लॉकडाउन या नॉकडाउन (धराशायी)
भारत में करोना के नियंत्रण के लिए सम्पूर्ण लॉकडाउन किया जाना सही नहीं है। उसकी जनसांख्यिकी, उसकी अर्थव्यवस्था, उसका सामाजिक पिछड़ापन और इस सब से ज्यादा उसके शासन का पिछड़ा रवैया, जवाबदेही का अभाव और दमन इसके अनुकूल नहींं है। मेरा संदर्भ केवल मोदी शासन से कतई नही है।
                                    - डॉ. आशीष मित्तल
(महासचिव, अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा)
मैंं इस बहस में नहीं पडूंगा कि भारत करोना के सामुदायक प्रसार के दौर में है या नहीं क्योंकि यदि नहीं भी है तो बहुत जल्द पहुंच जाएगा। पहले दिन से ही यह स्पष्ट है कि भारत में करोना के नियंत्रण के लिए सम्पूर्ण लॉकडाउन किया जाना सही नहीं है। उसकी जनसांख्यिकी, उसकी अर्थव्यवस्था, उसका सामाजिक पिछड़ापन और इस सब से ज्यादा उसके शासन का पिछड़ा रवैया, जवाबदेही का अभाव और दमन इसके अनुकूल नही है। मेरा संदर्भ केवल मोदी शासन से कतई नही है।
सम्पूर्ण लॉकडाउन अमल हो ही नहीं सकता था। लोग भूखे हैं, अभावग्रस्त हैं, करोना से डरे हुए हैं और अपने घरों से दूर असुरक्षा के हाल में रह रहे हैं। उनकी समस्याएंं और भय रोजाना तेजी से बढ़ रहे हैं। भारत अपने लोगों को खाना नहीं खिला पा रहा है, वह संदिग्ध लोगों का न ढूंढ पा रहा है न उनकी जांच कर पा रहा है, न ही वह समाज भर में जांच करा पा रहा है, न ही वह लोगों का सही से इलाज करा पा रहा है। लोगों का भय कैसे कम होगा?
व्यवहारिक बात यही है कि यह एक ‘‘नॉकडाउन’’ का ही रूप लेता, जो रूप साफ-साफ अब दिख रहा है और इसकी गति और तीव्रता भी बढ़ रही है। प्रदेशों की ‘सीमा’ को सील कर दिया गया है। अब छोटे शहरों में परचून की दुकानें व सब्जी के ठेले भी बन्द कराए जा रहे हैं। घर लौट रहे प्रवासी मजदूर इस वायरस के संवाहक होने के संदेह के दायरे में हैं। उनको अलग किया जा रहा है और उनपर हलमे भी हो रहे हैं। बिना किसी सुविधा के इन्हें एकान्तवास में रखने की बात कहकर इस भावना को बढ़ाने में सरकार खुद योगदान कर रही है। राज्य तथा सत्तारूढ़ दल उन्हें अपराधी की संज्ञा में खड़ा कर रहे हैं। आखिरकार, यह वो सम्पन्न लोग नहीं हैं जिन्हें हवाई जहाज भेज कर परदेस से घर बुलाया गया था। बुलन्दशहर, उप्र में परिजनों व मित्रों ने मृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार ही नहीं किया, करोना के भय से। पर बहादुरी के साथ उसके मुस्लिम ‘मित्रों’ ने, जो आरएसएस की साम्प्रदायिक घृणा का शिकार नहीं थे, इस जिम्मेदारी को निभाया।
जहां शासक करोनो के खतरे के प्रति फरवरी तक बेफिक्र रहे, जबकि विश्व व्यापार संगठन ने जनवरी में ही इसके खतरे की घोषणा कर दी थी, उन्होंने इस वायरस को देश में हवाई मार्ग से घुसने की खुली छूट दे रखी थी। उस समय शासक नागरिकता कानून अमल कराने में व्यस्थ थे और लगातार शाहीन बाग और मंसूर पार्क के प्रदर्शनकारियों को बदनाम करने में व्यस्थ थे। वे नहीं समझ सके कि करोना वायरस नागरिकता की अर्जी नहीं देगा। वह घुस आएगा। अब, जब उन्होंने इसके खतरे का इस्तेमाल करके इन दोनों स्थानों से मुट्ठी भर प्रदर्शकारियों को ‘लॉकआउट’ कर दिया है, वे सारे देशवसियों के साथ ऐसा ही कर रहे हैं।
