अमित शाह का कबूलनामा : चोर कोतवाल को कोसे, फरियादी को डाँटे

कोरोना को लूट और तानाशाही का अवसर बताने वाले हुक्मरान भूल रहे हैं कि जनता की शक्ति ही सबसे बड़ा निर्णायक सत्य है।

Publish: Jun 19, 2020, 03:01 AM IST

महामारी के भीषण और बेलगाम होते हुए देश भर में तेजी से फैलने और अगले कुछ महीनों की चिंताजनक आशंकाओं के बीच भाजपा ने अपना चुनावप्रचार पूरी जोर शोर से शुरू कर दिया। पार्टी नेतृत्‍व में दो नंबर पर की स्थिति पर माने जाने वाले पूर्व राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष अमित शाह घर बैठे हजारों एलईडी स्क्रीन्स के जरिये बिहार और ओड़िसा की प्रजा से वोट मांग रहे हैं। उस प्रजा से भाजपा का साथ देने की अपील कर रहे हैं जो उसी की नाकामियों की वजह से कोरोना वायरस और लॉकडाउन के दो पाटों के बीच खुद को बचाने की जी-तोड़ कोशिशों में लगी है; किसी सहारे या मदद की उम्मीद के बिना।

पुछल्ले मीडिया और फूट व बांट कर राज करने के पोटली भर नुस्खों और शिगूफों के बावजूद उन्हें पता है कि जन-आक्रोश कितना तीखा है। जमीन पर धधकती गुस्से की आग की तपिश महसूस होने लगी है। उसे ठंडा करने के लिए गलतियां मानने का अभिनय करना पड़ रहा है मगर उसका अंदाज भी रंगे हाथों पकड़ा चोर कोतवाल को कोसे-फरियादी को डाँटे की तरह है। सैकड़ों करोड़ फूँककर हजारों एलईडी लगाकर की गई बिहार और ओड़िसा की आभासीय रैलियों में बोलते हुए अमित शाह ने फ़रमाया कि "हमारी तो कहीं चूक भी हुयी होंगी पर हमारी निष्ठा बरोबर थी, हमसे गलती हुयी होंगी, हम कहीं कम पड़ गए होंगे, कुछ नहीं कर पाए होंगे, मगर विपक्ष ने क्या किया इसका हिसाब जनता को दें ज़रा... नरेन्द्र मोदी सरकार ने तो जैसे ही कोरोना की आफत आयी देश के 60 करोड़ लोगों के लिए 170000 करोड़ का पैकेज दे दिया, विपक्ष ने क्या किया?"

इसके पीछे के लॉजिक पर चर्चा करना इस कहे से भी ज्यादा बड़ी मूर्खता का काम होगा। मगर इसे नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता क्योंकि ठीक इसी तरह का तर्जे बयां सुप्रीम कोर्ट में प्रवासी मजदूरों के महापलायन को लेकर दायर की गयी जनहित याचिका पर हुयी सुनवाई के दौरान मोदी सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का था।  उन्होंने सरकार द्वारा अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट में दिए झूठे हलफनामे कि "अब सड़कों पर कोई नहीं है सारे प्रवासी श्रमिक घर पहुँच चुके है" के लिए माफी मांगने और सरकार द्वारा इनकी सुरक्षित वापसी सुनिश्चित करने में विफलता पर खेद जताने की बजाय भरी अदालत में याचिकाकर्ता वकीलों से ही सवाल पूछ डाला कि उन्होंने इन प्रवासी मजदूरों के लिए क्या किया! इस सवाल पर सरकारी वकील को यह याद नहीं दिलाया गया कि भैय्ये करने का जिम्मा, संसाधन और शक्तियां सरकार के पास होती हैं। वकीलों या नागरिकों या विपक्षी दलों के पास नहीं।

