Cheetah is Back: इतिहास रच दिया, चिंता है इतिहास खुद को दोहराए नहीं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने जन्मदिन के मौके पर तीन चीतों को कूनो नेशनल पार्क में छोड़ा और एक इतिहास रच दिया। अब चीता प्रोजेक्ट के ‘जिंदा’ रहने की चिंता है। चीता के खत्म होने से भारत के घास के मैदानी क्षेत्र की ईकोलॉजी बुरी तरह बिगड़ी है। खुशी है कि चीता की वापसी से फुड चेन कायम की जा सकेगी। इस खुशी की बेला में आशंका का कुहांसा भी है। बिग कैट यानी बिल्ली वर्ग के इस सबसे नाजुक प्रकृति के प्राणी के लिए मुफीद वातावरण तैयार करना उतना मुश्किल नहीं है जितना दुरूह इसे मौत की परिस्थितियों से बचाना है।
आज मध्य प्रदेश ही नहीं समूचे देश के लिए ऐतिहासिक दिन है। वह दिन जब करीब सात दशक बाद भारत में चीतों का आगमन हुआ है। अब हम ‘टाइगर इज बैक’ कहे या न कहे लेकिन ‘चीता इज बैक’ तो कह ही सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने जन्मदिन के मौके पर तीन चीतों को कूनो नेशनल पार्क में छोड़ा और एक इतिहास रच दिया। अब चीता प्रोजेक्ट के ‘जिंदा’ रहने की चिंता है। चीता के खत्म होने से भारत के घास के मैदानी क्षेत्र की ईकोलॉजी बुरी तरह बिगड़ी है। खुशी है कि चीता की वापसी से फुड चेन कायम की जा सकेगी। इस खुशी की बेला में आशंका का कुहांसा भी है। बिग कैट यानी बिल्ली वर्ग के इस सबसे नाजुक प्रकृति के प्राणी के लिए मुफीद वातावरण तैयार करना उतना मुश्किल नहीं है जितना दुरूह इसे मौत की परिस्थितियों से बचाना है।
भारत सरकार ने आधिकारिक तौर पर 1952 में चीता को देश में विलुप्त घोषित किया था। माना जाता है कि इसके पहले देश में करीब 1000 चीते थे। मध्य प्रदेश के सरगूजा (अब छत्तीसगढ़ में) के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने 1947 में देश के अंतिम तीन चीतों को मार डाला था। उसके बाद से देश में चीता देखा नहीं गया। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध तथ्य बताते हैं कि 70 के दशक में ईरान से एशियाई चीतों को भारत लाने का प्रयास किया गया था। वर्ष 2000 में हैदराबाद में 'सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी' ने ईरान से एशियाई चीतों का क्लोन बनाने का प्रस्ताव रखा, लेकिन यह प्रस्ताव भी असफल रहा। फिर केंद्र सरकार के निर्देश पर वर्ष 2009 में देहरादून में 'इंडियन वाइल्ड लाइफ सोसाइटी' और 'वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया' ने चीते को अफ्रीका से भारत लाने का प्रस्ताव तैयार किया।
वर्ष 2009 में भी चीता आयात करने के निर्णय का विरोध हुआ था। तब वर्ष 2012 में यह विवाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था। इस बीच मध्य प्रदेश के कूनो में गुजरात से एशियाई सिंह यानी लायन लाने की तैयारी पूरी हो चुकी थी। गुजरात की अस्मिता से शेर को जोड़ दिए जाने की राजनीति का परिणाम यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी 2013 से अब तक गुजरात सरकार ने मध्य प्रदेश को सिंह लाने की इजाजत नहीं दी। वर्ष 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को विदेश से चीता लाने की अनुमति दी तो सिंह के लिए तैयार कूनो को चीता पुनर्वास के लिए उपयुक्त पाया गया। कूनो में चीता ला कर सिंह के पुनर्वास की तैयारी पर किए गए खर्च और सिंह को न भेजने से उपजे दाग को कम करने का प्रयत्न किया गया है।