जहां तक माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी की बात है तो जनता को गुमराह करने के लिए नौटंकी का इस्तेमाल करने में महारथ प्राप्त किसी भी व्यक्ति का इससे ज्यादा दयनीय प्रदर्शन नहीं हो सकता। 20 मार्च को वह भावुक आवाज में अपील कर रहे थे कि ‘‘केवल एक ही दिन का सवल है, इसे अमल करो’’ और अब, इसे 21 दिनों तक बंदी जारी करने के बाद वे कह रहे हैं कि ‘‘मेरे पास आपकी जान बचाने का और कोई तरीका नही है’’। इस ‘मेरे पास’ को बड़े अक्षरों में लिखना चाहिये। वे अज्ञानता और बेवकूफी की महारत प्रदर्शित कर रहे हैं, जिसमें विश्व ‘प्रभुत्व’ के लिए उनका एक ही प्रतिद्वंदी है, ट्रम्प।
व्यवहारिकता उनकी ताकत नहीं रही है। जितनी ज्यादा संख्या में लोग लौट रहे है, उतनी ज्यादा दृढता के साथ वे नाक डाउन के आदेश दे रहे हैं। प्रवासी मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है, कई लाख, कई शहरो में। भारत में झोपड़ पट्टियों में रहने वाले लोगो की संख्या करीब 8 करोड़ है। जो प्रवासी मजदूर व परिवार तत्काल प्रभावित हैं, वे जो अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं, वे करीब 2 करोड़ हैं और दीर्घावधि मे जिनपर असर पड़ेगा, वे करीब और 4 से 6 करोड़ हैं। तो यह सवाल कुछ लाख का भी नही है, हजारों की बात छोड़ें। ये भूखे हैं, इनके मन मे प्रश्न हैं, बेहद थके हुए हैं, प्रतिबंधों से भयानक भयभीत हैं और कानून का पालन कराने वालों के प्रति बेहद गुस्से में हैं। यह सम्भव है कि हम अब इस बात की प्रतीक्षा में हों, कि पुलिसकर्मी भी थक जाएं और हम फिर बंटवारे से भी भयानक मंजर देखें।
सरकारी योजना पर इस तीखी टिप्पणी का वैज्ञानिक आधार क्या है? भारत की झोपड़ पट्टियां इस वायरस के प्रसार के सबसे उर्वर क्षेत्र हैं - जनसंख्या बहुत ज्यादा है और बंद इलाके हैं। इनकी तुलना में गांव बहुत खुले हैं जहां बहती हवा वायरस के घनत्व को हल्का कर देती है। दूसरा उर्वर क्षेत्र है जेल, जहां बिना करोना को चेक या टैस्ट किये आज भी नये कैदी बाहर से भेजे जा रहे हैं। सरकार चाहें कितना ही इंकार की अवस्था में रहे, घर लौटने का पलायन बढ़ता ही जाएगा। बस्तियों में भीड़-भाड़ वायरस में वृद्धि का समृद्ध आधार है, इन्हे खाली कराना प्राथमिकता में होना चाहिये। सरकार को इसकी जानकारी होनी चाहिये थी। पर उसका आदेश यही है, ‘जहां हो, वहीं रहो’।
लोगों को खाना खिलाने और इलाज कराने की सरकार की अपनी मशनरी बहुत कमजोर है। सरकार को यह जानकारी भी होनी चाहिये थी। गांव से, अभी से ही भूख और बीमारों की शिकायतें जोर पकड़ रही हैं। यह स्थिति देश भर में एक जनपक्षधर सरकारी चिकित्सा व्यवस्था को सुधारने की जरूरत पर, बिना निजी क्षेत्र को शामिल किये, ध्यान आकर्षित करती है।
