बंधन मुक्ति भी सच्चिदानंद भगवान का ही स्वरूप

प्रिय वस्तु की प्राप्ति के पश्चात् मन शान्त हो जाता है, उस शांत, अन्तर्मुख मन पर जिस सुख का आभास पड़ता है उस आभास का बिम्बभूत जो शुद्ध अंतरात्मा है वही है आनंद

Updated: Oct 03, 2020, 12:31 PM IST

Photo Courtesy: Newspuran
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प्रत्येक मनुष्य की प्रबल रूप से दो अभिलाषा होती है। पहली आनंद की प्राप्ति और दूसरी स्वतंत्रता। बस इसी की प्राप्ति में सम्पूर्ण जीवन वह क्रियाशील रहता है। मैं आनंद स्वरूप बन जाऊं और सबके ऊपर हमारा शासन हो ऐसी चाह प्राणी मात्र की है। संसार की समस्त वस्तुओं में जिसके लिए प्रेम होता है और जो सबके प्रेम का आस्पद हो वही आनंद होता है।

यह बड़ी ही स्पष्ट बात है कि संसार में जितने भी आनंद के साधन हैं उनमें प्रेम अस्थिर होता है। स्त्री, पुत्र आदि में प्रेम तभी तक रहता है जब तक वे हमारे अनुकूल रहते हैं, प्रतिकूल होते ही उनसे भी द्वेष हो जाता है। परन्तु सुख और आनंद सदा ही प्रिय रहते हैं। कभी किसी को आनंद से द्वेष नहीं होता। कोई कितना भी नास्तिक क्यों न हो वह भी आनन्द को प्राप्त करना चाहता है। और उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील और लालायित रहता है। लेकिन जिस सुख और आनन्द के लिए मनुष्य व्यग्र है वह उसको पहचानता नहीं, सुख के साधन स्त्री-पुत्रादि में सुख का अन्वेषण करता है। लेकिन मनुष्य के लिए यह जानना आवश्यक है कि सुख साधन नहीं साध्य है।

सांसारिक वस्तुओं के प्राप्त होने पर ऐसा लगता है कि आज मुझे सुख की प्राप्ति हो गई। जबकि होता यह है कि जब व्यक्ति किसी सांसारिक पदार्थ या व्यक्ति को प्राप्त करना चाहता है तो वह इच्छा इतनी बलवती हो जाती है कि उस समय और कुछ भी अच्छा नहीं लगता। और जब उस वस्तु की प्राप्ति हो जाती है तब वह इतना आनंदित होता है और कहता है कि तुमसे मिलकर आज आनंद आ गया। तो यह आनंद कहीं बाहर से नहीं आया अपने भीतर का आनंद प्रकट हो गया। होता यह है कि प्रिय वस्तु की प्राप्ति के पश्चात् मन शान्त हो जाता है, उस शांत, अन्तर्मुख मन पर जिस सुख का आभास पड़ता है उस आभास का बिम्बभूत जो शुद्ध अंतरात्मा है वही आनंद है। क्यूंकि जो लक्षण आनंद का है वही लक्षण आत्मा का भी है। जैसे सब-कुछ आनंद के लिए प्रिय है लेकिन आनंद किसी के लिए प्रिय नहीं है ठीक वैसे ही समस्त वस्तु आत्मा के लिए प्रिय होती हैं किन्तु आत्मा किसी दूसरे के लिए प्रिय नहीं होता।

इसी प्रकार प्राणी मात्र स्वतंत्रता चाहता है। एक चींटी को भी पकड़ लेने पर वह व्याकुलता से हाथ पैर चलाती है।शुक-सारिका आदि पक्षियों को स्वर्ण के पिंजड़े में रखकर नित्य नवीन मधुर-मधुर फल खिलाए जाएं तब भी वे सुख का अनुभव नहीं करते किन्तु बंधन मुक्त होकर स्वतंत्रता से वन के खट्टे फलों को खाकर जीवन बिताना अच्छा समझते हैं। इस तरह प्राणी मात्र बंधन मुक्त होकर स्वतंत्र रहना चाहते हैं।

परन्तु स्वतंत्रता के स्वरुप पर विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि यह भी भगवान का स्वरूप ही है। क्यूंकि  असंग सच्चिदानंद को प्राप्त किए बिना बंधनमुक्ति और स्वतंत्रता की कल्पना अत्यंत निरालम्बन है। जब तक स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर का सम्बंध विद्यमान है तब-तक स्वतंत्रता कैसी? माता, पिता, गुरु, और शास्त्र की आज्ञाओं के बन्धन से भले ही मुक्त हो जाएं परन्तु जन्म, जरा, व्याधि, विपत्ति, दरिद्रता, मृत्यु आदि के परतंत्र तो प्राणीमात्र को होना ही पड़ेगा। क्यूंकि जब तक कुछ स्वतंत्रा का त्याग कर शास्त्रों एवं गुरुजनों के परतंत्र होकर कर्म, उपासना,एवं ज्ञान द्वारा मल,विक्षेप आवरण को दूर कर शरीरत्रय बंधन अथवा जीवभाव से मुक्त होकर निजी निर्विकार स्वरूप को न प्राप्त कर ले, तब-तक पूर्ण स्वातंत्र्य मिल नहीं सकता। इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि बंधन मुक्ति और स्वातंत्र्य भी असंग, अनंत, स्वप्रकाश सच्चिदानंद भगवान का ही स्वरूप है।