साइकिल को साइकिल ही रहने दें, इसे घृणा का प्रतीक न बनने दें

भारत में साइकिल का आगमन सन् 1890 में हुआ और पिछले 130 वर्षों के इतिहास में साइकिल भारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक परिवर्तन की न केवल साक्षी रही है बल्कि इन परिवर्तनों की कामयाबी में इसकी महत्वपूर्ण भागीदारी भी रही है

Updated: Feb 26, 2022, 12:41 AM IST

Photo: Hum samvet
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‘‘लेकिन इन्होंने क्या किया... यहां समाजवादी पार्टी का जो चुनाव सिम्बल है ना, उनका चुनाव का निशान है ना, तो शुरु में जो बम धमाके हुए वे सारे के सारे बम साइकिल पर रखे हुए थे। साइकिल पर बम रखे हुए थे, और जहां लोग सब्जी वगैरह खरीदने के लिए आते हैं, वहाँ साइकिल पार्क करके चले गए थे, और एक समय चारों तरफ ये साइकिलों पर रखे हुए बम धमाके फूटे। "20 फरवरी 2022 को उत्तरप्रदेश चुनाव में साइकल, बम और आतंकवाद के आपसी रिश्तों को समझाते हुए प्रधानमंत्री यहीं नहीं रुके। वे बोले, ‘‘मैं हैरान हूँ ये साइकल को उन्होंने क्यों पसंद किया।’’

भारत की 75 वर्ष की आजादी और 70 वर्ष के संसदीय चुनावों की अखंड परंपरा में शायद इससे ज्यादा दृष्टिहीन व कटुता से भरा बयान नहीं ही दिया गया होगा। वास्तव में यह बयान नहीं है, कुछ और ही है। यह कुछ और क्या है, उसे व्याख्यायित करना न तो आसान है और न ही आवश्यक। बहरहाल उनके इस वक्तव्य ने बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया है। वैसे चुनाव चिन्ह का निर्धारण तो चुनाव आयोग करता है। यदि कोई राजनीतिक दल या व्यक्ति अपने चुनाव चिन्ह के लिए कोई घातक वस्तु या हथियार का प्रतीक चुने तो क्या आयोग इसकी अनुमति देगा? वस्तुतः उन्हीं प्रतीकों में से चुनाव करना होता है, जो कि चुनाव आयोग द्वारा पूर्व निर्धारित हों। तो क्या चुनाव आयोग पर भी इस आरोप की आंच आएगी? 

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भारत में साइकिल का आगमन सन् 1890 में हुआ और पिछले 130 वर्षों के इतिहास में साइकल भारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक परिवर्तन की न केवल साक्षी रही है बल्कि इन परिवर्तनों की कामयाबी में इसकी महत्वपूर्ण भागीदारी भी रही है। वास्तविकता यह है कि हम अपने परिवेश को लेकर इतने लापरवाह हो जाते हैं कि इस ओर ध्यान ही नहीं देते कि आज हम जिन वस्तुओं की अनदेखी कर रह हैं एक समय वे कितनी महत्वपूर्ण रहीं हैं। वैसे जलवायु परिवर्तन, बढ़ते प्रदूषण और बढ़ते तापमान के हमारे वर्तमान समयकाल या कालखंड में यह पुनः महत्वपूर्ण ही नहीं अनिवार्य होती जा रही है।

साइकिल ने पहली बार सार्वजनिक तौर पर स्त्री और पुरुष की निकटता को, खासकर भारत में स्वीकृति दिलवाई है। इसके प्रचलन में आने से पहले पति-पत्नी भी सार्वजनिक स्थानों पर इतने करीब नहीं दिखते थे। जिनके पास बैलगाड़ी भी होती थी, उसमें भी पुरुष बाहर की ओर और महिला पीछे अंदर की ओर बैठती थी। साइकिल पर पीछे बैठी महिला व पुरुष के बीच की दूरी कम हुई। यह एक किस्म की क्रांति ही थी। आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि साइकिल के शुरुआती दौर में इस गतिविधि ने कितना हंगामा खड़ा किया होगा। आजादी के बाद भी साइकिल ने महिला सशक्तिकरण व बालिका शिक्षा में जबरदस्त भूमिका अदा की है। महिलाओं को अपने घरों से दूर जाकर काम करने का मौका मिला और वे आर्थिक रूप से भी सक्षम हुई। लड़कियां भी अधिक संख्या में पढ़ने जाने लगी। क्या ये सब आतंकवादी गतिविधियों का प्रतीक हैं, क्योंकि इसमें साइकिल का योगदान है? हाँ पितृसत्तात्मक सोच के नजरिये से विचार करें तो सायकल एक आतंकवादी संसाधन अवश्य प्रतीत होता है। 

गौरतलब है, साइकिल ने यह संभव बनाया था कि ग्रामीण समाज जो अपना उत्पाद बेचने बाहर कस्बे या शहर में आता था वह अब थोड़ा बहुत मोल भाव करने की स्थिति में आ गया था। क्योंकि साइकिल की वजह से वह अपना बचा हुआ माल आसानी से घर वापस ले जा सकता था। उसके लिए यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी। पी साईनाथ अपनी पुस्तक ‘एवरीबडी लव्ज ए गुड ड्राउट’’ (हिन्दी में तीसरी फसल) में एक रिपोर्ट ‘‘ऊर्जा की गोड्डा शैली’’ में जो वर्णन करते हैं, वह वास्तव में रोंगटे खड़े कर देता है।

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बात सन् 1993 से 95 के मध्य की यानी करीब 30 वर्ष पुरानी है, लेकिन परिस्थितियों में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया है। वे गोड्डा जो अब झारखंड का जिला मुख्यालय है, के ललमटिया गांव की बात बता रहे थे, ‘‘किशन यादव नाम का व्यक्ति एक पैडल वाली साइकिल 1200 रु. में खरीदता है। 200 रु. खर्च कर सीट व हैंडल के बीच के डंडों को मजबूत बनाता है। अपनी इस साइकिल का इस्तेमाल वह एक ट्राली की तरह करता है। इस पर करीब 250 किलोग्राम यानी ढाई क्विंटल कोयला लादता है और अपने घर से 40 से 60 किलोमीटर पैदल चल पड़ता है, अपनी साइकिल ढकेलते हुए। अपनी इस कमर तोड मेहनत के एवज में उसे 10 रु. प्रतिदिन की मजदूरी ही मिल पाती है। वह तीन से चार दिन में अपने गन्तव्य तक पहुंचता है। वहां कोयला बेचता है। उसके गांव व आसपास के 3000 परिवार इसी तरह से अपनी जीविका चलाते थे। 

घर से निकल कर वापस घर पहुंचने में उसे 7 दिन लग जाते है। इस काम के बदले में उन्हें और भी बहुत कुछ यानी टी.बी., सीने का दर्द या सांस संबंधी बीमारी लग जाती हैं।’’ हो सकता है अब मजदूरी अधिक मिलने लगी हो। पर अब भी बहुत से लोग यही काम कर रहे हैं। कभी शहर के बाहर निकलते हुए हमें दिखाई देते हैं, अपनी साइकिलों पर सैकड़ों किलो जंगली लकड़ी ले जाते और सड़क किनारे ढावों आदि पर लकड़ी बेचते नागरिक। क्या अब भी साइकिल को आतंकवाद का प्रतीक मानने की बात दिमाग में आ सकती है ?

अमत्र्य सेन से जब नोबल पुरस्कार समिति ने आग्रह किया कि वे अपनी कोई प्रिय वस्तु नोबल संग्रहालय को भेंट करें तो उन्होंने अपनी साइकिल, जिसका प्रयोग वे शांति निकेतन में अध्ययन के लिए और उसी दौर में गावों में छोटे बच्चों यानी लड़की और लड़के के वजन में अंतर को मापने जाने के लिए करते थे, उन्हें भेंट की थी। क्या यह आतंकी प्रतीक है ? महात्मा गांधी के अनेक चित्र साइकिल पर सवारी करते हुए हमारे सामने आते हैं। हमारी पीढ़ी की स्मृतियां साइकल और अपने पिता से सीधी-सीधी जुड़ी हुई हैं। अपने सबसे संजो कर रखे गए चित्रों में ऐसे तमाम चित्र हमें मित्र जाएंगे जो पिता के साथ साइकिल की सवारी करते हुए हैं। साइकिल हमारे सबके संघर्ष की साक्षी ही नहीं साथी भी रही है।

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भारत में प्रतिवर्ष करीब 2 करोड 20 लाख नई साइकलें बेची जाती हैं और इस उद्योग का कुल लेनदेन 7000 करोड़ रु. से भी ज्यादा का है। कोरोना महामारी के पहले पांच महीनो में साइकलों की बिक्री दुगनी हो गई थी। गौर करिए भारत में तकरीबन प्रत्येक परिवार के पास एक न एक साइकिल अवश्य है। भारत में करीब 22 से 25 करोड़ परिवार हैं। यानी इतनी साइकलें तो हैं हीं। सोचिये यदि इसे आतंकवाद का प्रतीक बताया जाएगा तो हमारा हर परिवार इस परिभाषा की जद में आ ही जाएगा। चार वर्ष का बच्चा साइकिल की सवारी करने लगता है, तो क्या हम बचपन से ही उन्हें ............!

