मोदी जी, मन की बातों से नहीं मिटेगी मंदी, ज़रा इकॉनमी के आंकड़ों का दर्द भी सुन लीजिए

First Advance Estimates By NSO: पहले एडवांस एस्टिमेट्स के मुताबिक देश में जारी है मंदी की मार, चालू कारोबारी साल में देश की जीडीपी में 7.7 फीसदी की गिरावट आ सकती है

Updated: Jan 08, 2021, 04:09 AM IST

Photo Courtesy : Scroll.in
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हमारे प्रधानमंत्री के भाषण बड़े सुहावने होते हैं। खूब रंग-बिरंगे, इंद्रधनुषी सपने दिखाने वाले। देश के विकास के जितने सपने उन्होंने पिछले साढ़े छह साल में देश को दिखाए हैं, अगर उसके आधे भी सच हो जाते तो देश में कहीं क्योटो, कहीं शंघाई तो कहीं सिंगापुर की समृद्धि नज़र आ रही होती। हम वाक़ई दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताक़त बन गए होते। लेकिन प्रधानमंत्री और उनके समर्थक भले ही उनके मन की इन सपनीली बातों को हक़ीक़त मानकर झूमने को तैयार हों, ख़ुद उनकी सरकार के आँकड़े इन सपनों में सूराख करने पर आमादा हैं। भारत सरकार के आँकड़ों का हिसाब किताब रखने वाले नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (NSO) के ताज़ा अनुमान महामंदी का ऐसा मंज़र बयान कर रहे हैं, जिसे सामने रखकर देश की माली हालत के बारे में कोई खूबसूरत ख़्वाब बुनना संभव नहीं। हां, डरावना सपना देश की चिंता करने वालों की नींद ज़रूर उड़ा सकता है।

देश की चिंता करने वालों की नींद उड़ाने वाले आँकड़े

NSO ने देश की सालाना आर्थिक विकास दर के जो पहले एडवांस एस्टिमेट गुरुवार को जारी किए हैं, उनके मुताबिक़ वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान हमारी सालाना आर्थिक विकास दर निगेटिव ही रहने वाली है, वो भी क़रीब 7.7 फ़ीसदी। कुछ ही दिनों पहले RBI यानी रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने इसी वित्त वर्ष के दौरान जीडीपी में 7.5 फ़ीसदी की गिरावट का अनुमान ज़ाहिर किया था, जबकि विश्व बैंक क़रीब 9.6 फ़ीसदी की गिरावट की आशंका लेकर चल रहा है। बहरहाल, इन तमाम अनुमानों में देश की माली हालत संकट में घिरी हुई ही नज़र आ रही है। हाँ, किसी में संकट कुछ कम है तो किसी में थोड़ा ज़्यादा।

आसान शब्दों में कहें तो सभी मान रहे हैं कि गुज़रे एक साल में देश की आय बढ़ने की जगह घटने वाली है। हम-आप, यानी देश के अधिकांश लोगों के साथ पिछले एक साल में ऐसा ही हुआ है, इसलिए हम अच्छी तरह समझ सकते हैं कि इसका मतलब क्या है। हाँ, इतना ज़रूर ध्यान रहे कि देश की आय में जितनी गिरावट कुल मिलाकर दिखाई दे रही है, यानी देश की जेब जितनी कटी है, उसमें आम लोगों का हिस्सा औसत से ज़्यादा ही होगा। क्यों? ऐसा इसलिए, क्योंकि महामंदी के इस दौर में भी देश के कुछ चहेते उद्योगपति ऐसे हैं, जिनकी कमाई दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ी है। तो उनके मालामाल होने के बावजूद अगर देश की कुल आमदनी घटी है, तो ज़ाहिर है गिरावट का दर्द बाक़ी लोगों के हिस्से में ही ज़्यादा आएगा न! ये तो हुई बात देश की कुल कमाई में होने वाली कटौती के अनुमान की। अब आइए ये भी देख लेते हैं कि ये कमाई कहां-कहां कितनी घट रही है।

किस सेक्टर का क्या है हाल

सरकारी अनुमान बता रहे हैं कि 2019-20 के मुक़ाबले 2020-21 में जिस सेक्टर में सबसे ज़्यादा 21.4 फ़ीसदी की गिरावट आने की आशंका है, वो है ट्रेड, होटल, ट्रांसपोर्ट, कम्युनिकेशन और ब्रॉडकास्टिंग से जुड़ी सेवाएँ। 2019-20 के दौरान इस क्षेत्र में 3.6 फ़ीसदी की वृद्धि देखने को मिली थी।

