सांप्रदायिकता के भंवर में डूबे भंवरलाल, 59 सेकेंड और 14 चांटों में जीवन तमाम

भंवरलाल जैन की हत्या दिगंबर जैन समाज के एक व्यक्ति की हत्या भर नहीं है। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की हत्या का प्रयास भी है जो विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया की बात करता है। यह हत्या कानून व्यवस्था की पूर्ण असफलता की द्योतक है। हम एक ऐसी हताश व्यवस्था में प्रवेश करते जा रहे हैं जहां शासन प्रशासन का कानून व न्याय से ज्यादा विश्वास बुलडोजर पर है। मनासा की घटना समझा रही है कि अब हत्या के लिए किसी अन्य कारण की जरुरत नहीं रह गई सिर्फ नाम काफी है। आप नाम बताइये। न बता पाएंगे तो भी आपकी या हमारी हत्या किसी अन्य व्यक्ति की धारणा के आधार पर की जा सकती है। यह साधारण मामला नहीं है। यह भारतीय दंड संहिता की धारा 302 या 304 तक सीमित मामला नहीं है। यह मामला है शासन के हाथ से उसके इकबाल के फिसल जाने का, उसकी शक्ति का उससे छिन जाने का। 

Updated: May 25, 2022, 02:11 AM IST

तेरा नाम बता (एक चांटा) | जिससे नाम पूछा गया वह वृद्ध व्यक्ति (बाद में पता लगा कि मंदबुद्धि है) कुछ बुदबुदाता है। इस बीच एक और चांटा मोहम्मद? मोहम्मद है तेरा नाम (एक और चांटा) आधार कार्ड बता (चांटा) आधार कार्ड निकाल (फिर एक चांटा) बुजुर्ग अपनी शर्ट उठाता है, अंदर की जेब से खंगालता है, पैसा-पैसा जैसा कुछ कहता है। उसे लगता है कि सामने वाला पैसा मांग रहा है। लेकिन फिर एक चाटा, आधार कार्ड (चांटा) आधार कार्ड निकाल (पुनः एक चांटा) आधार कार्ड बता (चांटा) 4 बार फिर लगातार चांटें। 

आधार कार्ड (चांटा) आधार कार्ड (चांटा) आधार कार्ड (चांटा) आधार कार्ड (चांटा) और अंत में आधार कार्ड (14वां चांटा) इसके बाद सब शांत हो गया। यह पूरा विडियो 59 (उनसठ) सेकेंड का है और इसके बाद भंवरलाल जैन, सांप्रदायिकता की भंवर में फसकर दम तोड़ देते हैं। बोर मत होईये और ऊबिये भी मत। क्योंकि अब एक आदमी की जिंदगी और मौत का फासला महज 14 चाटों से 59 सेकेंड में हो रहा है और इसका वीडियो भी जारी हो रहा है।

मध्य प्रदेश के गृहमंत्री का इस वारदात पर कहना है कि ये (भंवरलाल जैन) भटक गए थे। भटकने के बाद अपना परिचय ठीक से नहीं दे पा रहे थे। शब्दों पर अटक रहे थे। मंदबुद्धि थे। गृहमंत्री इसे लिंचिंग नहीं मान रहे हैं। भारत में अब तक इससे जल्दी किसी के भी भाग्य का फैसला नहीं हुआ होगा। कुल 59 सेकेंड की सुनवाई। सुनवाई के दौरान लगातार दंडित (14 चांटे मारना) करते रहना। सिर और कान पर लगातार चांटे मारकर मृत्युदंड दे देना। 

रोहन जे अल्वा ने एक अनूठी पुस्तक लिखी है, "लिबर्टी एण्ड फ्रीडम: ए हिस्ट्री ऑफ आर्टिकल 21 ड्यू प्रोसेस एण्ड दि कांस्टिट्यूशन आफ इंडिया।’’ यह करीब 300 पृष्ठों की पुस्तक है जो संविधान में निहित अनुच्छेद 21 के प्रयोग में लाने की विधि सम्मत प्रक्रिया (ड्यू प्रोसेस) को समझा रही है। इस पुस्तक का शीर्षक पढ़ने में ही करीब 20 सेकेंड लग गए और तीन बार शीर्षक पढ़ पाने जितना समय लेते हुए मनासा की पूर्व पार्षद के पति दिनेश कुशवाह ने भंवरलाल जैन को सारी स्वनिर्धारित प्रक्रियाएं निभाते हुए मृत्युदंड प्रदान कर दिया। 

