मंदिरों में सिमटते राम और पाबंदियों में लोकतंत्र

विडंबना देखिए कि महात्मा गांधी के लिए जिस रामराज्य की कल्पना में व्यक्ति स्वातंत्र्य सर्वोपरि था उन्हीं का नाम लेकर बनाई जा रही व्यवस्था में शासकों और सुरक्षा बलों का अधिकार सर्वोपरि है। कण कण में व्यापने वाले राम एक शहर के मंदिर तक सीमित किए जा रहे हैं। उनकी मर्यादा की ऊंचाई की जगह मूर्तियों और कंगूरों की बात की जा रही है। व्यक्ति को स्वतंत्रता और गरिमा देने का दावा करने वाला संविधान व्यक्ति को कदम कदम पर बांध रहा है और उसके मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जिम्मेदार न्यायपालिका खामोश है। 

Updated: Aug 05, 2020, 05:18 AM IST

आजकल कुछ लोग जार्ज आरवेल के 1984 का उल्लेख बहुत करते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी की लगातार बढ़ती शक्ति के साथ 72 साल पहले यानी 1948 में बुनी गई वह फैंटेसी सटीक होती जा रही है। लेकिन उससे तीन साल पहले 1945 में आई `एनिमल फार्म’ जैसी फैंटेसी आज की लोकतांत्रिक प्रणालियों के पतन पर उससे भी ज्यादा सटीक बैठती है। विशेषकर अगर हम उस उपन्यास को भारत के संदर्भ में देखना चाहें तो लगता है कि उसमें वर्णित कथानक हमारी स्थितियों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था। 

हालांकि वह उपन्यास सोवियत संघ की बोल्शेविक क्रांति को लक्ष्य करके लिखा गया था और यह दिखाता है कि किस तरह क्रांतियां पथभ्रष्ट होती हैं और अपने ही आदर्शों को खा जाती हैं। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद उसे आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी लागू किया जा सकता है। अमेरिका जैसे देश में लोकतांत्रिक आदर्श को पतित होते हुए डैनियल जिबलाट और स्टीवेन लेविस्ट्स्की अपनी पुस्तक `हाउ डेमोक्रेसीज डाइ’ में देखते हैं तो डेविड रैन्सीमैन `हाउ डेमोक्रेसी इन्ड्स’ में दूसरी जगहों पर इस पतन को होते हुए देखते हैं। इस बात को जेम्स क्रैबट्री `द बिलेनेयर राज’ में पूरी दुनिया के परिप्रेक्ष्य में भारतीय गणतंत्र को आम आदमी से दूर जाते हुए और अमीरों की मुट्ठी में कैद होते हुए देखते हैं। 

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इन घटनाओं को अगर हम जार्ज आरवेल के एनिमल फार्म के रूपक में देखें तो बहुत कुछ मिटता हुआ और एक विपरीत और संकुचित लक्ष्य उभरता हुआ दिखता है। एनिमल फार्म का आरंभ, एक सूअर बाड़े में दमन और उत्पीड़न से परेशान जानवरों द्वारा शोषक मानव जाति के विरुद्ध क्रांति करके, एक नई व्यवस्था कायम करने से होता है। शुरू में वे अपनी शासन प्रणाली के लिए सात ईश्वरीय उपदेश यानी कमांडमेंट तय करते है। संक्षेप में वे इस प्रकार हैः—(1) जो दो पैरों पर चलता है वह हमारा शत्रु है।(2) जो चार पैरों पर चलता है या पंखों के सहारे उड़ता है वह हमारा दोस्त है। (3) कोई जानवर वस्त्र नहीं पहनेगा। (4) कोई जानवर बिस्तर में नहीं सोएगा।(5) कोई जानवर शराब नहीं पीएगा।(6) कोई जानवर दूसरे जानवर को नहीं मारेगा।(7) सभी जानवर बराबर हैं। लेकिन क्रांति के बाद इन आदर्शों के आधार पर बन रही व्यवस्था धीरे धीरे पतित होती जाती है और बाद में उन तमाम आदर्शों को मिटा दिया जाता है। इस बीच कई नेताओं की हत्या होती है। आखिरी दृश्य में एक हाल के भीतर सारे सूअर दो पैरों पर खड़े होकर हाथ में बड़ा मग लेकर शराब पी रहे होते हैं और बाहर लिखा होता है कि सभी जानवर बराबर हैं लेकिन कुछ जानवर ज्यादा बराबर हैं।

