विध्वंस: केदारनाथ से वायनाड तक बरास्ता दिल्ली

आज पूरे भारत में जो घट रहा है, वह वास्तव में ऐसी विनाश लीला है, जिसे हमने स्वयं रचा है। पहाड़, तराई, पठार, रेगिस्तान आपस में गुथे हुए हैं और वह पर्यावरण ही है जो इनको गुथने का कार्य करता है। याद रखिए पर्यावरण बचेगा तो ही हम बचेंगे।

Updated: Aug 04, 2024, 09:05 AM IST

“इस महान बादल की तरह ही
ईश्वर इस संसार में प्रकट होते हैं,
सभी शुष्क जीवात्माओं पर समृद्धि बरसाने के लिए, 
ईश्वर को मानने वाले सभी, 
बादल की तरह उदार हों,”
गौतम बुद्ध

अजीब बात है कि हम विकास के नाम पर हिमालय से लेकर पश्चिमी घाट तक के नाजुक भौगोलिक परिस्थिति को घने जंगलों को काटकर, डायनामाईट लगाकर पहाड़ों को ध्वस्त कर सड़कें, बांध, नहर, सुरंग बना रहे हैं। गाँव और शहर बसा रहे हैं। बर्फीले हिमालय में कृत्रिम बर्फ के मैदान भी बना रहे हैं। पश्चिमी घाट में वायनाड में बेतहाशा खनन कर रहे हैं। दोनों महान पर्वत श्रंखलाओं के जंगलों को नष्ट कर रहे हैं और दूसरी तरफ दिल्ली जैसे शहरों को कांक्रीट के जंगलों में बदल रहे हैं। 

परंतु इन दोनों ही परिस्थितियों का जो प्रतिफल मिल रहा है, वह बादलों के फटने के रूप में सामने आ रहा है। हम बादलों को दोषी ठहरा रहे हैं। हमें यह स्वीकारते हुए बात को आगे बढ़ाना होगा कि प्राकृतिक दुर्घटनाओं से होने वाली प्रत्येक मौत बेहद दुखद होती है। परंतु हम दिल्ली में तीन मासूम युवाओं की मृत्यु को लेकर जितने मुखर और दुखी नजर आ रहे हैं, शायद उतनी मुखरता से हिमालय और वायनाड को लेकर नजर नहीं आते। धुर उत्तर में जहां हिमालय और केदारनाथ स्थित हैं वहां दक्षिणपंथी भाजपा की सरकार है और वहीँ एक अन्य बेहद प्रभावित राज्य हिमाचल प्रदेश है, जहां कांग्रेस की सरकार है। दक्षिण जहां पश्चिमी घाट और वायनाड स्थित है, वहां वामपंथी कम्युनिस्ट सरकार है। इन सबके बीच में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली स्थित है, जहां आम आदमी पार्टी की सरकार है, लेकिन प्रशासन पूरी तरह से उपराज्यपाल के माध्यम से केन्द्र सरकार के साथ में है।

दु:खद से ज्यादा भयानक बात यह है कि पर्यावरण को लेकर चारों सरकारों का रवैया कमोवेश एक सा है। वैसे अब सर्वोच्च न्यायलय भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। हिमालय को लेकर विशेषज्ञ पिछले तीन दशकों से लगातार चेता रहे हैं और पश्चिमी घाट को लेकर डा. माधव गाडगिल समिति को अपनी रिपोर्ट दिए 12 साल से ज्यादा हो गए, परंतु संभवतः उस पर विचार कर क्रियान्वयन करना तो दूर की बात है, उसे खोलकर गंभीरता से पढ़ा तक नहीं गया होगा। और दिल्ली! वहां की बात ही कुछ और है। सेन्ट्रल विस्टा से लेकर भारत मंडपम और नए संसद भवन तक और बाकी की दिल्ली कांक्रीट के ऐसे जंगल में बदल गई है, जहां मनुष्य नहीं इमारतें ज्यादा मूल्यवान हैं। जहाँ मात्र एक कार के जोर से निकल जाने से पूरा तलघर भर जाता है और युवा सीवर की गंदगी में डूब कर मर जाते हैं? 