दिनेश कुशवाह जिन्होंने यह असाधारण निर्णय दिया वह एक ही शरीर में अवस्थित होकर जांचकर्ता, वकील, न्यायाधीश, व जल्लाद सभी की भूमिकाएं एकसाथ निभा रहा था। कैसा असाधारण व अति अमानवीय व्यक्तित्व होगा उसका। गृहमंत्री इसे गलत पहचान का मामला बता रहे हैं। यदि वास्तव में सामने वाला व्यक्ति जो नाम दिनेश कुशवाह ले रहा था, उसी नाम का होता तब तो गृहमंत्री क्या वक्तव्य देते? मैं उसका अंदाज भी नहीं लगाना चाहता। उसकी जरुरत भी नहीं है। मृतक के रिश्तेदार बुलडोजर मामा से न्याय की उम्मीद कर रहे हैं। सुना है कि बुलडोजर दिनेश कुशवाह के यहां गया भी था। वहां बुलडोजर ने जब दस्तावेजों की जांच की तो पाया कि दस्तावेजों में दिनेश कुशवाह का नाम नहीं है। बुलडोजर ने अपने डैने समेटे और डेरे में लौट आया। परंतु राजगढ़, सेंधवा, खरगोन व अन्य जगह जो बुलडोजर गए, वहां शायद पढ़ना लिखना नहीं जानते थे। बहरहाल बुलडोजर के बिना मकान तोड़े वापस आ जाने का स्वागत है, क्योंकि सभ्य समाज का यह सिद्धांत है कि एक बुराई या गलती का मुकाबला दूसरी गलती या बुराई से नहीं किया जा सकता।

मनासा हत्याकांड पिछले कुछ वर्षों से चली आ रही लिंचिंग की श्रृंखला की अब तक की सबसे वीभत्स, घृणित व खतरनाक कड़ी है। पहले हुई मॉब लिंचिंग की घटनाओं के पीछे कुछ न कुछ घटनाक्रम, जोकि वह गैरकानूनी व नृशंस ही होता था, पर हत्या के पीछे कोई मूर्खतापूर्ण कारण जरुर दिया जाता था। जैसे कि फ्रिज में गौमांस मिलना, गोकशी के लिए गोवंश की तस्करी, चोरी, बलात्कार या ऐसी ही कोई अन्य मुँह दिखाई। परंतु मनासा की घटना समझा रही है कि अब सांप्रदायिक हत्या के लिए किसी झूठी या मनगढंत घटना की आवश्यकता भी नहीं रह गई है। सिर्फ नाम पूछिये और अनुकूल न होने पर सामने वाले को मार डालिए। इस बात को भी ध्यान में मत रखिए कि सामने वाले की उम्र कितनी है। वह हत्यारे के पिता की उम्र का भी हो सकता है। पितृतुल्य शब्द अब हमारे शब्दकोश से बाहर होता जा रहा है। क्या कोई भी सामान्य व्यक्ति अब इतना अधिकार सम्पन्न हो गया है कि वह दूसरे व्यक्ति से उसका आधार कार्ड या पहचान पत्र मांग सकता है और संतुष्ट न होने की स्थिति में स्वयं ही त्वरित सुनवाई करते हुए दूसरे व्यक्ति को मृत्युदंड तक दे सकता है? और प्रदेश के गृहमंत्री इस पर जो कह रहे हैं, उसका उल्लेख ऊपर किया ही जा चुका है। 