वैसे, चीता पुनर्वास के लिए भारत सरकार की मंशा ईरान से एशियाई चीतों को लाने की थी। अभी ईरान के पास लगभग 20 एशियाई चीते ही बचे हैं और इस कारण उसने भारत का आग्रह नहीं माना। ईरान के इंकार के बाद सरकार ने अफ्रीका की तरफ देखा। अफ्रीका में लगभग 7 हजार चीते हैं। 12 साल से अधिक की बातचीत के बाद नामीबिया अगले पांच सालों में 50 चीते भारत भेजने के लिए राजी हो गया है। नामीबिया से भारत लाए गए चीतों पर पांच सालों में कुल 75 करोड़ रुपए खर्च होंगे। इसके लिए इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन और पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के बीच अनुबंध हुआ है।
अफ्रीका महाद्वीप से चीतों को लाकर रक्षित करने का प्रयोग पूर्वी अफ्रीकी देश मलावी में सफल रहा है। वहां 1980 के दशक के अंत तक चीता विलुप्त हो गया था। वर्ष 2017 में दक्षिण अफ्रीका से चार चीतों को मलावी में लाया गया था। अब वहां 24 चीते हैं। इसी प्रयोग से प्रेरित होकर चीतों को अफ्रीका महाद्वीप से भारत लाने का निर्णय लिया गया है। भारत में चीता संरक्षण के लिए कई जगहों का चयन किया गया है। चीतों को रखने के लिए उपयुक्त स्थानों में गुरु घासीदास नेशनल पार्क छत्तीसगढ़, बन्नी ग्रासलैंड्स गुजरात, डुबरी वाइल्डलाइफ सेंचुरी, संजय नेशनल पार्क, बागडारा वाइल्ड लाइफ सेंचुरी, नौरादेही वाइल्ड लाइफ सेंचुरी और कूनो नेशनल पार्क मध्यप्रदेश, डेजर्ट नेशनल पार्क वाइल्ड लाइफ सेंचुरी, शाहगढ़ ग्रासलैंड्स राजस्थान और कैमूर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी उत्तर प्रदेश शामिल हैं। चीता प्रोजेक्ट के तहत पहले चरण में आठ चीतों को मध्य प्रदेश के मिश्रित वन और घास के मैदान के 730 वर्ग किलोमीटर में फैले कूनो पार्क में लाया गया है। इसके बाद अगले चरण में मध्य प्रदेश के नौरादेही वन्यजीव अभयारण्य और राजस्थान के जैसलमेर जिले के शाहगंज में भी चीतों को लाया जाएगा।
वैसे देश में चीता की वापसी 2011 से कर्नाटक के मैसूर शहर के श्री चमाराजेंद्र जूलॉजिकल पार्क में हुई थी। यहां जर्मनी से लाए गए चार चीता की मौत हो चुकी है। फिर 2020 में अफ्रीका से चीते लाए गए। इन 1 नर और 2 मादा चीतों को बाड़े में रखा गया है। आज उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। मैसूर में बाड़े में चीता रखने के प्रयोग के विपरीत कूनो में चीते को अपने प्राकृतिक आवास घास के मैदान में रखा गया है।
एक तरफ यह उम्मीद है कि चीतों को कूनो में उन परेशानियों का जिनका सामना नहीं करना पड़ेगा जो वे मैसूर के बाड़ों या पिंजड़े में कर रहे हैं। लेकिन घास के मैदान वैसे नहीं है जैस बरसों पहले हुआ करते थे या अफ्रीकी देशों में अभी है। यही कारण है कि भारत में चीता आने के बाद चीतों के संरक्षण और पुनर्वास को लेकर संदेह गहरा गया है। खासकर तब जब देश में चीते का परंपरागत आवास घास के मैदान सिमट रहे हैं। चीता बिग कैट फैमिली का सबसे तेज रफ्तार जानवर है। तीन सेकंड में 100 किमी प्रति घंटे तक की रफ्तार हासिल कर लेता है। यह सवाल उठ रहे हैं कि अफ्रीकी महाद्वीप के लंबे-लंबे घास के मैदानों में फर्राटा भरने वाले चीते भारत के माहौल में कैसे ढलेंगे? घास के बड़े मैदानों के बिना चीतों के संरक्षण और पुनर्वास की योजना कैसे संचालित की जा सकती है?