इसके बाद सबसे ज़्यादा 12.6 फ़ीसदी की गिरावट कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में और 12.4 फ़ीसदी गिरावट माइनिंग के क्षेत्र में आने की आशंका हैं। चिंता बढ़ाने वाली बात यह है कि इन दोनों ही क्षेत्रों में इसके पिछले साल भी हालात अच्छे नहीं रहे थे। 2019-20 में कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री में महज़ 1.3 फ़ीसदी की बेहद मामूली ग्रोथ दर्ज की गई थी, जबकि माइनिंग में ये दर 3.1 फ़ीसदी रही थी।

दो साल से ख़स्ता हाल मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर

इसी तरह देश की इकॉनमी, ख़ास तौर पर रोज़गार में, काफी अहम योगदान करने वाले मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की हालत भी अच्छी नहीं है। इस क्षेत्र में इस साल 9.4 फ़ीसदी की गिरावट आने की आशंका है। फ़िक्र इस बात की भी करनी चाहिए कि पिछले वित्त वर्ष (2019-20) में भी मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की ग्रोथ 0.03 फ़ीसदी यानी न के बराबर ही रही थी। इसका मतलब ये हुआ कि इकॉनमी के इस बेहद अहम सेक्टर के लिए एक नहीं, बल्कि लगातार दो साल बढ़ती बदहाली के साबित हो रहे हैं।

अर्थव्यवस्था के 8 में 6 सेक्टर्स का बुरा हाल

इकॉनमी के बाक़ी क्षेत्रों की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है। आर्थिक विकास दर के अनुमानों को NSO ने जिन 8 सेक्टर्स में बाँट कर पेश किया है, उनमें से 6 में गिरावट ही गिरावट दिखाई दे रही है। कृषि के अलावा सिर्फ़ बिजली, पानी, गैस और अन्य उपयोगी सेवाओं का क्षेत्र ही ऐसा है, जिसमें पिछले वित्त वर्ष के मुक़ाबले कुछ बढ़त दिखाई दे रही है। कृषि क्षेत्र इस साल 3.4 फ़ीसदी की रफ़्तार से बढ़ता दिख रहा है, जबकि पिछले साल इसमें 4 फ़ीसदी की ग्रोथ देखने को मिली थी। इसी तरह बिजली, पानी, गैस और अन्य उपयोगी सेवाओं के क्षेत्र में पिछले साल 4.1 फ़ीसदी बढ़त हुई थी, जबकि इस साल यह क्षेत्र 2.7 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हासिल कर सकता है।

लेकिन अर्थव्यवस्था के आठ में से छह सेक्टर जब गिरावट की राह पर हों, तो भला दो सेक्टर्स की मामूली ग्रोथ इकॉनमी को कितना सँभाल पाएगी? उस पर भी मुश्किल दौर में देश की इक़ॉनमी को सहारा देने वाला अन्नदाता पिछले डेढ़ महीने से जिस तरह परेशान और आंदोलित है, उसका क्या असर आने वाले दिनों में कृषि की विकास दर पर पड़ेगा, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है।

लगता है यहां भी हार्वर्ड पर हार्ड वर्क भारी है!

अब बात करते हैं कोरोना महामारी से निपटने के लिए ताली, थाली, दिये, पुष्पवर्षा और चार घंटे के नोटिस पर पूरे देश को तालाबंदी में धकेलने जैसे महान कदम उठाने वाली हमारी शानदार सरकार के बेमिसाल प्रदर्शन की! बीस लाख करोड़ के कथित स्टिमुलस पैकेज का एलान करके अपनी पीठ थपथपाने वाली सरकार ने दरअसल 2021 के पूरे कारोबारी साल के दौरान अपने फ़ाइनल कंजप्शन एक्सपेंडीचर (Government Final Consumption Expenditure - GFCE) में सिर्फ 5.8 फीसदी का इजाफा किया है, जो पिछले 7 साल में सबसे कम है। एक ऐसे वक्त में जब इकॉनमी को मंदी से उबारने के लिए सरकार को अपना खर्च बढ़ाने की ज़रूरत है, ऐसी कंजूसी का मतलब बड़े-बड़े अर्थशास्त्री समझ नहीं पा रहे हैं। लगता है यहां भी हार्वर्ड पर हार्ड वर्क भारी पड़ गया है!