सोचिए, हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं, जिसमें एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को जिससे वह पहली बार मिल रहा है कि बिना किसी अदावत या बहस या वाद विवाद या मारपीट हुए उसकी हत्या कर देता है। हत्यारे के मन में मृतक के चेहरे को देखकर एक नफरत की आंधी चल गई। मस्तिष्क में बवंडर उठा और विप्लव के तौर पर सामने वाले व्यक्ति की लाश सड़क पर बिछ गई। इस सांप्रदायिक बवंडर ने मस्तिष्क में इतनी उथल पुथल कर दी थी कि उसने मृतक के कहे बिना उसका नाम भी अभिकल्पित कर लिया। उसका स्वमेव सत्यापन किया और हत्या कर दी। तो सोचिए कि मंदबुद्धि या विक्षिप्त कौन है? भंवरलाल जैन या दिनेश कुशवाह? हम अब भी शायद नाम लेकर बात करने में संकोच करें। परंतु हत्यारे विक्षिप्त आदमी के सामने हम भी भंवरलाल होते हुए मोहम्मद हो सकते हैं और मोहम्मद होते हुए भी भंवरलाल जैन। 

दिनेश कुशवाह पूछता जरुर है, मोहम्मद हो तुम?’’ लेकिन उत्तर की प्रतीक्षा नहीं करता। क्योंकि उसके मन में तो भंवरलाल जैन का रुपांतरण मोहम्मद में हो चुका है। उसे व्यक्ति के गुणदोष से कोई मतलब नहीं है। व्यक्ति कौन है, यह भी उसके लिए बेफजूल है। उसके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है वह धारणा जो उसके जीवन का, उसकी सोच का, उसके अस्तित्व का, उसके सामाजिक व राजनितिक व्यवहार का आधार बन चुकी है। और वह धारणा है सांप्रदायिकता की। जिसकी उत्पत्ति घृणा से होती है और वह दूसरे पक्ष के अस्तित्व से इनकार कर देती है। यही बाबरी मस्जिद कांड में हुआ। यही ज्ञानवापी मस्जिद में हो रहा है। यही रामजन्म भूमि में हुआ और यही कृष्ण जन्म भूमि विवाद में होने जा रहा है। आज सांप्रदायिकता समुद्री लहरों की तरह नफरत के तट से टकरा रही है। एक लहर के अंदर ही दूसरी लहर समाहित रहती है और दूसरी लहर में तीसरी। यह निरंतरता बनी हुई है। आवश्यकता यही है कि हम सांप्रदायिकता के समुद्र के पास से हट जाएं।

अहमदाबाद में प्राचार्या यानी शिक्षक से छात्रा के पैर छुआए जाते हैं। सारा समाज चुप है। याद रखिये भंवरलाल जैन की हत्या दिगंबर जैन समाज के एक व्यक्ति की हत्या भर नहीं है। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की हत्या का प्रयास भी है जो विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया की बात करता है। यह हत्या कानून व्यवस्था की पूर्ण असफलता की द्योतक है। हम एक ऐसी हताश व्यवस्था में प्रवेश करते जा रहे हैं जहां शासन प्रशासन का कानून व न्याय से ज्यादा विश्वास बुलडोजर पर है। मनासा की घटना समझा रही है कि अब हत्या के लिए किसी अन्य कारण की जरुरत नहीं रह गई सिर्फ नाम काफी है। आप नाम बताइये। न बता पाएंगे तो भी आपकी या हमारी हत्या किसी अन्य व्यक्ति की धारणा के आधार पर की जा सकती है। यह साधारण मामला नहीं है। यह भारतीय दंड संहिता की धारा 302 या 304 तक सीमित मामला नहीं है। यह मामला है शासन के हाथ से उसके इकबाल के फिसल जाने का, उसकी शक्ति का उससे छिन जाने का। 

