत्र के ’’नवीनतम’’ प्रतीक ’’बुलडोजर’’ के माध्यम से ध्वस्त कर दिया गया। यह मात्र दुखद घटना नहीं है, यह लोकतंत्र पर मंडराता प्रलय है, जो भारत के स्वतंत्रता दिवस के ठीक तीन दिन पहले, वाराणसी में गंगा किनारे स्थित राजघाट पर ’’लैंड’’ कर गया। कुछ बरस पहले यह प्रलय मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले में नर्मदा के तट पर स्थित राजघाट पर उतरा था। वहां स्थापित अस्थिकलश में बापू के अलावा कस्तूरबा और महादेव भाई के फूल विसर्जित हुए थे, भारत भर में जिन सैकड़ों नदियों के किनारे बापू के फूल विसर्जित हुए थें उनमें से कई राजघाट कहलाए। दिल्ली में स्थित ’’मुख्य’’ राजघाट भी यमुना नदी के किनारे ही स्थित है। 

 बनारस, स्थित राजघाट विध्वंस कोई पहला विध्वंस नहीं है नई वैचारिक शासन व्यवस्था के अन्तर्गत। इससे पहले गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति को एक दक्षिणपंथी विचार के व्यक्ति को सौंपकर उनके माध्यम से समिति द्वारा विनायक दामोदर सावरकर को महिमामंडित करते हुए विशेष अंक जारी कर इस विध्वंस की शुरूआत की गई थी। इसके बाद साबरमती आश्रम का नंबर आया। यहां बुलडोजर चला और करोड़ों रू. मुआवजे के नाम पर उन लोगों को दिए गए, जिनका वहां किसी भी प्रकार का मालिकाना हक नहीं था। अब बनारस के राजघाट पर बुलडोजर के पैने व निर्दयी पंजे पड़े और वे इमारतें जिनकी नींव में भारत के भविष्य की आशांए रची बसी थीं को उखाड़ दिया गया। कार्यकर्त्ताओं के घर भी तोड़ दिये गए और प्रशासनिक तथा वैचारिक केंद्र भी, जमींदोज हो गए। 

हैदराबाद के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्त्ता जाहिर कादरी ने पिछले ही माह चर्चा के दौरान कहा था कि चिड़िया का आशियाना उजाड़ देने से वह अपने पर्यावरण को छोड़कर कहीं परदेस चली जाती है। ठीक वैसे ही विचार को पलने-बढ़ने के लिए भी आशियाना की जरूरत होती है। वस्तुतः किसी विचार को चिरस्थायी बनाए रखने के लिए भी कुछ आधारभूत पारंपरिक संरचनाओं की जरूरत रहती है। और वर्तमान वैचारिक आधार वाली सत्ता व्यवस्था इस तथ्य को पूरी तरह से समझ रही है। वह विचार की प्रत्येक पारंपरिक अधोसरंचना को नष्ट कर देना चाहती है। 

इससे पहले बनारस में काशी विश्वनाथ मंदिर के आसपास हुआ विध्वंस, शिव के आदिम विचार को धुंधलाकर देने के लिए ही था। यही सब उज्जैन के महांकाल मंदिर में हुआ और अब नर्मदा किनारे स्थित ओंकारेश्वर ज्योर्तिलिंग के इर्द गिई हो रहा है। अभी पूरा प्रयास यही है कि आस्था को पर्यटन में परिवर्तित कर दिया जाए। कथित धर्म और गौरक्षक भी इस पूरी रणनीति को समझ पाने में असमर्थ हैं। धार्मिक आध्यत्मिकता का स्थान कमोवेश भोगवादी पर्यटन आधारित व्यवस्था ले रही हैं, जिसके अन्तर्गत हर रोज अखबारों में छपवाया जाता है कि आज इतने करोड़ रू. का चढ़ावा आया। सोचिए उज्जैन महांकाल मंदिर में यदि एक दिन में 6.21 लाख ’’भक्त गण’’ आएंगे तो धार्मिकता या आध्यात्मिकता की क्या कोई गुंजाइश बचेगी?
 