एक हाथ का पैसा दूसरे हाथ में रखने से नहीं बनेगी बात

एक दिलचस्प बात यह भी है कि सरकार के कुल खर्च में मामूली ही सही इज़ाफ़ा होने के बावजूद पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, डिफेंस और अन्य सेवाओं के क्षेत्र में इस साल 3.7 फीसदी की गिरावट दिखाई दे रही है। जबकि इस सेक्टर में करीब 40 फीसदी योगदान सरकारी खर्च का ही होता है। जानकारों की राय में ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि सरकार ने खर्च में जो बढ़ोतरी की है, उसमें भी अर्थव्यवस्था में वैल्यू एडिशन यानी सार्थक योगदान करने वाले व्यय का हिस्सा कम और ट्रांसफ़र पेमेंट यानी एक हाथ का पैसा दूसरे हाथ में रखने वाला दिखावटी खर्च ज्यादा है।

NSO की तरफ़ से जारी आँकड़े यह भी बताते हैं कि 2020-21 के दौरान प्राइवेट कंजंप्शन एक्सपेंडिचर यानी निजी क्षेत्र में उपभोग पर होने वाले खर्च में 5.6 फ़ीसदी की गिरावट आ रही है, जबकि ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन यानी पूँजीगत निर्माण पर होने वाला व्यय भी 13.6 फ़ीसदी घटता नज़र आ रहा है। इन दोनों ही बातों का बुरा असर भविष्य की ग्रोथ रेट पर पड़ने की आशंका है। लोगों की घटती कमाई और उसके कारण माँग में आई गिरावट इसकी बड़ी वजह लगती है। इससे यह भी पता चलता है कि हाल ही में त्योहारों के सीज़न के दौरान माँग में जो बढ़ोतरी देखी गई थी, उसमें कृषि आय पर निर्भर ग्रामीण माँग का बड़ा हाथ था, लेकिन शहरी इलाक़ों की माँग में आई भारी कमी की भरपाई सिर्फ़ इसके ज़रिये नहीं की जा सकती।

NSO की ‘वैधानिक चेतावनी’ बनाम रंगीला बाइस्कोप

इन आँकड़ों के साथ ही NSO ने एक ‘वैधानिक चेतावनी’ भी जारी कर दी है!  और वो ये कि लॉकडाउन के कारण इस साल सही आँकड़े जुटाना भी एक मुश्किल और चुनौती भरा काम रहा है। लिहाज़ा तमाम सावधानियों के बावजूद इन अनुमानों और असली आँकड़ों के बीच भारी अंतर देखने को मिल सकता है। संस्था ने लोगों को इन आँकड़ों का अर्थ लगाते समय इस बात को ध्यान में रखने की हिदायत भी दी है। अब सवाल यह है कि आँकड़ों में इस संभावित भारी अंतर की दिशा क्या हो सकती है? क्या संशोधित आँकड़े इकॉनमी की अभी के मुक़ाबले बेहतर तस्वीर पेश करेंगे या और हालात और बिगड़े हुए नज़र आएँगे?

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के ग्रुप चीफ़ इकनॉमिक एडवाइज़र सौम्य कांति घोष मानते हैं कि मौजूदा आँकड़ों की शेल्फ लाइफ़ दो महीने से ज़्यादा नहीं है। उनका मानना है कि फ़रवरी और मई में जब संशोधित अनुमान जारी होंगे तो आँकड़े अर्थव्यवस्था में अब से भी ज़्यादा गिरावट की तस्वीर पेश करेंगे। यानी आर्थिक आँकड़ों से जुड़े तमाम संकेत और अनुमान आने वाले दिनों में देश की माली हालत संभलने की बजाय और बिगड़ने की आशंका ही ज़ाहिर कर रहे हैं। हाँ, उम्मीद की एक ख़ुशनुमा तस्वीर चाहें तो आप भी देखने की कोशिश कर सकते हैं। शर्त सिर्फ़ ये है कि ये तस्वीर देखने के लिए आपको वास्तविकता के धरातल को भुलाकर सपनों के उस रंगीले बाइस्कोप में खो जाना होगा जो प्रधानमंत्री अपने भाषणों के ज़रिए दिखाते हैं! सोच लीजिए, क्या आप इसके लिए तैयार हैं?