बीच आपदा में चुनाव प्रचार और उसमे इस तरह की ढीठ मसखरी असभ्यता भर नहीं है निर्मम तानाशाहों की बर्बरता है। ज्योति बसु ने भाजपा को बर्बर पार्टी कहा था। जब अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमन्त्री थे तो उन्होंने एक मुलाक़ात में ज्योति बाबू से पूछा कि आप भाजपा को बर्बर क्यों कहते हैं? ज्योति बाबू ने कहा "ऐतिहासिक इमारतों, दूसरों के धर्मस्थलों को तोड़ने और हजारों लोगो को मार डालने वालो के लिए सभ्य समाज में एक ही शब्द है- बर्बर। आप इसकी जगह कोई दूसरा शब्द बता दें, हम उसे बोलने लगेंगे।"

वाजपेई थोड़ी देर तक चुप रहे।

ज्योति बाबू ने कहा - "ठीक है, आपको बाद में भी कोई शब्द सूझ जाए तो बता दीजियेगा।"

ज्योति बाबू ताउम्र इंतज़ार करते रहे, वाजपेई उन्हें कोई उचित शब्द नहीं बता पाए। मोदी-अमित शाह की भाजपा ने अपनी इसी बर्बरता को नयी ऊंचाई पर पहुंचाया है। कोरोना की संक्रामकता के मामले में ही भारत अमरीका और ब्राजील से होड़ नहीं कर रहा, जनता और मनुष्यता के प्रति हिकारत के मामले में भी मोदी-शाह अपने "अभिन्न मित्रों" डोनाल्ड ट्रम्प और जैर बोलसानारो के साथ जुगलबंदी में पीछे नहीं रह रहे।

उधर, मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह ने आधुनिक गीतोपदेश देकर सरकारें गिराने के धतकरम-जिसके चलते वे चुनाव में जनता द्वारा ठुकराए जाने के बाद भी कुर्सी पर आ बैठे हैं उस खरीद फरोख्त को धर्म का काम करार दे दिया है। इसके पहले वायरल हुए एक ऑडियो में वे कबूल कर चुके थे कि मध्यप्रदेश की सरकार अपने राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ मिलकर गिराई गयी थी। अब तक भाजपा सरकार गिरने का कारण कांग्रेस की आपसी कलह बताती रही थी, मगर अब मान लिया है कि इस उठाई धराई के खेल के सूत्रधार खुद मोदी और अमित शाह थे। जब दुनिया कोरोना के फैलाव को रोकने में लगी थी भाजपा सरकारें गिराने के पुण्य और धर्म के काम में मशगूल थी। अब जब सारे अनुमानों को धता बताकर कोविद-19 बिजली की रफ़्तार से पूरे देश को चपेट में ले रहा है, लॉकडाउन के असर ने तीन चौथाई आबादी को भुखमरी और अनिश्चितता की ओर धकेल दिया है तब अमित शाह बिहार ओड़िसा में चुनावी रैली कर रहे हैं और गुजरात में लोकतंत्र के पिण्डदान के बाद राजस्थान, महाराष्ट्र की चुनी हुयी सरकारें गिराने के लिए कारपोरेट के पाँसे हाथ में लिए दलबदल की चौसर सजा रहे हैं।

कोरोना को लूट और तानाशाही का अवसर बताने वाले युद्द और महामारी में कमाई का अवसर तलाशने वाले हुक्मरान भूल रहे हैं कि सब कुछ उनके चाहने से नहीं होता - जनता की शक्ति ही सबसे बड़ा निर्णायक सत्य है। सही समय पर कारगर हस्तक्षेप हो तो युद्द और महामारियों के बीच शासकों का टाट उलटा भी जा सकता है। दुनिया के अनेक युगांतकारी बदलाव इसके उदाहरण हैं, यह लाजिमी भी है क्यूँकि कठिन से कठिन आशंकाओं वाले हालात भी बेहतर से बेहतरतम संभावनाओं से भरे होते है।