चीता दहाड़ नहीं सकता है
चीता बिग कैट फैमिली का अकेला ऐसा सदस्य है जो दहाड़ नहीं सकता। वह सिर्फ गुर्राता है। 96 प्रतिशत शावक बड़े होने से पहले ही मर जाते हैं। तेंदुआ, जंगली कुत्ते सहित अन्य जानवर चीते के बच्चों का शिकार कर लेते हैं। पारिस्थिति असंतुलन, नाजुक प्रकृति और ऐसे अन्य कारणों के चलते चीता के बच्चों के जिंदा रहने की दर 36 फीसदी के आसपास ही है। यही कारण है कि कूनो से सारे तेंदुओं को हटाया गया है। यहां उनके खाने की कमी को दूर करने के लिए चीतल लाए गए हैं। पेंच नेशनल पार्क को कुल 500 चीतल कूनो में शिफ्ट करने का टारगेट दिया गया है। चीतों के आगमन के बाद सांभर हिरणों के झुंड को छोड़ा जाएगा।
वहीं, कई विशेषज्ञों का आरोप है कि वन्यजीवों और पक्षियों के संरक्षण या पुनर्वास को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता है। हमने जब वन्यप्राणी विशेषज्ञों से बात कि तो उन्होंने चीता के आहार को लेकर बड़ी आशंका व्यक्त की है। विशेषज्ञों का कहना है कि चीता का जीवन चक्र उनके दौड़ने पर निर्भर करता है। जितना तेज वह दौड़ता है उसका पसंदीदा शिकार सांभर, ब्लैक बक आदि तेजी से भागते हैं। जबकि चीतल कम गति से भागता है। उसे शिकार करने में चीता को अधिक मेहनत नहीं करनी होगी। ऐसे में मात्र 12 किलोमीटर के बाड़े में रहना उसके लिए अनुकूल नहीं होगा। चीतों के लिए चीतल का शिकार करना नया अनुभव होगा क्योंकि चीतल अफ्रीका में नहीं पाए जाते हैं।
इस बात की फिक्र है कि नामीबिया के और भारत के जंगलों और जानवरों दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। बाघ को बचाने के तमाम उपायों के बाद भी टाइगर स्टेट में बाघों का शिकार आम बात है। इस कारण स्थानीय जानवर और फिर भारत का मौसम भी चीतों के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है। मानव-वन्यजीवों के बीच बढ़ता संघर्ष और चीतों के लिए भोजन की अनुपलब्धता जैसे कारणों के चलते इस दिशा में कई स्तरों पर चुनौतीपूर्ण स्थितियां बनी हुई हैं।
चीता संरक्षण के लिए बनाई गई कार्य योजना में कहा गया है कि यदि पांच वर्ष की अवधि के दौरान चीता जीवित रहने या प्रजनन करने में विफल रहते हैं तो ऐसी स्थिति में एक वैकल्पिक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा या फिर पूरे कार्यक्रम की ही समीक्षा की जा सकती है। यदि लगा कि कार्यक्रम बंद किया जा सकता है तो कार्यक्रम को बंद कर दिया जाएगा।
चीतों को भारत लाए जाने के मुद्दे पर केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा है कि चीतों को भारत लाना उन गलतियों को सुधारने की दिशा में एक कदम है, जिनकी वजह से कभी भारत में यह जीव विलुप्त हो गए थे। पिछले कुछ सालों में भारत ने शेर, एशियाई हाथी, घड़ियाल और एक सींग वाले गैंडे जैसे विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके कई प्राणियों को बचाया है। उन्होंने कहा कि चीतों को भारत लाना देश में ऐतिहासिक विकासवादी संतुलन को बनाए रखने की ओर अहम कदम साबित होगा।
हम उम्मीद भी यही करते हैं कि यह प्रयास सफल हों मगर वन्य प्राणी विशेषज्ञों की चिंताओं को नजरअंदाज करने से बात नहीं बनेगी। अगर इन चिंताओं का निराकरण नहीं किया गया तो देश के चीता विहीन होने का इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराएगा।