जुल्म सहने से भी जालिम को मदद होती है

बुरे विचारों और वृत्तियों के खिलाफ शेर की तरह जूझना हमारा धर्म है। जीत होना ईश्वर के हाथ में है। हमारा संतोष जूझने में ही है। हमारा जूझना सच्चा होना चाहिए: महात्मा गांधी

Updated: Apr 01, 2024, 06:07 PM IST

“हम करें बात दलीलों से भी तो रद्द होती है,
उसके होटों की खामोशी भी  सनद होती है। ”
                                                -मुजफ्फर वारसी

विश्वभर में लोकतंत्र हमेशा से खतरे में ही रहा है, क्योंकि यह तमाम ताकतवर, निरंकुश, तानाशाह, निष्ठुर लोगों के लिए स्थायी खतरा बना रहता है। भारत में आम चुनाव की घोषणा होने के बाद पूरे देश के राजनीतिक परिदृष्य में जैसे भगदड़ सी मच गई है। भाजपा ने दावा किया है कि देशभर से करीब 80,000 राजनीतिक कार्यकर्ता, जो दूसरे दलों में थे, को भाजपा में शामिल कर लिया गया है। इसमें सांसद, पूर्व सांसद, विधायक, पूर्व विधायक,मंत्री, व साधारण कार्यकर्ता भी शामिल है। 

भाजपा ने अपने यहां आए इन लोगों में से कई को प्रवेश के 30 मिनट के भीतर लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट भी दे दिया है। यह सब जो चल रहा है, इसे राजनीति का पतन भर कह कर नहीं टाला जा सकता। दरअसल यह राजनीति में नैराश्य (डिप्रेशन) और हताशा की समय है। यह भाजपा और संघ की कमोवेश स्वीकारोक्ति भी है कि अब उनके पास ऐसे प्रतिबद्ध कार्यकत्ताओं का अभाव हो गया है, जिनके सहारे वह सन् 2014 और 2019 में चुनाव जीती थी। अगर इस भगदड़‌ को दूसरे नजरिये से देखें तो समझ में आता है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व (श्री मोदी एवं श्री शाह) को अब वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की जरुरत ही नहीं है या वे समझ गये हैं कि उनकी नीतियां और कार्यशैली वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध अपनी मूल संस्था यानी संघ और उसे जुड़े कार्यकर्ताओं के अनुकूल नहीं हैं।

वारसी साहब आगे लिखते हैं- 
“साँस लेते हुए इंसा भी हैं लाशों की तरह
अब धड़कते हुए दिल की भी लहद(कब्र) होती है।”  

पूरी मोडिया में सिर चढ़कर यह कहा जा रहा है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अपना कैडर संभाल कर रख पाने में असफल साबित हुआ है। वहीं दूसरी ओर सवाल यह उठता है कि कांग्रेस या अन्य गैर सांप्रदायिकदलों को छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले राजनीतिज्ञों को एकाएक यह कैसे, ठीक चुनाव के पहले समझ में आया कि कांग्रेस ने "राम मंदिर, उद्‌घाटन" का निमंत्रण ठुकरा कर उनकी भावनाओं को आहत किया है? आजादी के संघर्ष के दौरान और आजादी के बाद के अपने शासन में कांग्रेस ने शायद कभी यह दावा नहीं किया कि "राममंदिर निर्माण उनके एजंडे में है। जब यह कांग्रेस के लिए कभी केंद्रीय मुद्दा रहा ही नहीं तो फिर कम से कम यह किसी कांग्रेसी के अपने दल को छोड़ने का मुद्‌दा बन ही नहीं सकता। 

भाजपा में जाना या न जाना यह किसी भी राजनीतिज्ञ का अपना निर्णय है। इतने लोगों के भाजपा में भर्ती हो जाने को लेकर उठे विवाद में मध्यप्रदेश में भाजपा के नेताओं ने इन नवागुन्तकों को गीले और सूखे कचड़े की संज्ञा दे डाली है और शायद उनके लिए बड़े आकार की "डस्टबिन" भी तैयार कर ली गई है। हमें याद ‌रखना होगा कि डस्टबिन चाहे जितनी भी खूबसूरत हो उसमें डाला तो कचड़ा ही जाता है। भगौड़े कांग्रेसियों ने शायद अपनी राजनीतिक कब्र स्वयं हो खोद ली है। वहीं दूसरी ओर यह नारा भी काफी सटीक सिद्ध हो रहा है कि "कांग्रेस मुक्त" भारत की कल्पना करने वाली भाजपा अब न केवल "कांग्रेस-युक्त" भाजपा बन गई है बल्कि धीरे-धीरे वह भगौडे कांग्रेसियों द्वारा वर्चस्व की स्थिति में भी आ जाएगी। 