उच्च न्यायालय तंज कसता है कि वह तो गनीमत है कि दिल्ली पुलिस ने पानी का चाला पीन नहीं काटा!  यह भारत नामक राष्ट्र की राजधानी दिल्ली की बनावट, बसाहट और प्रशासन है। अब जब दिल्ली के तलघर में मौतें हुई तो देशभर के तलघरों पर एकाएक आफत आ गई। इन्दौर, भोपाल, जयपुर, जबलपुर आदि शहरों में ये एकाएक असुरक्षित कैसे हो गये? इसे बलिदान कहें या नरबलि, किसका प्रतिफल मिल रहा है? हिमालय में पिछले कुछ वर्षों में हजारों मौतें अतिवृष्टि आदि से हुई है और हाकिया दुर्घटना स्थल वायनाड में मरने वालों का आंकड़ा तीन सौ पचास पार कर रहा है और संसद में जातियां बताई जा रहीं है। दो मिनट का मौन इन मौतों के लिए काफी है? वैसे भी इससे ज्यादा समय के वे साधारण लोग हकदार भी नहीं हैं जिन्हें अपने प्राणों से हाथ, अपनी वजह से नहीं, मौसम की बेरुखी से भी नहीं बल्कि विकास की अनसोची श्रंखला से धोना पडा है।

आज महज पर्यावरण का सवाल नहीं है। यह हमारे यानी सम्पूर्ण प्राणी जगत के अस्तित्व का सवाल है। प्रसिद्द फ्रांसीसी इतिहासकार ब्राउडेल लिखते हैं “मनुष्य का इतिहास उसके पर्यावरण के साथ संबंध का इतिहास है। पर्यावरण एक ऐसा अवरोध है जिसके परे न तो मनुष्य और न ही उसका अनुभव जा सकता है। शताब्दियों से मनुष्य, जलवायु, पशुधन की संख्या और विशिष्ट तरह की कृषि का कैदी बनकर रह गया, जिसने धीरे-धीरे ऐसी संतुलित प्रणाली स्थापित कर ली है, जिससे हम सब कुछ उलट-पलट करके भी छुटकारा नहीं पा सकते।” 

अतएव मूल मुद्दा सामंजस्य का है। पहाड़ों की संवेदनशील प्रवृति को दरकिनार करते हुए हमारे नीति निर्माताओं ने विकास का बेहद संवेदनहीन मॉडल तैयार किया। वे भूल गए कि सृष्टि में ऐसा अभी भी बहुत कुछ है, जो अबूझ है! अंतरिक्ष में चले जाने के यह मायने नहीं है कि पृथ्वी पर सब कुछ नियंत्रित कर लिया गया है। हिमालय के साथ हो रही ज्यादती वास्तव में मनुष्यता के अस्तित्व को ही संकट में डालना है। वैसे भी “हिमालय को ईश्वर की एक प्रामाणिक अभिव्यक्ति माना गया है। हम इसे महज चट्टानों का एक ढेर या पर्वत श्रंखला भर नहीं मान सकते। गीता में कृष्ण कहते हैं, सभी अचल वस्तुओं में मैं हिमालय हूँ। 

यदि भारत के संदर्भ में बात करें तो भारत का उद्गम, सम्पन्नता और ज्ञान वस्तुतः हिमालय की ही देन है। परंतु पिछले चार दशकों में इसे एक विचार से गिराकर महज दर्शनीय वस्तु में परिवर्तित कर दिया गया है। गौरतलब है, पर्यावरण में सिर्फ नदी नाले, पेड़, पहाड़ भर शामिल नहीं होते। इसमें मनुष्य उसकी भाषा और संस्कृति भी समाहित रहती है।