एक छोटी कविता है, ‘‘चार दोस्त/दो साइकिल/खाली जेब/और पूरा शहर/जनाब, हमारा एक खूबसूरत दौर/ये भी था जिन्दगी का/उस दौर में हम सोचा करते थे कि/कुछ बेहतर हासिल करेंगे/हमें क्या पता था/उससे बेहतर कुछ था हीं नहीं।।’’ मौका लगे तो इटालियन फिल्म बायसाइकिल थीव्स (Bicycle Thieves) जरुर देखियेगा। सन् 1948 में इटली में बनी यह फिल्म युद्ध की विभीषिका से उपजी त्रासदी की बेहद मर्मस्पर्षी अभिव्यक्ति है। कुछ फिल्मकार तो मानते हैं कि यह फिल्म अब तक बनी सबसे महान 5 फिल्मों में से एक है। यह फिल्म सीधे हमारी अंतरात्मा पर चोट करती है। फिल्म देखने के बाद गोड्डा के साइकल पर कोयला ढोने वाले के बारे में सोचिएगा। सारी दुनिया के गरीबों और वंचितों को भी साइकल एकसाथ पिरोती है।

साइकिल से जुड़े अनगिनत किस्से और घटनाएं हैं। याद रखिए साइकिल हमेशा से हमारी जरुरत रही है। भविष्य में भी इसकी आवश्यकता बनी ही रहेगी। उत्तरप्रदेश चुनाव में प्रधानमंत्री ने जिस भाषा और भाव में साइकल का जिक्र किया वह वास्तव में हैरान करने वाला ही है। यह बेहद दुखद है कि हम इतने सुंदर और आत्मीय प्रतीकों को इतनी विद्रूपता के साथ सुनने को बाध्य हैं। हेलेन केलर कहती हैं ‘‘सहनशीलता मन का सबसे बड़ा उपहार है, इसके लिए दिमाग को उतनी ही मेहन की जरुरत पड़ती है जितनी कि एक साइकिल पर स्वयं को संतुलित करने की।’’

आज सबसे ज्यादा आवश्यकता भी इसी बात की है कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक संतुलन को बनाए रखा जाए। और यह सतत् गति से ही संभव है। साइकिल इसी का प्रतीक है। आप जब तक पैडल मारते रहते हैं, चलते रहते हैं और जैसे ही यह बंद करते हैं, आपके जीवन की साइकल थम जाती है। इसका संतुलन बिगड़ जाता है। साइकिल को मनुष्य और यंत्र के आपसी मैत्रीभाव का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक माना जा सकता है।

बहरहाल प्रधानमंत्री ने हमें मौका दिया कि हम अपने शुभ प्रतीकों के महत्व को ठीक से समझ सकें। उनके बारे में पुनः विस्तार से चर्चा कर सकें। हमें सोचना होगा कि क्या हमें अपने वर्तमान को संवारने के लिए भविष्य को दांव पर लगाना उचित है। एक राजनितिक दल को कटघरे में खड़े करने के प्रयास में उन्होंने एक प्रतीक की बेहद अनावश्यक निंदा की है। सवाल साइकिल भर का नहीं है। हमारे आसपास ऐसे तमाम उदाहरण रोज सामने आ रहे हैं जिनमें भाषा का संयम टूट रहा है। यह मानव समाज के हित में नहीं है।

भारत में चुनावी संघर्ष अब गलत दिशा लेता जा रहा है। प्रधानमंत्री से उम्मीद की जाती है कि वे अत्यधिक संयम व शालीनता की मिसाल सामने रखेंगे। वैसे लोकतंत्र अपने आप में उम्मीद ही तो है। साइकिल हमारे जीवन की मधुरतम स्मृतियों से जुड़ी है। तभी तो मेल रोड्रिग्स ने कहा था, मुझे वास्तव में ‘बायसाइकिल थीफ’ (फिल्म) पसंद है। यह बस मुझे पिताजी के साथ मेरे रिश्ते की याद दिलाती है।’’ एक चोर का चितचोर हो जाना ही बायसिकल थीफ है।