नीतीश कुमार ने छोड़ा जेडीयू अध्यक्ष का पद, राज्यसभा सांसद आरसीपी सिंह बने नए पार्टी प्रमुख

आरसीपी सिंह भी नीतीश कुमार की तरह कुर्मी समुदाय से आते हैं, लंबे अरसे से नीतीश के साथ रहे हैं

Updated: Dec 28, 2020, 01:33 AM IST

Photo Courtesy : Navbharat Times
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पटना।  बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ दिया है। रविवार को हुई  जेडीयू के राष्ट्रीय परिषद की मीटिंग में नीतीश कुमार ने इस बात की औपचारिक तौर पर घोषणा कर दी। नीतीश कुमार की जगह वर्षों से उनके सहयोगी रहे राम चंद्र प्रसाद सिंह जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद संभालेंगे। आरसीपी सिंह भी नीतीश कुमार की तरह ही कुर्मी वर्ग से आते हैं।  

मैं दो पद एक साथ नहीं संभाल सकता : नीतीश 

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार नीतीश कुमार ने पार्टी के राष्ट्रीय परिषद की बैठक में कहा कि वे दो पद एक साथ नहीं संभाल सकते। लिहाज़ा वे पार्टी की कमान एआरसीपी सिंह को सौंपना चाहते हैं। इसके बाद नीतीश कुमार ने अपने सहयोगी और जेडीयू के राज्यसभा सांसद आरसीपी सिंह के समर्थन में नारे लगवा दिए। मीटिंग में मौजूद जेडीयू के तमाम नेताओं ने भी एक स्वर में नीतीश के फैसले का समर्थन कर दिया।  

नीतीश के करीबी माने जाते हैं आरसीपी सिंह 
नीतीश कुमार ने लंबे अरसे से अपने सहयोगी रहे आरसीपी सिंह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया है। आरसीपी सिंह नीतीश के करीबी माने जाते हैं। वे नीतीश कुमार के ही क्षेत्र नालंदा से आते हैं और नीतीश कुमार की जाति कुर्मी वर्ग से आते हैं। आरसीपी सिंह मौजूदा समय में जेडीयू के राज्यसभा सांसद हैं। अतीत में आरसीपी सिंह नीतीश के सेक्रेटरी भी रहे हैं।  

क्या नीतीश का मास्टर स्ट्रोक है अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ना 
राजनीतिक गलियारों में नीतीश कुमार के अध्यक्ष पद छोड़ने को उनकी रणनीति और राजनीति के सन्दर्भ में देखा जा रहा है। दरअसल नीतीश कुमार अध्यक्ष तो नहीं रहेंगे लेकिन पार्टी में उनकी पकड़ वैसी ही रहेगी। जानकारों का कहना है कि नीतीश ने इसीलिए अपने करीबी को कुर्सी पर बैठाया है ताकि वो आरसीपी सिंह का चेहरा सामने रख कर पार्टी से जुड़े फैसले ले सकें। जिससे बिहार की राजनीति में अपना स्पेस बचाने और बीजेपी की मेहरबानी से मिले मुख्यमंत्री के ओहदे को संभालकर सरकार पर अपना खोया हुआ नियंत्रण वापस पा सकें ।

कहीं 'मांझी' न साबित हो जाएं आरसीपी सिंह 
भले ही नीतीश ने पार्टी की कमान अपने सबसे करीबी के हाथ में सौंपी है। लेकिन संभावना इस बात की भी है कि कहीं आरसीपी सिंह नीतीश कुमार के लिए जीतन राम मांझी साबित न हो जाएं। दरअसल पिछले दरवाज़े से राजनीति करने की आदत काफी पुरानी रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने जेडीयू के शर्मनाक प्रदर्शन के बाद कथित तौर पर नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। नीतीश ने मुख्यमंत्री की कुर्सी जीतन राम मांझी को सौंपी। लेकिन जल्द ही नीतीश का यह दांव उल्टा पड़ गया। जीतन राम मांझी एक के बाद एक लाभकारी योजनाओं की घोषणाएं करने लगे। मांझी की बढ़ती लोकप्रियता को देख नीतीश कुमार का सिंहासन डोलने लगा। समय रहते नीतीश ने जीतन राम मांझी को पार्टी से निकाल दिया और एक बार फिर मुख्यमंत्री बन गए। ऐसे में चूंकि नीतीश कुमार अपने पिछले दरवाज़े की राजनीति के कारण गच्चा खा चुके हैं, लिहाज़ा नीतीश कुमार खुद भी हर कदम फूंक फूंक कर रख रहे हैं। 

 

कभी कुर्मी होने के कारण नीतीश कुमार को चुनाव हारना पड़ा था, आज वही नीतीश कुर्मियों के सरताज माने जाते हैं 
चूंकि नीतीश कुमार इस मर्तबा कोई रिस्क लेना नहीं चाहते इसलिए उन्होंने आरसीपी सिंह को अध्यक्ष बनाया है जो कि खुद नीतीश कुमार की जाति से ताल्लुक रखते हैं। देश में सबसे ज़्यादा अगर जाती आधारित राजनीति होती है तो वो बिहार है। बिहार के सामाजिक ताने बाने में किस कदर जाति का ज़हर घुला हुआ है। यह आप नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा से समझ सकते हैं।  

