क्या श्रेष्ठ है देवों सा सुख या संतों सा जीवन

देवता भले ही मनुष्यों से अधिक सुखी हों पर हमारा लक्ष्य उनका भोग प्रधान-जीवन नहीं हो सकता, हमें तो संतों जैसा जीवन चाहिए, उनकी जैसी रहनी चाहिए

Publish: Aug 12, 2020, 07:27 PM IST

गोस्वामी तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में भगवान श्रीराम के आगे अपना मनोरथ प्रकट करते हुए कहा-

 कबहुंक हौं यहि रहनि रहौंगो

अर्थात् मैं कब ऐसी रहनी रहूंगा। रहनी की मांग भगवान् श्रीराम से महारानी शतरुपा ने भी की थी-

 जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहि जो गति लहहीं।।

सोई सुख सोइ गति, सोई भगति, सोई निज चरण सनेहु।

 सोई विवेक सोई रहनि प्रभु, हमहिं कृपा करि देहु।।

यहां भी वे किसी रहनी की याचना करती हुई दिखाई देती हैं। संत कबीर ने सहज समाधि को रहनी शब्द से विहित किया है।

 कह कबीर यह उन्मनि रहनि, सो परगट करि गाइ।

 दुःख सुख से कोई परे परमपद, सब घट रहा समाइ।।

वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, और तुलसी कृत रामायण में संतों की जीवन प्रणाली पर प्रकाश डालते हुए उसी को आदर्श माना गया है। एकबार हम सूक्ष्म दृष्टि से इस संसार से लेकर ब्रह्म लोक तक विचार करके देखें तो हमें सर्वत्र सुख दुःख का तारतम्य दिखाई पड़ेगा। तारतम्य का अर्थ है तरतम का भाव। कहीं कम कहीं ज्यादा, इसलिए यहां के प्राणी दुःख से बचने और सुख की प्राप्ति के लिए सदा सचेष्ट रहते हैं। पशु पक्षी भी यही करते हुए दिखाई देते हैं।य दि कोई गरजते हुए डंडा लेकर दौड़ता है तो पशु भागता है और हरी दूब लेकर आगे आता है तो उसको खाने के लिए पास आ जाता है। बहेलिया को देखकर भागते हैं और अहिंसक महात्माओं के पास निर्भय विचरण करते हैं। मनुष्य भी जीवन पर्यंत दुःख से बचने और सुख का साधन जुटाने में लगा रहता है।

मनुष्य सुख चाहता है किन्तु उसकी सुखोपलब्धि एक सीमा तक आकर रुक जाती है। तैत्तिरीय उपनिषद् में सुख के तारतम्य के संदर्भ में विभिन्न श्रेणियां वर्णित हैं। यथा-

 युवा स्यात्साधुयुवाध्यायक

अशिष्ठो दृढिष्ठो बलिष्ठस्तस्येयं

पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णास्यात्

स एको मानुष आनंद: ये ते शतं मानुषा

आनंदा:‌।स एको मानुष गंधर्वाणां

आनंद:श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।

साधु-युवा, वेदपठित, आशिष्ठ,दृढिष्ठ,बलिष्ठ चक्रवर्ती राजा का आनंद एक मनुष्य का आनंद है। मनुष्य के आनंद से सौ गुना अधिक मनुष्यगंधर्व का आनंद है। उससे सौ गुना अधिक देवगंधर्व का, उससे सौ गुना अधिक कर्म देवताओं एवं अजानज देवताओं का होता है। देवताओं से सौ गुना अधिक इन्द्र का सुख, इन्द्र से सौ गुना अधिक बृहस्पति का, बृहस्पति से सौ गुना अधिक ब्रह्मलोक निवासियों का और उनसे भी सौ गुना अधिक ब्रह्मा का सुख होता है। किन्तु ब्रह्मा का भी सुख निर्मृष्टनिखिलदु:खनिरतिशयानंद रूप नहीं होता।

सरल शब्दों में यह कहें, सब जगह छोटे- बड़े हैं, सब जगह विषमता के आधार पर सुख दुःख का तारतम्य दृष्टि गोचर होता है। मनुष्य लोक में नवीन कर्म किए जा सकते हैं क्योंकि दुःख का थप्पड़ लगने से मनुष्य चैतन्य होकर कुछ नवीन सत्कर्म करता है और निरतिशय आनंद तक पहुंच भी जाता है किन्तु परलोक में जब तक पुण्यों का क्षय नहीं हो जाता एवं देव शरीर नहीं छूट जाता तब तक उसको इस बात का पश्चात्ताप होता रहता है कि मैंने बुरे कर्म क्यूं किये? अच्छे कर्म क्यूं नहीं किए? क्यूंकि परलोक में उसको यावज्जीवन अपने से अधिक सुखी दिखाई देते हैं।जिनकी उच्चता और अपनी हीनता को देख- देखकर वह जलता रहता है। इसका तात्पर्य है कि देवता भले ही मनुष्यों से अधिक सुखी हों पर उनका भोग प्रधान-जीवन हमारा लक्ष्य नहीं हो सकता। हमें तो संतों जैसा जीवन चाहिए, उनकी जैसी रहनी चाहिए, यह तभी संभव होगा जब हमारे भीतर समता का भाव आएगा।