प्रवासी मजदूरों के लिए चाहिए पुख्ता नीति
देश की अर्थव्यवस्था में 12 करोड़ प्रवासी मजदूरों की भूमिका को आज सबसे ज्यादा यदि कोई समझ रहा है तो वह है कृषि प्रधान राज्य और वह उद्योग जो इनके बिना ठप हो गए हैं। भारत के कुछ राज्यों में खेती के काम ठप हो गए हैं क्योंकि वहां के खेतों में काम करने वाले बिहार और उत्तर प्रदेश के मजदूर करोना महामारी के चलते वापस घर चले गए हैं।
हाल ही में पंजाब के मुख्यमंत्री और तेलंगाना की सरकार ने बिहार के मुख्यमंत्री से मजदूरों को वापस भेजने का विशेष अनुरोध किया है। उद्योगों में उत्पादन एक बार कुछ विलंब से किया भी जा सकता है लेकिन कृषि कार्य मौसम के अनुरूप समय पर ही हो सकता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि फैक्ट्रियों में काम करने के लिए प्रवासी मजदूरों की कोई समस्या नहीं है। आगामी 20 अप्रैल को जब फैक्ट्रियों में उत्पादन आरंभ होगा तब इन मजदूरों को किस तरह से एक साथ वापस लाया जाए और काम पर लगाया जाए यह बड़ी चुनौती होने है।
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पिछले एक महीने से चल रहे लॉकडाउन के कारण लगभग 70 फ़ीसदी के करीब जीडीपी और उत्पादन पर असर पड़ा है। सेंट्रम (सेंट्रम) इंस्टिट्यूशनल रिसर्च के एक अनुमान के मुताबिक यह नुकसान सात लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का भारतीय अर्थव्यवस्था पर होगा।
इस नुकसान की भरपाई अब नहीं हो सकती। लेकिन आगे और नुकसान ना हो इसके लिए आवश्यक हो गया है कि फिर से देश के संगठित और असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले करोड़ों प्रवासी मजदूरों को वापस काम पर लगाया जाए। आज लगभग चार करोड़ से ज्यादा मजदूर भवन निर्माण के क्षेत्र में रोजगार पाते हैं । घरेलू क्षेत्र में दो करोड़ के लगभग, टेक्सटाइल मैं एक करोड़ से ज्यादा, इसी तरह ईट भट्टों में एक करोड़ के लगभग प्रवासी मजदूर काम करते हैं । इसके अलावा तीन करोड़ से ज्यादा मजदूर अन्य निर्माण और सेवा की गतिविधियों में फैक्ट्रियों और अन्य स्थानों पर काम करते हैं।
प्रवासी मज़दूरों की इतनी बड़ी संख्या मुख्यतः बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, और उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और पूर्वोत्तर से आती है। लॉकडाउन के आरंभिक दिनों में इन मजदूरों को आने वाले समय की जानकारी नहीं दी गई जिसके कारण पांच से छह लाख के करीब मजदूर पैदल ही अपने अपने गांव की तरफ निकल पड़े । लाखों की तादाद में मजदूर इसके अलावा अपनी-अपनी जगहों पर फस गए जहां उनके सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया।
अप्रैल के पहले सप्ताह में जब सामाजिक कार्यकर्ता हर्षमंदर और अंजलि भारद्वाज ने इन प्रवासी मजदूरों के संबंध में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका लगाई उस समय पता चला कि छह लाख से ऊपर मजदूर इकीस हजार कैंपों में पड़े हुए हैं। यह मजदूर वापस अपने घर जाना चाहते हैं क्योंकि उनको काम नहीं मिल रहा था। जबकि भारत सरकार का डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट 2005 कहता है कि किसी भी कर्मचारी को भले वह अंशकालिक हो या स्थायी कोई भी फैक्ट्री मालिक नौकरी से नहीं निकाल सकता। मालिक को उस मजदूर की तनख्वाह चाहे वह काम करें अथवा ना करें देना ही पड़ेगी।
