World Environment Day : पर्यावरण संरक्षण और गांधी विचार

आधुनिक दौर की पर्यावरणीय समस्‍याओं के समाधान के लिए हमें गांधी के कहे 'प्रकृति की अर्थव्यवस्था' को फिर से समझना होगा

Publish: Jun 06, 2020, 04:05 AM IST

Photo courtesy : Downtoearth
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सौ साल पहले 1 जनवरी 1918 को अहमदाबाद में बैठक के दौरान महात्मा गांधी ने भारत की आज़ादी को जब परिभाषित किया था तब उनका मानना था कि भारत की आज़ादी का मतलब वायु, जल और अनाज की आज़ादी था। अर्थात, गांधी जब एक आज़ाद मुल्क की परिकल्पना कर रहे थे तब उनके दृष्टिकोण में भारत के नागरिकों को एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था मुहैया कराना था, जहां लोगों के पास स्वच्छ राजनीति और प्रशासन के अलावा साफ हवा, साफ पानी और भोजन की सुलभ एवं सुगम व्यवस्था हो। एक तरफ देश में जब स्वतंत्रता आंदोलन गांधी के नेतृत्व में लड़ा जा रहा था तो वहीं दूसरी तरफ महात्मा गांधी पर्यावरण को लेकर भी उतने ही सचेत और सजग थे जितना कि भारत की आज़ादी के लिए।

आज के आधुनिक और तकनीकी दौर में जब हमारे शहर, हमारे राज्य और हमारा देश दुनिया की तेज़ रफ़्तार के साथ कंधा से कंधा मिला कर चल रहा है  तो हमें थोड़ा ठहरकर गांधी की तरफ देखने की ज़रूरत है। वर्तमान परिदृश्य में प्रदूषित पर्यावरण की समस्या देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर सामने खड़ा है। वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण , जल प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएं आज के दौर में दूसरी किसी भी चुनौती से कमतर नहीं हैं। और ये सारी समस्याएं एक समाज के तौर पर हमारे असामाजिक होने की गवाही दे रही हैं। आज सामूहिक रूप से एक समाज और एक व्यक्ति के तौर पर हम विफल हैं। एक तरफ जहां भौतिकवाद और बाज़ारवाद के प्रभाव में प्रकृति द्वारा उपहार में मिले बेहतर पर्यावरण की गारंटी देने वाले तमाम संसाधनों को नष्ट करने पर तुले हैं, तो वहीं दूसरी तरफ हमें एक जागरूक व्यक्ति और सभ्य समाज के तौर पर समझना चाहिए कि अपनी ज़रूरतों के तुष्टिकरण के चक्कर में हम हमारे आने वाले भविष्य की ही कब्र खोद रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों की यह निर्मम हत्या सामूहिक तौर पर हमारे लिए आत्मघाती साबित हो रही है।

पर्यावरण को बचाने और संरक्षित करने में एक मानव, एक सामाज और एक देश के तौर पर हम विफल तो रहे ही हैं। लेकिन आज़ादी के बाद राजनीतिक दृष्टिकोण से भी देखें और समझने का प्रयास करें तो पर्यावरण की स्थिति, समस्या और उसके निवारण में तमाम सरकारों का रवैया निराश करनेवाला रहा है। प्रदूषण और पर्यावरण से जुड़े नियम और कानून होने के बावजूद न तो हम पर्यावरण को सुरक्षित कर पाने में सक्षम रहे हैं और न ही प्रदूषण पर कोई लगाम लगाने में सफल हो पाए हैं।

मशहूर फोटोग्राफर और पर्यावरणविद् रहे एंसेल एडम्स ने कहा है कि 'यह बड़ा अजीब है कि पर्यावरण को बचाने के लिए हमें अपनी ही सरकार से लड़ना पड़ता है'। एंसेल एडम्स ने यह विचार अमेरिका में उद्योगीकरण की आड़ में प्राकृतिक संसाधनों के साथ की जा रही ज़्यादतियों के सम्बन्ध में दिया था। यह स्थिति कमोबेश हर देश बल्कि पूरे विश्व के आचरण में तब्दील हो चुकी है। हर जगह आधुनिकता की होड में  प्राकृतिक संसाधनों के साथ छेडछाड की जा रही है।