असम के हिमंता बिस्वा सरमा के मुख्यमंत्री बनने से इसकी शुरुआत हो ही गई है। मध्य प्रदेश के " सुरेश पचौरी को स्टारप्रचारक बनाना भी इसी श्रंखला अगली कड़ी है। महाराष्ट्र के कांग्रेसी अशोक चव्हाण को राज्यसभा सदस्य बनाना कोई रणनीति नहीं बल्कि सिद्धांत की राजनीति को तज देना ही है। वैसे फेहरिस्त तो काफी लंबी है।
" जिसकी गर्दन में है फंदा वहीं इंसान बड़ा
सूलियों से यहां पैमाहश-ए- कद होती है।

इस दौरान भाजपा में शामिल होने वालों में से अधिकांश ने भाजपा/संघ की विचारधारा के प्रति कतई प्रतिबद्धता नहीं दर्शाई है। उनका कहना है कि वे कमोवेश नरेंद्र मोदी के कथित "विकास माडल" से प्रभावित होकर भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें से संभवतः एक ने भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सदस्यता ग्रहण करने का दावा भी नहीं किया है। इसका सीधा सा अर्थ यह निकलता है कि श्री मोदी और श्री शाह ने भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान कलेवर के बीच अपना एक नया समूह खड़ा कर दिया है, जो कमोवेश उन्हीं के प्रति पूरी तरह से समर्पित है।

 सवाल महज ईडी, सीबीआई, आयकर, आदि के डर का ही नहीं है, बल्कि तमाम बरसों में छलपूर्वक कांग्रेस शासन के दौरान उठाए गए व्यक्तिगत लाभ एवं संपत्तियों को सुरक्षित बनाए रखना भी हो सकता है। मध्य प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनावों के पहले और चुनाव प्रचार के दौरान दोनों दलों के बीच का वैचारिक अंतर जैसे समाप्त सा होता दिखा। कांग्रेस के जो उम्मीदवारी का दावा करने वाले रुद्राक्ष बांटते नजर आए थे। वे भी अब भाजपा में शामिल हो गए हैं। कांग्रेस में रहते हुए चुनाव लड़ने, पहले विधायक रहे, फिर कांग्रेस के टिकट से हारने वाले भी भाजपा में चले गए और जिनसे हारे उन्हीं से भाजपा की सदस्यता भी गहण करते नजर आए। उनके पास न तो ईडी पहुंचा न सीबीआई, बस खनिज विभाग का एक नोटिस भर पहुंचा था।

 देवदर्शन और भंडारों की राजनीति के सहारे लंबी पारी कांग्रेस में तो नहीं खेली जा सकती। इस दौरान मध्य प्रदेश में श्री दिग्विजय सिंह और उनके साथ के लोग काफी हद तक अटल बने रहे। कांग्रेस छोड़ने वालों की सूची पर निगाह डालें तो स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है। इनमें से अधिकांश अंदर से कतई धर्मनिरपेक्ष तथा सामाजिक समरसता के समर्थक नहीं दिखाई देते थे। वे तो एक मुखौटा सा लगाए हुए थे। यह तय है कि आज हमारे आसपास राजनीतिक बेबसी का दौर दिखाई दे रहा है, लेकिन इससे निपटना भी तो राजनीति के माध्यम से ही पड़ेगा। वारसी अंत में लिखते हैं- 
“कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज-ए-सुखन
जुल्म सहने से भी जालिम को मदद होती है।”

केन्द्र सरकार ने जैसे यह तय कर लिया है कि वह चुनाव के दौरान किसी भी तरह से यह सुनिश्चित कर लेगी कि अन्य दल चुनाव लड़ने में कमोवेश असमर्थ हो जाएं। कांग्रेस, आम आद‌मी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी, द्रविड़ मुनेत्र कषगम आदि राजनीतिक दलों पर केन्द्रीय एजेंसियों की वक्र‌दृष्टि लगातार कहर बरपा रही है। जिन मुद्‌दों पर इन दलों को नोटिस दिए रहे हैं, ठीक वैसी ही परिस्थिति तो भाजपा के भी साथ है, लेकिन वह अमरत्व प्राप्त कर चुकी है। परंतु अब विपक्ष की राजनीतिक मुखरता अपनी लय पकड़ रही है। 

चुनावी बांड के निर्णय से ध्यान हटाने के लिए रचा जा रहा सारा यह चक्र धीरे-धीरे उलझता सा जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के भीतर उबलता असंतोष कभी भी सेफ्टी वाल्व को उखाड़‌ फेक सकता है।
राजनीति कभी भी "करो या मरो" नहीं होती। यह एक सतत जीवंत प्रक्रिया है और संभवतः भाजपा के अलावा अन्य दल अब यह समझने को तैयार भी हो रहे हैं। 

गांधी कहते हैं- 
“बुरे विचारों और वृत्तियों के खिलाफ शेर की तरह जूझना हमारा धर्म है। जीत होना ईश्वर के हाथ में है। हमारा संतोष जूझने में ही है। हमारा जूझना सच्चा होना चाहिए।”