मूल विषय पर लौटते हैं। अनादि काल से राजवंशीय शासनों में यह परंपरा रही है कि जो भी राजा किसी दूसरे राज्य पर हमला करने के बाद कब्जा करता था, तो सबसे पहले वह उन स्थानों/भवनां/स्थापत्यों को विध्संस करता था, जिन पर स्थानीय समुदायों की अत्यधिक श्रद्धा होती थी। सधर्मी होने के बावजूद वह उन धार्मिक स्थलों को अक्सर चोट पहुंचाता था। पुराने रोम से लेकर मध्ययुग में मध्य प्रदेश के धार शहर में हम-आप इसके चिन्ह पाते हैं। गौर करिए सन 1193 ईस्वी में बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय के जिस पुस्तकालय में आग लगाई थी, उसमें उस समय करीब 90 (नब्बे) लाख पुस्तकें (पांडुलिपियां) थीं। इस पर भी गौर करिए कि इस विश्वविद्यालय का एक बड़ा हिस्सा इंडोनेशिया के राजा शैलेन्द्र ने निर्मित कराया था। 

नालंदा का पुस्तकालय करीब तीन महीनों तक जलता रहा था। इससे पहले अलेक्जेंड्रिया में भी पुस्तकालय जलाने के सदंर्भ मिलते हैं। कहा जाता है कि इस प्राचीन पुस्तकालय की किताबों से शहर के स्नानादारों को गर्म करने का आदेश दिया गया था। इसी के समानांतर फारस का एक उदाहरण मिलता है जब यहां विजेता राजा ने विजय के बाद पुस्तकालय की पांडुलिपियां नजदीकी बुखारा नदी में बहा दीं थीं और उन पुस्तकों की संख्या का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, कि कई दिनों तक नदी में काले रंग का पानी ही बहता नजर आया था। परंतु अब तो हम लोकतंत्र में रह रहे हैं और असहमति का एक स्थापित मूल्य मानते हैं। तो? 

फैज अहमद फैज लिखते हैं 
मिट जाएगी मखलूक तो इंसाफ करोगे,
मुंसिफ हो तो हश्र (प्रलय का दिन) उठा क्यों नहीं देते।

सर्व सेवा संघ व अन्य गांधी विचार से जुड़ी संस्थाओं और व्यक्तियों ने भारतीय लोकतंत्र में उपलब्ध जितने भी उपाय हो सकते है, संस्थान को बचाने के लिए, वे किए हैं। वे सर्वोच्च न्यायालय तक गए, मगर कहीं भी संतोषप्रद निर्णय सामने नहीं आया। भारत के महानतम सपूतों में से कई के द्वारा स्थापित यह संस्थान क्यों ध्वस्त किया गया? या किया जा रहा है यह कोई छिपा रहस्य नहीं है। किसी एक मॉल के बनाने या सौंदर्यीकरण के लिए या किसी उद्योगपति के फायदे के लिए यह हो रहा है, ऐसा सोचना ही गलत है। सोचिए नया संसद भवन क्यों बनाया गया? क्यों जगहों के नाम बदले जा रहे हैं? यह जो बनारस में हो रहा है, या अहमदाबाद (साबरमती आश्रम) में हुआ या दिल्ली में हुआ वह ’’आधुनिक विकास’’ नहीं है। इस बात पर भी गौर करिए कि इन तीनों स्थानों पर किस ’’एक व्यक्ति’’ की उपस्थिति सतत् नजर आती है। ऐसा नहीं है कि बनारस में कहीं और 10-15 एकड़ जमीन मौजूद नहीं थी। 

सरकार चाहती तो इस परिसर को हस्तगत करके स्वयं ही दिल्ली स्थित गांधी दर्शन व स्मृति की तरह इस ’’गांधी विचार’’ संस्थान को संचालित कर सकती थी। वहां "भव्य’’ विश्वविद्यालय अपने आराध्यों के नाम से निर्मित कर सकती थी। परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इस वैचारिक चिड़िया का आशियाना बहुत सोच समझ कर उजाड़ा जा रहा है। काशी को क्योटो बनाने के लिए नहीं, ऐसे ही वैचारिक संस्थानों की जरूरत है। परंतु सरकार की रूचि क्योटो बनाने में नहीं बल्कि कुछ और बनाने में है।