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अब जब एक महीना निकल गया है तब तेलंगाना ने तो बिहार से यहां तक कहा कि वह बसों को भेजकर मजदूरों का बुलाकर उनका अच्छा प्रबंध करेगी। दूसरी ओर पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से कहा कि वह राज्य के उन मजदूरों से एक अपील करें कि वह पंजाब छोड़कर वापस बिहार ना जाए। उनका पूरा प्रबंध और ख्याल पंजाब की सरकार करेगी।
प्रवासी मजदूरों को लेकर समाज कि समझ कई बार बहुत सतही जान पड़ती है। उनके प्रति संवेदनशील रवैया कुछ कम ही देखा गया है। मजदूरों द्वारा अर्थव्यवस्था और राष्ट्र के निर्माण में किए जा रहे वाले योगदान के लिए कई बार इसलिए भी भुला दिया जाता है क्योंकि यह लोग छोटी-छोटी फैक्ट्रियों के पीछे, शहरों के बीच दबी हुई झुग्गी बस्तियों के अंदर रहकर वह काम करते हैं जो हम और आप सामान्यता देख ही नहीं पाते। जो काम यह प्रवासी अर्धकुशल और अनपढ़ मज़दूर करते हैं वह राष्ट्रभक्ति से कम नहीं है। हमें यह समझना चाहिए कि यह लोग केवल रोबोट की तरह काम करने वाले यंत्र नहीं है। यह वह लोग हैं जिनके भीतर हमारे आपके तरह ही एक मन और मस्तिष्क हैं। उनकी भी आकांक्षाएं हैं । उनकी भी समस्याएं हैं। उनकी भी हमारी तरह बढ़ने की इच्छाएं हैं । उनके भी अपने भाई बंधु हैं। उनका भी अपना भविष्य को लेकर चिंतित होने का अधिकार है।
क्योंकि यह सभी मजदूर बहुत छोटे-छोटे कमरों में रहते हैं उनके रहने के स्थान कोई बहुत अच्छे नहीं है इसलिए लॉकडाउन के समय उन्हें एकमात्र विकल्प वापस अपने गांव जाने का लगा। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में 69 प्रतिशत लोग एक या दो कमरे में ही रहते हैं। प्रवासी मज़दूर तो एक कमरे में 5 से 7 लोग तक रहते हैं। इतने सारे लोग जब सामान्य दिनों में झुग्गी बस्तियों में रहते हैं तब इनकी समस्या इतनी भयावह और विकराल नहीं होती जितनी इस लॉकडाउन के समय है। इस समय सभी लोग उसी एक कमरे में रह रहे हैं।
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सामान्य दिनों मे काम करने के समय इन मज़दूरों का ज्यादा वक्त फैक्ट्रियों या खेतों में गुजर जाता है। यह लोग अपने घरों में रात को केवल सोने के लिए ही आते हैं । मुंबई और महानगरों की अनेक झुग्गी बस्तियों में तो प्रति घंटे सोने के हिसाब की व्यवस्था है। यह प्रवासी मजदूर एक स्थान पर केवल सोने के लिए जाते हैं जहां पर उसकी कुछ कीमत अदा करते हैं।
इन परिस्थितियों में इनकी वेदना को समझना भारत के मध्यम वर्ग के लिए बहुत जरूरी है। यदि यह लॉकडाउन कुछ और चलता है तो ना केवल इन दिहाड़ी मजदूरों के जीवन के सामने समस्या आएगी बल्कि ज्यादा बड़ी समस्या अर्थव्यवस्था के सामने आएगी। भारत में खाद्यान्नों के भंडार भरे हुए हैं और इन मजदूरों के लिए आगामी समय के लिए राशन देने की व्यवस्था सरकार कर रही है। यदि यह सभी मज़दूर अपने गांव वापस चले जाएंगे या वापस शहर नहीं आये तो विकास का पहिया आने वाले समय के लिए रुक जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। जिस तरह से सरकार ने महामारी से निपटने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं और उससे जुड़ी हुई व्यवस्थाओं के प्रबंध किए हैं तथा जिस तरह से अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए रिजर्व बैंक के माध्यम से प्रयास किए हैं उसी तरह यह सही समय है जब सरकार को इन बारह करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूरों को लेकर एक पुख्ता रोड्मैप बनाकर सामने आना चाहिए।