हमें याद रखना होगा कि राज्य या व्यक्ति की ताकत बलप्रयोग में नहीं बल्कि व्यवस्था व मनुष्य में निहित नैतिकता से उपजती है। उसे थोपा नहीं जा सकता। उसे संयम व धैर्य से स्थापित करना होता है। व्यवस्था को समझना होगा कि समाज का एक वर्ग क्यों और कैसे ‘‘पितृहंता’’ में रुपांतरित होता जा रहा है।
धूमिल लिखते हैं, ‘‘अखबारों की सुर्खियां मिटाकर दुनिया के नक्शे पर/अंधकार की एक नई रेखा खींच रहा हूँ/मैं अपने भविष्य के पठार पर आत्महीनता का दलदल/उलीच रहा हूँ। मेरा डर मुझे चर रहा है/मेरा अस्तित्व पड़ोस की नफरत की बगल से उभर रहा है।’’ हम मानते रहे हैं कि दो पक्ष के मतान्तर के बिना विवाद संभव नहीं है। परंतु इस मामले में तो कोई संवाद ही नहीं हुआ। एक धारणा बनी और हत्या कर दी गई। 

यह घटना हमें अपने भविष्य के प्रति चेता रही है कि हम किस तरह की सामाजिक संरचना के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। आत्महीनता अंततः एक किस्म की आत्महत्या ही तो है। मनासा की घटना को हल्के में लेना बहुत भारी पड़ेगा। तीस बरस पहले एक वर्ग ने बाबरी मस्जिद ढहाने को राष्ट्रीय गौरव की संज्ञा दी थी और उसका परिणाम एक विभाजित होते समाज के रूप में हमारे सामने आया है। गौर करिए सांप्रदायिक उन्माद किस तरह सर चढ़ता है। भंवरलाल जैन की हत्या की प्रक्रिया का वीडियो स्वयं हत्यारे दिनेश कुशवाह ने जारी किया है। हम एक ऐसे निर्लज्ज समाज के आदी होते जा रहे हैं जहां लोग स्वयं हत्या और बलात्कार के वीडियो बनाते हैं और उसे जारी भी कर देते है। दिनेश कुशवाह ने यह वीडियो ‘‘स्वच्छ भारत’’ के नाम से संचालित अपने खाते पर जारी किया। समझिये कि स्वच्छ भारत की परिभाषा का विस्तार सांप्रदायिकता वाली धारणा कहां तक कर लेती है। 

एक मिनट से भी कम अर्थात 59 सेकेंट और 14 चाटें एक चलते-फिरते व्यक्ति को मौत की नींद में सुला देते हैं। परंतु क्या समाज अब भी अपनी मुर्दनी नींद से जागने का प्रयास करेगा? जनता इतनी असहाय हो जाएगी यह तो कल्पनातीत था। परंतु अब हम इसे साक्षात देख रहे हैं। सत्ताधारी दल को अपने अंदर झांककर देखना होगा कि देशभर में इस तरह की भस्मासुरी प्रवृत्तियां कैसे उनके संगठन में प्रवेश कर रहीं हैं। मनासा की घटना सांप्रदायिकता नामक आक्टोपस की एक नई उगी हुई भुजा है। यह नई भुजा संकेत है कि सांप्रदायिकता और हिंसा में कोई अपना नहीं होता। सभी पराये होते हैं। कभी भी हमारी गर्दन इस सांप्रदायिक आक्टोपस की चपेट में आ सकती है और हमारा गला घोट सकती है। 

हिंसा एक नए संस्कार की तरह हमारे जीवन में हमारी सोच में स्थापित होती जा रही है। मनासा की घटना हमें समझा रही है कि हिंसा अंधी ही नहीं बल्कि गूंगी और बहरी भी होती है, वरना वह सुन लेती कि सामने वाला क्या कह रहा है। महात्मा गांधी ने कहा है, ‘‘जो गुण मानव और अन्य सभी पशुओं के बीच का अंतर स्पष्ट करता है, वह है मानव में अहिंसक रह सकने की क्षमता और मानव जिस हद तक अहिंसा का पालन करता है, उस हद तक अपने लक्ष्य के निकट तक पहुंचता है, उससे आगे नहीं।’’ तो हमें एक मिनट के मूल्य को समझना होगा। एक मिनट जान ले सकता है, तो एक मिनट में नया शिशु भी पृथ्वी पर आता है, जन्मता है।

((यह लेखक के निजी विचार हैं))