श्रीमद्भगवद्गीता और भगवान श्री कृष्ण के भक्त

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ

Updated: Oct 16, 2020, 01:28 PM IST

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने चार प्रकार के भक्तों का वर्णन किया है।
*आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी* 
*ज्ञानी च भरतर्षभ*।
आर्त्त, जिज्ञासु,अर्थार्थी और ज्ञानी।इन चारों में ज्ञानी को सर्व श्रेष्ठ भक्त कहा गया है।
*तेषां ज्ञानी नित्य युक्त*,
*एक भक्तिर्विशिष्यते*
अमलात्मा परमहंस महा मुनि गण निर्ग्रंथ होकर भी भगवान में निष्काम भक्ति करते हैं।क्योंकि भगवान में अद्भुत आत्माराम चित्ताकर्षक लोकोत्तर गुण है।
"आत्माराश्च मुनयो"
*जीवन मुक्त महामुनि जेऊ*
*हरिगुण सुनहि निरन्तर तेऊ*
*आसा वसन व्यसन यह तिनहीं*।
*रघुपति चरित होइ तहं सुनहीं*
विशेषतः ऐसे ही तृष्णा रहित महामुनीन्द्र ही भगवान के गुणगान के अधिकारी माने गए हैं, क्यूंकि जिसका मन निरन्तर भगवत्स्वरूपामृत के रसास्वादन में लगा रहता है, वही उस रस का वितरण भी कर सकता है। श्रीमद्भागवत में जिस समय राजर्षि परीक्षित ने ब्रह्मा जी के द्वारा वत्सहरण वाले प्रसंग से सम्बंधित प्रश्न किया,उस समय ‌श्री शुकदेव जी महाराज का मन भगवान के स्वरूप, गुण, लीलारस में लीन हो गया। फिर घंटा शंख आदि के वादन से बड़ी मुश्किल से उन्हें सावधान किया गया।तब कथा आगे चली।
*इत्थं स पृष्ट:स तु बादरायणि*
*स्तत्स्मारितानन्तहृताखिलेन्द्रिय*:
*कृच्छ्रात्पुनर्लब्धवहिर्दृशि:शनै*:
*प्रत्याहतं भागवतोत्तमोत्तमम्*
वस्तुत: जैसे किसी पात्र में भरा हुआ भरपूर रस वायु के आघात या ऊफान से बहिर्भूत होता है, वैसे ही भावुक के हृदय में अनुभूयमान भगवदीय रस प्रेमोद्रेक से उद्गीर्ण होकर कथा सुधा रूप में व्यक्त होता है। अतः वे ही चरित्र वर्णन के मुख्य अधिकारी होते हैं।
*निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद्*
*भवौषधाच्छोत्रमनोSभिरामात्*।
*क उत्तमश्लोक गुणानुवादात्*
*पुमान्विरज्येत विना पशुघ्नात्*
अर्थात् भगवान का गुणानुवाद तृष्णाविरहित योगीन्द्रों द्वारा गाया जाता है और वह भवरोग का श्रेष्ठ महौषध है। साथ ही श्रोत्र और मन को आनंद देने वाला है। अर्थात् विमुक्त, विरक्त और विषयी सभी भगवच्चरित्र सेवन के अधिकारी हैं।
*सुनहिं विमुक्त विरत अरु विषई*।
*लहहिं भगति गति संपति नई*।
भगवच्चरित्र से छालित अन्त:करण  तत्व का अधिकारी हो जाता है। और ऐसे तत्वज्ञ ही प्रभु को सर्वाधिक प्रिय होते हैं।