अंशु मालवीय अपनी कविता, ’’इतिहास’’ के अंत में कहते हैं, ’’चीजें कितनी तेजी से जा रही हैं/अतीत में/और हम सब कुछ समय के एक ही फ्रेम में बैठाकर/निश्चिंत हो रहे हैं/भिवंडी की अधजली आत्माएं/सिंधु घाटी की निस्तब्धता/निस्संगता और वैराग्य के/पर्दे में दफ्न हैं/इतिहास!/अब तुम्हें ही बनाना होगा/समकालीन को/’’समकालीन’’ हमारे आसपास या पूरे विश्व में जो आक्रामक घट रहा है और हिंसा जो अब क्रूरता और वीभत्सता में बदल चुकी हैं को अपना चुके विश्व के सामने गांधी विचार चुनौती की तरह खड़ा है। इसे समझने वाला समुदाय जानता है कि दुनिया कैसे बच सकती है।

आजादी के बाद भड़के दंगों के दौरान बापू दिल्ली में कहते हैं, ’’मुझसे कहा गया है कि गुड़गांव के पास रोमन कैथोलिकों को सताया जा रहा है। जिस गांव में यह हुआ है, उसका नाम कन्हाई है। यह दिल्ली से करीब 25 मील पर है। एक हिन्दुस्तानी रोमन कैथोलिक पादरी और गांव के एक ईसाई प्रचारक मुझसे मिलने आए थे।" उन्होंने वह खत दिखाया जिसमें कन्हाई गांव के रोमन कैथोलिक ने हिंदुओं द्वारा अपने सताए जाने की कहानी बयान की थी। ताज्जुब यह है कि यह खत उर्दू में लिखा है मैं समझता हूं कि उस हिस्से में रहने वाले हिंदू-सिख या दूसरे लोग हिंदुस्तानी ही बोल सकते हैं और उर्दू लिपि में लिख सकते हैं। गौर करिए यह गुरूग्राम जिले का इलाका है, जहां अभी (नूह) हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए थे। मणिपुर के नस्लीय विभाजन स्पष्ट तौर दिखाई दे रहा है। भारत के तमाम हिस्सों में हिन्दू-मुस्लिम तनाव को हवा दी जा रही है। चलती ट्रेन में धर्म के आधार पर हत्याएं की गई। राजनेता खुलेआम कह रहे है कि उन्हें मुस्लिम मतों की जरूरत नहीं है। प्रस्तावित आपराधिक कानूनों में भी राजनीतिक आंदोलनों और अन्य सामान्य अपराधों में अंतर नहीं किया जा रहा है। तो संघर्ष विस्तारित होने की संभावनाएं बन रही हैं। ऐसे में वैचारिक ब्लेक आउट करना भी एक पक्ष के लिए अनिवार्य होता जा रहा है।

 इस शासन व्यवस्था से पहले भारत में कभी भी वैचारिक एकरूपा स्थापित करने के प्रयास नहीं किए गए। कांग्रेस के साठ वर्षों के शासन में किसी अन्य विचारधारा के भवनों को ध्वस्त नहीं किया गया। जबकि 50 बरसों तक उन पर तिरंगा झंडा फहराने से गुरेज किया था। मगर आज सब खुल्लमखुला है। बनारस के राजघाट में सिर्फ गांधी विचार को नहीं बल्कि भारत के लोकतांत्रिक मानस को आघात पहुंचाने की कोशिश की गई है। 

भगवत शरण उपाध्याय कहते हैं, "हमें समझना होगा कि वर्तमान भारतीय संस्कृति जातियों और युगों की सामुहिक देन है। जिसे हम आज भारतीय संस्कृति कहते हैं, वास्तव में वह विभिन्न जातियों के योग से निर्मित और विकसित हुई है। भारत विविध जनाधारों का संग्रहालय बन गया है और उसकी संस्कृति में अनेक संस्कृतियों तथा अनेक जातियों की सामाजिक विशेषताओं का सम्मिश्रण है। वास्तव में देश विशेष की सांस्कृतिक परिवत्रता उसी प्रकार असत्य और निरर्थक है, जिस प्रकार जाति विशेष की रक्त शुद्धता’’ परंतु आज जिस तरह बहुसंख्यवाद को प्रोत्साहित किया जा रहा है। उसमें गांधी-विनोबा-जयप्रकाश एक ऐसे त्रिवभुज हैं, जिसके भीतर हम स्वयं को सुरक्षित कर सकते हैं। परंतु कोशिश उस त्रिकोण में चौथा कोण घुसेडने की है, जो संभव ही नहीं है। 