न्यायमूर्ति स्व.चंद्रशेखर धर्माधिकारी पंचतंत्र की कहानी “अंधों का हाथी” को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गढ़ते हुए समझाते हैं, “एक कक्षा में अध्यापक ने विद्यार्थियों से पूछा, ‘चार व्यक्ति प्राणी संग्रहालय में गए। वहां उन्होंने हाथी का निरीक्षण और विश्लेषण किया, उनमें से एक ने कहा यह दीवाल की तरह है तो दूसरे ने कहा कि यह खंबे की तरह है। तीसरे को वह सूप की तरह लगा, तो चौथे को वह रस्सी की तरह लगा। अतः बतलाइये कि वे कौन थे? विद्यार्थियों ने कहा श्रीमान वे अंधे थे। इसके बाद एक होशियार और समझदार विद्यार्थी ने उत्तर दिया, श्रीमान वे अंधे नहीं थे, आप अंधों को अपमानित न करें; वे सब विद्वान व् विशेषज्ञ थे। उन्होंने एक-एक भाग का निरीक्षण व विश्लेषण किया था, वे पूरा हाथी देख ही नहीं पाए।”

यही वर्तमान विकास योजनाओं की वस्तुस्थिति हैं। अब यह आवश्यक हो गया है कि विकास योजनाओं के स्वरूप का नए सिरे से मूल्यांकन हो। पर्यटन ने जिस स्तर पर पर्यावरण को एवम स्थानीय जीवनशैली को बर्बाद किया है, वह भी अकल्पनीय है। यूरोप के अधिकांश देशों में पर्यटन स्थलों के मूल निवासी अब पर्यटकों का विरोध कर रहे हैं। अनेक देशों में अब पर्यटन को सीमित किया जा रहा है। जबकि भारत में इसे इतना जबरदस्त प्रोत्साहन दिया जा रहा है, कि जैसे पर्यटन ही भारतीय अर्थव्यवस्था का भाग्यविधाता है। अर्थव्यवस्था के अन्य सभी आयामों में आ रही रुकावटें भी पर्यटन उद्योग के लिए बेहद अनुकूल वातावरण तैयार कर रही हैं। 
धूमिल ने शायद ठीक ही कहा है,
“न कोई प्रजा है, न कोई तंत्र है
यह आदमी के खिलाफ, आदमी का 
खुला सा षड्यंत्र है।”

दरअसल पर्यावरण के साथ खिलवाड़ वे ही कर रहे हैं, जिन पर इसको संभाल कर रखने की जवाबदारी और जिम्मेदारी है। एक ओर हम सबका ध्यान हिमालय व् उससे जुड़े हादसों पर ज्यादा रहता है। जबकि  वास्तविकता यह है कि सन 2015 से 2022 तक देशभर में कुल 3,782 भू-स्खलन के मामले दर्ज हुए और इसमें 2,239 सिर्फ केरल में दर्ज किए गए हैं। इससे पश्चिमी घाट की संवेदनशीलता का आभास होता है और साथ ही साथ यह तथ्य भी सामने आता है कि भूस्खलन अब एक राष्ट्रीय आपदा के तौर पर स्थापित हो गया है। 

पर्यावरण को लेकर जिस तरह की शब्दावली विकसित की गई है, उसने इस सहज व सरल विषय को बेहद जटिल बना दिया है। अनुपम  मिश्र समझाते हैं, “पर्यावरण की भाषा इस सामाजिक राजनैतिक भाषा से रत्तीभर अलग नहीं है। वह हिंदी भी है यह कहते डर लगता है। बहुत हुआ तो आज के पर्यावरण की ज्यादातर भाषा देवनागरी कही जा सकती है। लिपि के कारण राजधानी के पर्यावरण मंत्रालय से लेकर हिंदी राज्यों के कस्बे, गांवों तक के लिए बनी पर्यावरण संस्थाओं की भाषा कभी पढ़ कर तो देखें। ऐसा पूरा साहित्य, लेखन, रिपोर्ट सब कुछ एक अटपटी हिंदी से भरा पड़ा है।” 

