निरंतर सोचें कहां है सच्चा सुख और सच्ची शांति

अगर यह पूछा जाए कि आप सुख क्यूं चाहते हैं? तो इसका उत्तर कोई नहीं दे पाएगा क्यूंकि सुख प्राप्त करना मनुष्य का अंतिम साध्य है

Updated: Aug 27, 2020, 08:24 PM IST

Photo Courtsey: Manhattan Digest
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मनुष्य एक विचार शील प्राणी है।और उसे विचार परायण होना भी चाहिए। हमारे गुरुदेव भगवान पूज्य पाद शंकराचार्य जी महाराज छोटी अवस्था में ही घर छोड़ दिए थे और साधुवेष में आ गए थे। एक बार महाराज श्री से किसी गृहस्थ ने पूछा कि आप साधू क्यूं हो गए? इसके बदले में महाराज श्री ने भी प्रश्न किया कि आप गृहस्थ क्यूं हो गए? तो उसने कहा कि मैंने तो इसपर विचार ही नहीं किया।इसपर महराज श्री बोले कि यही अन्तर है आपने विचार नहीं किया और मैंने विचार कर लिया।

मनुष्य ही ऐसा है जिसमें बुद्धि की प्रधानता है और वह विचार कर सकता है। मनुष्य की प्रवृत्ति साध्य साधन के विचार के अनुसार होती है। वह जानता है कि साध्य क्या है, और साधन क्या है। उसमें यह भी क्षमता है कि साध्य-साधन की परम्परा में अन्तिम साध्य क्या है। कोई अपने घर से निकलता है तो पहले ही यह सोच लेता है मुझे कहां जाना है। बिना गंतव्य के निश्चय के जो घर से पांव बढ़ाता है,वह उन्मत्त कहा जाता है। जैसे एक देश से दूसरे देश में जाना,देश साध्य है पर जाने का भी कोई उद्देश्य होता होगा। यदि उसका उद्देश्य किसी व्यक्ति से मिलना हो या किसी अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करना हो तो उसके उद्देश्य की जिज्ञासा होती है। आखिर हम क्यूं किसी से मिलना चाहते हैं या किसी अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करना चाहते हैं? इसका उत्तर यही होगा कि हमको इससे सुख मिलता है। अगर यह पूछा जाए कि आप सुख क्यूं चाहते हैं? तो इसका उत्तर कोई नहीं दे पाएगा क्यूंकि सुख प्राप्त करना मनुष्य का अंतिम साध्य है। वह किसी अन्य का साधन नहीं है। वह पुरुषार्थ है।

आज मनुष्य और मनुष्यों का समूह तीव्र गति से दौड़ रहा है। वह जिस ओर दौड़ रहा है,क्या वहां सच्चा सुख है? इस बात पर हमारे ऋषि-मुनियों ने गम्भीर मंथन किया है तथा आध्यात्मिक ग्रंथों में में भी इस पर प्रर्याप्त विचार किया गया है।विषय और इन्द्रियों के सन्निकर्ष से जो सुख मिलता है वह क्षणिक और दुःख मिश्रित होता है। उससे किसी की तृप्ति नहीं होती। मन एक प्यासे हाथी के समान है। प्यासा हाथी पानी पीने के लिए क्षुद्र जलाशयों (ताल-तलैया) में जाता है तो उसकी सूंड़ में पानी के साथ कीचड़ भी आने लगता है। इस प्रकार वह अनेक क्षुद्र जलाशयों में भटक कर भी अपनी पिपासा को शांत नहीं कर पाता। इसी प्रकार मनुष्य विविध विषयों का भोग करने के पश्चात भी शांति से वंचित ही रहता है संसार के क्षणिक सुख से तृष्णा की उत्पत्ति होती है। जिसके कारण मनुष्य की कामनाएं बढ़ती ही चली जाती हैं, जिनके पूर्ण होने पर फिर दूसरी कामनाएं आ जाती हैं और सब कामनाओं की पूर्ति न होने पर वह अशांत हो जाता है।

अशांतस्य कुत: सुखम्... इसलिए मनुष्य को इस विषय पर निरंतर चिन्तन करना चाहिए कि सच्चा सुख और सच्ची शांति कहां है।