आज बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार कुर्मियों के सबसे बड़े नेता के तौर पर देखे जाते हैं। लेकिन एक ऐसा भी समय था जब नीतीश कुमार विधायक का चुनाव इसलिए हार गए थे क्योंकि वो क्षेत्र में अपनी ही जाति (कुर्मी) के लोगों के विरुद्ध खड़े थे। नीतीश कुमार को कुर्मी होकर कुर्मियों के विरोध में खड़े होने ने चुनाव हरा दिया था। इतना ही नहीं नीतीश कुमार चुनाव भी अपने उस ड्राइवर भोला प्रसाद सिंह से हारे थे, जो विवाहोपरांत नीतीश को घर तक कार में छोड़ गया था। भोला प्रसाद सिंह को उनके ससुराल वालों ने ही चुनाव में नीतीश कुमार के खिलाफ खड़ा किया था।  

दरअसल यह पूरा वाकया 1977 में हुए बहुचर्चित बेलची कांड से जुड़ा हुआ है। बेलची में कुर्मी वर्ग के कुछ लोगों ने 11 दलितों को ज़िंदा जला दिया था। इसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हाथी पर सवार होकर बेलची पहुंची थीं। उस समय आपातकाल के बाद जनता ने इंदिरा को सत्ता से देदखल कर दिया था। लेकिन बेलची में इंदिरा का पहुंचना उनकी राजनीति का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। देश की नज़रों में अचानक से विलेन बनीं इंदिरा गांधी एक बार फिर हीरो बन गईं। लेकिन उसी क्षेत्र में एक और व्यक्ति था जो इंदिरा जैसी ही बातें कर रहा था।वो कोई और नहीं खुद नीतीश कुमार थे। 

दरअसल बेलची गाँव हरनौत विधानसभा के अंतर्गत आता है। नीतीश इसी सीट पर विधायक का चुनाव पहली बार लड़ रहे थे। जब बेलची में दलितों की नृशंस हत्या हुई। पत्रकार संकर्षण ठाकुर अपनी किताब बिहारी ब्रदर्स में लिखते हैं, उस पूरे घटनाक्रम के सामने आने के बाद क्षेत्र में जातीय विभेद अपने चरम पर  पहुंच गया था। बेलची काण्ड में कुर्मियों का नाम बार बार घसीटे जाने पर क्षेत्र के कुर्मी वर्ग से आने वाले लोगों ने इसे अपने अस्तित्व पर हुए आक्रमण के तौर पर लिया था। कुर्मियों ने दलितों के खिलाफ कमान कस ली थी। लेकिन नीतीश कुमार अपने पूरे प्रचार के दौरान दलितों के पक्ष में खड़े रहे। नीतीश से उनके ससुराल वाले इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने ही नीतीश के खिलाफ भोला प्रसाद सिंह नाम के एक आदमी को खड़ा कर दिया। नीतीश चुनाव बुरी तरह से हार गए। इसके बाद नीतीश कुमार 1980 में एक बार फिर चुनाव में खड़े हुए। इस बार अरुण कुमार सिंह नामक व्यक्ति ने नीतीश कुमार को मात दे दी। नीतीश कुमार चुनाव सिर्फ इस कारण से हारे थे कि नीतीश कुर्मी होने के बावजूद कुर्मियों के समर्थन में नहीं खड़े थे। 

लेकिन विडंबना यह है कि 1994 में जब नीतीश कुमार जॉर्ज फर्नांडिस के साथ लालू की पार्टी जनता दल से बाहर हुए। उस समय एक प्रमुख कारण यह माना गया कि चूंकि लालू की पार्टी में यादवों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है, इसलिए दूसरी पिछड़ी जाति खासकर कुर्मी वर्ग को पार्टी में प्रॉपर स्पेस नहीं मिल रहा है। नीतीश कुमार ने लालू से अपना नाता कुर्मियों के ही किसी सम्मेलन या रैली में तोड़ा था। एक समय था जब नीतीश कुमार अपनी जी जाति के लोगों के खिलाफ खड़े होने के कारण चुनाव हार गए। एक समय ऐसा आया जब नीतीश सत्ताधारी पार्टी में होने के बावजूद पार्टी को इसलिए छोड़ गए क्योंकि वहां उनकी जाति के लोगों को स्पेस नहीं मिल रहा था। 

आरसीपी सिंह की नियुक्ति या उनके नीतीश के करीबी होने में कितना योगदान दोनों की जाति का होगा यह तो खैर नीतीश और आरसीपी सिंह ही बेहतर जानते होंगे। लेकिन नीतीश की यह राजनीतिक यात्रा अपने आप में बिहार की जाति आधारित राजनीति को लेकर अपने आप में बहुत कुछ बयां कर जाती है।