यस्य देवे पराभक्ति: यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्यर्था:, प्रकाशन्ते महात्मन:

गुरु के दो विशेषण हैं तत्वदर्शी और ज्ञानी.. तत्वदर्शी का अर्थ है ब्रह्मनिष्ठ और ज्ञानी का अर्थ है श्रोत्रिय

Publish: Nov 03, 2020, 11:36 PM IST


सदा विघ्न हर्ता महाकष्ट हर्ता
शरीरेण दृष्ट्या,सदा चित्त हर्ता।
निमग्नो मुदा य:स्वरूपे हि नित्यं,
गणेशस्वरूपं गुरुं वै नमाम:

हमारे जीवन के समस्त विघ्नों और कष्टों को हरण करने वाले और अपने भक्तों के चित्त का हरण करने वाले गणेश स्वरूप श्री सदगुरू के श्री चरणों में प्रणाम निवेदन करती हूं। शास्त्रों में गुरु की महिमा का वर्णन बहुत किया गया है।
 गुरु कैसा होना चाहिए? तो शास्त्रों में बताया गया है कि श्रोत्रिय ब्रह्म निष्ठ,वेद शास्त्रों का ज्ञाता, परमात्मा के स्वरूप का अनुभव करने वाला गुरु होना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि-
तद्विद्धिप्रणिपातेन
परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं,
ज्ञानिनस्तत्व दर्शिन:।

अर्जुन! तुझे यदि ज्ञान प्राप्त करना है तो तू तत्व दर्शी ज्ञानी के पास जा। गुरु के दो विशेषण हैं तत्वदर्शी और ज्ञानी। तत्वदर्शी का अर्थ है ब्रह्मनिष्ठ और ज्ञानी का अर्थ है श्रोत्रिय। जिसके अन्दर ये दोनों विशेषताएं हों, वह गुरु हमारे अज्ञानांधकार को दूर कर सकते हैं। क्यूंकि परमात्मा का ज्ञान आंख से नहीं हो सकता,कान से नहीं हो सकता,प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता, अनुमान से नहीं हो सकता, परमात्मा का ज्ञान श्रुति से हो सकता है, उपनिषदों से हो सकता है। और उन उपनिषदों का अर्थ गुरु बताते हैं। इसलिए उपनिषद् में कहा गया है कि
यस्य देवे पराभक्ति:
यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्था:,
प्रकाशन्ते महात्मन:।

जिस साधक की अपने इष्ट देव में भक्ति है। और जितनी भक्ति इष्ट देव में है उतनी ही भक्ति अपने गुरु में है उसी को वेदांत के अर्थ का बोध होता है। ऐसे गुरु के पास जाकर प्रणिपात हो, फिर प्रश्न करे, और उत्तर समझ में न आए तो "सेवया" कुछ काल तक सेवा करे। इतने से यदि आपमें पात्रता आ जायेगी तो
आपको गुरु के उपदेश से ज्ञान हो जायेगा।ज्ञान के मार्ग में गुरु का महत्व है,भक्ति के मार्ग में भी गुरु का महत्व है।जब गुरु बताते हैं तब हमें भगवान का ज्ञान होता है। इसीलिए कबीर बाबा ने कहा कि-
गुरु गोविंद दोनों खड़े
काके लागूं पाय 
बलिहारी गुरु आपने 
गोविंद दियो बताय।

जब गुरु ने बताया कि ये गोविंद हैं तब हम समझे कि ये गोविंद हैं। अन्यथा हम क्या जानें कि कौन परमात्मा है। अपने सनातन धर्म में तो गुरु को पिता माना जाता है।एक तो शरीर को जन्म देने वाले पिता, और दूसरे हमारे साधना के जन्म दाता, धर्म के जन्म दाता तो गुरु ही होते हैं। हमारे यहां कन्यादान का विधान है। पिता अपने हाथ में कुश लेकर बोलता है
इमां लक्ष्मींस्वरूपिणीं कन्यां, विष्णु रूपाय वराय तुभ्यमहं स़ंप्रददे।
अर्थात् मैं अपनी इस लक्ष्मी स्वरूपिणी कन्या को आप विष्णु रूप वर को प्रदान करता हूं। इसी प्रकार शिष्य जब गुरु की शरण में जाता है तो गुरु उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर देता है। प्रभु! आज से ये आपका है आप इसकी रक्षा करें। इसलिए गुरु को धर्म पिता कहते हैं और जो शिष्य हैं वो आपस में गुरु भाई कहते हैं। ये नाता पक्का होता है।इस प्रकार गुरु की महिमा ज्ञान मार्ग में भी है और भक्ति मार्ग में भी है।कभी कभी तो श्री जी ही गुरु बन कर भक्त को अपने प्रियतम प्रभु का ज्ञान करा देती हैं। इसलिए हमारे आध्यात्मिक जीवन में गुरु का होना अति आवश्यक है।