यही कारण है कि आम हिंदी भाषी की पर्यावरण को लेकर किसी किस्म की उत्सुकता ही नहीं जागती। वे समझाते हैं, “इसी तरह अब नदियां यदि घर में बिजली का बल्ब न जला पाएं तो माना जाता है कि वे व्यर्थ में पानी समुद्र में बहा रही हैं।” बिजली जरुर बने पर समुद्र में पानी बहाना भी नदी का एक बड़ा काम है। इसे हमारी नई भाषा भूल रही है। हमारे समुद्रतटीय क्षेत्रों में भूजल बड़े पैमाने पर खारा होने लगेगा तब नदी की इस भूमिका महत्व पता चलेगा। लेकिन आज तो हमारी भाषा ही खारी हो गई है। 

गौरतलब है उत्तराखंड की गंगाबेसिन की नदियां अब मुश्किल से ही समुद्र तक पहुंच पा रही हैं। यही स्थिति पश्चिमी घट की नदियों का है। मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी को बड़े-बड़े बांधों में समेट कर तालाब में परिवर्तित कर दिया गया है और अब गुजरात में भडूच तक पानी खारा होने लगा है।

अभी खबर आई कि लद्दाख में दोपहर में हवाई जहाज न तो उत्तर पा रहे हैं और न ही उड़ पा रहे हैं क्योंकि अत्यधिक तापमान की वजह से वहां चलने वाली वायु का प्रवाह और मात्रा दोनों में कमी आ गई है। जाहिर है पर्यावरण कोई ऐसा मसला नहीं है, जिस पर अलग से कोई कार्य किया जा सके। यह तो मानव जीवन और सृष्टि का मूल ही है। सभ्यता का प्रत्येक आयाम अंततः पर्यावरण पर ही निर्भर है। अतएव इसको समझने के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय बहस होना अनिवार्य है। इस हेतु सबसे पहले संसद के दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाया जाना चाहिए जिसमें न सिर्फ सांसद बल्कि इस विषय के विशेषज्ञ पूरी संसद के साथ सीधे व स्पष्ट संवाद करें। इसके पश्चात् प्रत्येक राज्य को अपनी विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर, प्रांतीय स्तर पर विशेषज्ञों की राय लेकर एक सर्वसम्मत राजनीतिक प्रस्ताव तैयार करने की आवश्यकता है।

शुतुरमुर्ग बनने से तो बात नहीं बनेगी। बादलों का फटना उतना असामान्य नहीं है जितना कि इसके द्वारा भयानक बर्बादी का फ़ैल जाना। बरसात के पानी को 6 फूट के ड्रेनेज पाइप से शहर/गाँव से निकाला नहीं जा सकता। हमारे देश में श्रीनगर, भोपाल, गोहाटी जैसे ढलान पर बसे शहर भी अब बारिश में पानी की टंकी बन जाते हैं तो दिल्ली, मुंबई, जयपुर, चेन्नई, बैंगलोर, हैदराबाद जैसे समतल शहर कैसे बारिश का मुकाबला कर पाएंगे? वैसे वास्तविकता तो यही है कि मनुष्य प्रकृति से मुकाबला कर ही नहीं सकता, उसके साथ सामंजस्य बैठाकर ही खुद को सुरक्षित कर सकता है। 

हमें समझना होगा तलघर कोई स्थान नहीं बल्कि ऐसा विचार है जो हमारे लालच को अभिव्यक्त करता है। व्यक्ति के आचरण को व्याख्यायित करते हुए गांधी कहते हैं, “उत्कृष्टता का लक्षण है कि मैं नहीं रहूँगा, तुम रहो। प्रामाणिकता का लक्षण है, समझदारी से भरा विवेक और प्रामाणिकता हमेशा अपने स्वार्थ के विरोध में रहती है।” 
आज पूरे भारत में जो घट रहा है, वह वास्तव में ऐसी विनाश लीला है, जिसे हमने स्वयं रचा है। पहाड़, तराई, पठार, रेगिस्तान आपस में गुथे हुए हैं और वह पर्यावरण ही है जो इनको गुथने का कार्य करता है। याद रखिए पर्यावरण बचेगा तो ही हम बचेंगे। परवीन शाकिर लिखती हैं,
अब्र (बादल) बरसे तो इनायत उनकी, 
शाख तो सिर्फ दुआ करती है।।