जो किया जाना चाहिये था वह लाक डाउन नहीं, प्रसार की गति को मंदा करने का प्रयास था। यह तभी सम्भव था जब बुजुर्गों को और बीमार लोगों को घरों में रखा जाता और युवाओं को काम पर लगाकर सारे काम पूरे कराए जाते। यह अवसर हमने खो दिया। पर यह अवसर हमारे पास अब भी है, अगर सरकार सुनना चाहे। तब निम्न कदम उठाना अच्छा होगा :
1. एक मीटर की शारीरिक दूरी बनाए रखना और बीमार लोगों से 2 मीटर की। सामाजिक दूरी नहीं, सामाजिक बंधुत्व को बढ़ाना।
2. सभी लोग मास्क पहनें।
3. घरों मे घुसते समय, खाना खाने से पहले, ढंग से साबुन से 20 सेकेन्ड तक हाथ मल कर धोना।
4. वृद्धों और बीमारी से खतरे के दायरे के लोगों को अलग रखना।
5. एक कमरे के घरों, झुग्गियों व जेलों मे भीड़ कम करना।
6. सभी लोगों को पौष्टिक आहार देना। और
7. चिकित्सीय सुविधाएं देना।
भक्त लोग निश्चित रूप से असहमत होंगे और क्रोधित भी। पुलिस देशद्रोह की बात भी कहेगी। पर सच, सच होता है, अपना असर छोड़ता ही है। भक्तों के विषय में क्या कहा जाए, वे अभी से विपक्ष की आलोचना करने की स्वतः स्थापित दिशा में चल दिये हैं। वे नहीं समझ पा रहे कि कोरोना कोई राजनीतिक दल नहीं है जिसे चुनाव में हराना है। याद कीजिये कि मार्च के शुरू में वे, रोकथाम की योजना बनाने की जगह, कैसे इटली के पर्यटकों पर व्यंग्य कसने में व्यस्त थे।
सरकार ने कई दावे किये हैं कि वह सारी सेवाएं देगी, खाना, पानी, इलाज .... ‘लगभग राम राज’। सब ठीक हो जाएगां, केवल लोग अपनी जगह से न हिलें। वे अभी से बहाने ढूंढने में जुट गए हैं और साथ में दमन करने पर भी। वे कह रहे हैं कि खाने पीने के प्रबन्ध में जिम्मेदार नागरिकों को लगना चाहिये और सरकार घर लौटने की गलती कर रहे लोगों को अब ड्रोन द्वारा खोजेगी। जिम्मेदार नागरिक तो अपना काम कर ही रहे हैं, पर यह वायरस उनसे ज्यादा दिन जीवित रहेगा। दूसरी ओर पुलिस की बर्बरता और क्रूरता का, महिला पुलिस समेत, सबसे निकृष्ट प्रदर्शन सामने आ रहा है।
आस्था रखने वाले लोग एक बड़ी समस्या से पीड़ित रहते हैं। वह है विज्ञान। इस समस्या का केवल एक ही हल है, वह है अंधभक्ति। मोदी जी ने खुद भी विश्व स्वास्थ्य संगठन में सुधार करने की बात कही है। उसे अपने इलाज की सूची में गौ मूत्र और सूर्य नमस्कार को शामिल करना चाहिये।
मोदी जी द्वारा प्रवासी मजदूरों को घर लौटने के विरोध के कारण मरने वालों की संख्या कोरोना से मरने वालों से अभी से ही अधिक हो गयी है।




                            
        
        
        
        
        
        
        
        
        
        
        
        
        
        
        
                                    
                                
                                    
                                    
                                    
								
								
								
								
								
								
								
								
								
								