भारत में हुए चिपको, अपिक्को, साइलेंट घाटी, नर्मदा बचाओ जैसे तमाम पर्यावरण आंदोलन प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा और उसके संसाधनों की सही उपयोगिता के लिए किए गए। जो कि सरकारों की पर्यावरण की रक्षा और उपयोगिता के मुद्दे पर उनके ढीले और उदासीन रवैए की ओर इशारा करती हैं और साथ ही उन्हें कठघरे में खड़ा भी करती हैं। विशेषकर नर्मदा बचाओ आंदोलन की समस्या इस समय में एक बड़ी समस्या है। नर्मदा बचाओ आंदोलनकारी आज भी विस्थापन की समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए लड़ रहे हैं। नर्मदा समस्या आज भी मध्य प्रदेश और गुजरात सरकार के बीच विवाद का एक बहुत बड़ा कारण बनी हुई है।

देश में एक ऐसा ही बड़ा जल विवाद कावेरी जल विवाद को भी माना जाता है जिसको लेकर दक्षिण के राज्य तमिलनाडु और कर्नाटक एक दूसरे के आमने सामने हैं। कावेरी जल विवाद ने तो दोनों ही राज्य सरकारों के बीच ऐसी दुश्मनी को जन्म दिया जिसका खामियाजा दोनों ही राज्य में एक दूसरे राज्य के प्रवासियों तक को झेलना पड़ गया।

जल जंगल और ज़मीन को बचाने कि जद्दोजहद में अगर हम सरकारों को सफलता के पैमाने पर देखने का प्रयत्न करें तो नतीजा निराशाजनक ही है। गंगा को प्रदूषित होने से बचाने और सफाई प्रोजेक्ट में हर साल आंकड़ों के स्तर पर हज़ारों करोड़ खर्च किए तो जाते हैं लेकिन उद्देश्य धरातल पर उतरता नहीं दिखता। और न ही प्रयास संतोषजनक लगते हैं।

2020-21 के केंद्र सरकार के बजट में देश के रेकॉर्डेड 7,71,821 वर्ग कि.मी. वन क्षेत्र के संवर्धन और संरक्षण और प्रदूषित शहरों की दूषित हवा को साफ करने के लिए 4400 करोड़ आवंटित किए गए हैं। पिछले बजट में यह राशि 3100 करोड़ थी तो वहीं 2017-18 में महज़ 2500 करोड़। महज़ की गुंजाइश यहां इसलिए बन रही है क्योंकि ये राशि वन क्षेत्र के संवर्धन और संरक्षण के साथ-साथ प्रदूषित शहरों की हवा को साफ़ करने के लिए भी है।

कुल मिलाकर पर्यावरण के मसले पर एक व्यक्ति, एक समाज और सरकार के रूप में हम सबका प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा है। जो कि एक चिंता का विषय है। केंद्र सरकार को देश की सभी राज्य सरकारों के साथ एक संघीय कमेटी का गठन करना चाहिए जिसकी अध्यक्षता स्वयं प्रधानमंत्री करें और साथ में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री उस कमिटी के सदस्य हों। दूसरी तरफ राज्यों में भी ऐसे ही कमेटियों का गठन हो जिसमें राज्यों की विपक्षी पार्टी के नेता भी सदस्य के तौर पर शामिल हों। प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए हर एक छोटे और नियमित अंतराल पर चर्चा की जाए। प्रदूषण नियंत्रण और पर्यावरण संरक्षण के लिए उठाए गए कदमों और उसके नतीजों की समीक्षा हो।

महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि अगर हर भारतीय परिवार के पास कार होगी तो लोगों के लिए सड़कों पर चलने के लिए जगह नहीं बचेगी। गांधी जी ने ऐसा तब कहा था जब आज के भारत की आबादी की तुलना में तब के भारत की आबादी पांचवा हिस्सा ही थी। दिल्ली सरकार के ऑड - इवन फार्मूले पर हर राज्य सरकार को अमल करना चाहिए। और साथ ही लोगों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए प्रेरित करना चाहिए। स्वच्छ पर्यावरण की परिकल्पना को धरातल पर उतारने के लिए प्रशासन के स्तर पर भी ढीले रवैये को त्यागने की आवश्यकता है। प्रशासन और पब्लिक का समन्वय ही पर्यावरण को स्वच्छ और संरक्षित कर पाएगा .

आज के दौर में इस बड़ी समस्या से निपटने के लिए ज़रूरी है कि हम महात्मा गांधी के विचारों पर लौट चलें। गांधीवादी दृष्टिकोण में मनुष्य ही प्रदूषित पर्यावरण के लिए ज़िम्मेदार है और वही अपने स्वभाव में बदलाव कर पर्यावरण और खुद की रक्षा भी कर सकता है। अगर समय रहते हम नींद में चलने वाली अपनी आदत को त्याग कर पर्यावरण के प्रति जागरूक नहीं हुए तो प्रकृति को संतुलन का सिद्धांत पता है और प्रकृति खुद अपना बदला लेना भी जानती है।