एक और तथ्य पर गौर करिए (पंडित राज) जगन्नाथ या जगन्नाथ (पंडितराज) का जन्म सन 1590 ईस्वी में आंध्रप्रदेश में हुआ था। उन्हें मुगल बादशाह शाहजहां ने पंडितराज की उपाधि दी थी। उनका निधन सन 1641 ईस्वी में वाराणसी में हुआ था। वे संस्कृत के कवि थे, समालोचक थे, सौदर्यशास्त्री थे, व्याकरण में पारंगत थे। उनकी प्रतिमा से प्रभावित हो बादशाह शाहजहां ने उन्हें चांदी से तौला था और वह चांदी उन्हें सम्मानपूर्वक भेट की थी। मिर्जा गालिब की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में उनकी ’’बनारस’’ पर लिखी लंबी कविता शामिल है। इसलिए उस समृद्ध वैचारिक परंपरा को तोड़ना एक विशिष्ट विचारधारा की असहाय अनिवार्यता बनती जा रही है। 

जयप्रकाश नारायण सन 1974 में (जिनके एक कथित अनुयायी ने इस ध्वंस की कल्पना की और उसे क्रियान्वित भी किया है।) कहते हैं "हमें अपना राज्य नहीं चाहिए। हमें सामान्य जनता का राज्य चाहिए। इसलिए हिंसा का मार्ग तो हमारे लिए सर्वथा त्याज्य है। इसलिए शांतिमय तरीको के द्वारा परिवर्तन के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। उसके सिवा जनता का राज्य असंभव है।’’ वर्तमान परिस्थितियां स्पष्ट कर रहीं हैं कि गांधी विचार के माध्यम से सत्ता के वैचारिक परिवर्तन की दिशा मे बढ़ने का समय अब आ गया है। सवाल यही है कि नेतृत्व कौन संभालेगा? जेपी स्वयं कहते हैं कि नेता क्रांति नहीं करता क्रांति स्वयं अपने नेता का चुनाव करती है। अब वह वक्त नजदीक आता जा रहा है। 

राजघाट पर हुआ विध्वंस संभवत भारत के वैचारिक जगत में ’’गांधी ने नमक सत्याग्रह’’ जैसी परिस्थितियां पैदा कर रहा है। बढ़ती गरीबी, बीमारी भुखमरी, बेरोजगारी, असमानता, सांप्रदायिकता इस सबसे भारत नामक विचार पर ’’ग्रहण’’ लगना आरंभ हो गया है। अतएव आवश्यकता इस बात की है कि ’’राजघाट’’ को प्रतीक बनाकर उसे हिरोशिमा में जिस जगह परमाणु बम गिरा था, वैसा ही पवित्र प्रतीक बनाकर भारत में सौहाई की पुर्नस्थापना के प्रयास शुरू करने होंगे। 

लुई पाश्चर कहते हैं, ’’मैं तुम्हारा धर्म क्या है, यह नहीं जानना चाहता। तुम्हारे खयालात क्या हैं, यह भी नहीं जानना चाहता। सिर्फ यही जानना चाहता हूं कि तुम्हारे दुख क्या हैं। उन्हें दूर करने में मदद करना चाहता हूं।"

कबीर और रैदास जहां बसे हों वहां अन्याय अनंतकाल तक चलता रहे यह संभव ही नहीं है।

सूरदास का एक पद है,
अबलौ नसानी, अब न नसैंहौं।। अर्थात 
अब तक सहते रहे, अब आगे नहीं सहेंगे। 

आप सबको स्वतंत्रता दिवस की बधाई।