बिना विवेक के किसी भी कार्य में नहीं मिलेगी सफलता

विज्ञान जब श्रेष्ठ होगा तो उसे कोई तोड़ नहीं पायेगा, भक्ति के लिए हृदय की कोमलता और ज्ञान के लिए हृदय की कठोरता है अपेक्षित

Updated: Sep 29, 2020, 06:39 AM IST

वर विज्ञान कठिन कोदंडा

श्रेष्ठ विज्ञान ही इस धर्म रथ का कठिन कोदंडा (धनुष) है।अब यहां पर विचारणीय विषय ये है कि वर विज्ञान क्या है? यहां अपरोक्ष आत्म ज्ञान ही वर विज्ञान है जिससे संसार रूपी अज्ञान का नाश हो सकता है। नित्य अनित्य का विवेक होना चाहिए। क्यूंकि जब नित्य अनित्य का विवेक होगा तभी हम अनित्य को छोड़कर नित्य की प्राप्ति के लिए प्रयास करेंगे। यही धर्म रथ का कोदंड है। भगवान श्रीराम के जीवन में हम देखते हैं कि उन्होंने जो भी कार्य किया वह विवेक पूर्वक किया। उनके जीवन में कभी भी उन्होंने अविवेकपूर्ण निर्णय नहीं लिया। श्रीमद्भगवद्गीता में-

ये हि संस्पर्शजा भोगा, दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्त: कौन्तेय, न तेषु रमते बुध ।। (गीता ५/22)

अर्थात् इन्द्रिय और विषयों के संस्पर्श (संयोग) से जो भोग भोगे जाते हैं वे सबके सब दुःख के कारण हैं। आदि और अंत वाले हैं। इसलिए जो बुध हैं वे इसमें आनन्द का अनुभव नहीं करते। यहां भगवत्पाद आदि शंकराचार्य जी ने बुध का अर्थ विवेकी ही किया है।

बुध: विवेकी विवेकी का अर्थ क्या है? तो कहते हैं कि -अवगतपरमार्थतत्व: जिसने परमार्थ तत्व को जान लिया है वह ही विवेकी है।तो जो इन्द्रिय और विषय जन्य भोगों में आनंद का अनुभव नहीं करता वह विवेकी है। भगवान श्रीराम के जीवन में यह बात स्पष्ट परिलक्षित होती है कि उन्होंने कभी भी विषय जन्य सुख के लिए अभिलाषा प्रकट नहीं की।

राम पुनीत विषय रस रूखे धनुर्भंग के अवसर पर हर्ष विषाद रहित उनकी मुद्रा का दर्शन होता है। और वनगमन के समय तो प्रभु का यह स्वभाव और भी स्पष्ट रूप से सामने आता है। जिन्हें एक दिन पूर्व सुनाया गया कि कल आपका राज्याभिषेक होगा। पूरी तैयारी हो गई। लेकिन सुबह सूर्य की किरण नहीं निकली और वनगमन का आदेश हो गया। परन्तु श्रीराम को राज्य का समाचार सुनकर प्रसन्नता नहीं हुई और वनगमन का आदेश सुनकर कोई दुःख नहीं हुआ।

प्रसन्नतां या न गताभिषेकत:, तथा न मम्ले वनवासदु:खत:

ऐसे एकरस रहने वाले श्रीराम जी। ऐसा इसलिए कि श्रीराम जी परम विवेकी हैं। सोने की लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद भी प्रभु लंका के राज्य की कामना नहीं करते। ऐसे अनेक उदाहरण भगवान श्रीराम के जीवन में देखने को मिलते हैं। क्यूंकि श्री राम जी ज्ञानधाम हैं।

ज्ञान धाम श्रीपति असुरारी

बिना विवेक के यदि आप कोई भी कार्य करेंगे तो सफलता नहीं मिलेगी। इस प्रसंग में इन्द्र और विरोचन का आख्यान बड़ा ही प्रासंगिक होगा।

एकबार देवताओं के राजा इन्द्र और असुरों के राजा विरोचन दोनों ब्रह्मा जी पास आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए गए। तो ब्रह्मा जी ने कहा कि तुम लोग 32 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करो। फिर उपदेश दिया तो जो असुरराज विरोचन था वो शरीर को ही आत्मा मानकर वापस आ गया। और जो देवराज इन्द्र थे उन्होंने विचार किया कि ये शरीर तो आत्मा हो नहीं सकता। तो फिर ब्रह्मा जी के पास गए उन्होंने फिर कहा कि 32 वर्ष ब्रह्मचर्य का पालन करो कई बार ऐसी आज्ञा ब्रह्मा जी देते रहे, उन्होंने कहा कि स्वप्न में जो पुरुष दिखता है वह आत्मा है। तो इन्द्र संतुष्ट नहीं हुए, फिर ब्रह्मा जी ने कहा कि सुषुप्ति में जो पुरुष दिखता है वह आत्मा है फिर भी इन्द्र को संतुष्टि नहीं हुई वे बार-बार विचार करते कि आत्मा इन सबसे भिन्न हैं तो इन्द्र की जिज्ञासा को देखकर ब्रह्मा जी ने उन्हें आत्मतत्व का बोध कराया तब उन्हें संतुष्टि हुई।

अब यदि इन्द्र के पास विवेक नहीं होता तो वे भी विरोचन की तरह शरीर को ही आत्मा मानकर चलें जाते। पर इन्द्र विवेकी थे परिणाम स्वरूप उनको वास्तविक अर्थ की प्राप्ति हो गई। इसी प्रकार जो व्यक्ति विवेकी होता है उसे ही वास्तविक अर्थ की प्राप्ति होती है।इसी को परमार्थ कहते हैं। जैसे धनुष जितना ही कठोर होगा वह उतना ही अधिक मजबूत होगा।

वर्णन आता है कि भगवान श्रीराम के धनुष को कोई भी योद्धा तोड़ नहीं पाया, जबकि रावण के धनुष को भगवान श्रीराम ने कई बार तोड़ा। इसी प्रकार विज्ञान जब श्रेष्ठ होगा तो उसे कोई तोड़ नहीं पायेगा। भक्ति के लिए हृदय की कोमलता और ज्ञान के लिए हृदय की कठोरता अपेक्षित है। श्रेष्ठ विज्ञान अर्थात् विवेक ही धर्म रथ पर आरूढ़ होकर युद्ध करने वाले योद्धा का धनुष है।

वर विज्ञान कठिन कोदंडा