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आज यह दावा किया जाता है कि राम तो पांच सौ सालों से वनवास में थे। आज वे मुक्त हो गए हैं और रामराज्य आ गया है या महात्मा गांधी ने किस तरह गुजरात के प्रभाष पाटन में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का समर्थन किया था और नेहरू ने विरोध किया था, तो लगता है कि हमारे लोकतांत्रिक आदर्श कितने बदल गए हैं। कहा जा रहा है कि सरदार पटेल, केएम मुंशी, एस राधाकृष्णन, राजेंद्र प्रसाद, वीपी मेनन सब एक साथ थे और उन्होंने नेहरू की सलाह नहीं मानी। या अगर गांधी ने समर्थन न किया होता तो सोमनाथ का मंदिर नहीं बनता। यह तमाम बातें सुनकर और पढ़कर यही लगता है कि जिस तरह से एनिमल फार्म में आरंभ में लिखे गए सातों ईश्वरीय उपदेशों को बाद में मिटाकर एक कर दिया गया था और उसकी भी दिशा मोड़ दी गई थी उसी प्रकार आज उन तमाम आदर्शों की दिशा भी मोड़ी जा रही है जो 1947 में भारतीय लोकंतंत्र की आधारशिला रखते हुए स्थापित किए गए थे। 

अगर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने यह कहा था कि आज सरकार में बैठे लोग सोमनाथ मंदिर का निर्माण करेंगे तो इससे हिंदू पुनरुत्थानवाद पैदा होगा या सरकार का काम मंदिर और मस्जिद बनाना नहीं है, तो उनकी बात आज ज्यादा ही प्रासंगिक सिद्ध हो रही है। लगभग यही बात महात्मा गांधी ने भी कही थी लेकिन उन्होंने थोड़ा बीच का रास्ता निकालते हुए गुजरात में जूनागढ़ को कब्जा करने के लिए तैयार की जा रही हिंदू भावनाओं का कुछ ध्यान रखा था। हालांकि गांधी ने अपने बड़े भाई के बेटे सांवलदास गांधी की आरजी हुकूमत की गतिविधियों को आड़े हाथों भी लिया था।

विडंबना देखिए कि महात्मा गांधी के लिए जिस रामराज्य की कल्पना में व्यक्ति स्वातंत्र्य सर्वोपरि था उन्हीं का नाम लेकर बनाई जा रही व्यवस्था में शासकों और सुरक्षा बलों का अधिकार सर्वोपरि है। यह खबरें बड़ी जोरशोर से चलाई जा रही हैं कि अयोध्या की सीमा सील हुई। चप्पे चप्पे पर पुलिस और सुरक्षा बल। आखिर यह कौन सा रामराज्य है जहां परिंदा पर भी नहीं मार सकता। गांधी से जब भी पूछा गया कि उनके लिए स्वतंत्रता का अर्थ क्या है तो उनका स्पष्ट कहना था कि उनके लिए स्वतंत्रता का मतलब रामराज्य है। लेकिन उस रामराज्य में व्यक्ति को गलती करने की स्वतंत्रता होगी। लोगों को हर वह काम करने की स्वतंत्रता होगी जिससे किसी दूसरे को शारीरिक और आर्थिक क्षति न पहुंचे। गांधी कहते थे, "मेरा हिंदुत्व मुझे सभी धर्मों का आदर करना सिखाता है। रामराज्य का रहस्य इसी में निहित है। यदि आप रामराज्य के रूप में ईश्वर का दर्शन करना चाहते हैं तो पहले आपको आत्मनिरीक्षण करना होगा। आपको अपने दोषों को हजार गुना बढ़ाकर देखना होगा और अपने पड़ोसियों के दोषों से आंख मूंद लेनी होगा। सच्ची प्रगति का यही एक मार्ग है।’’

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लेकिन जिस तेजी से हम `रामराज्य’ के दावे की ओर बढ़ रहे हैं उतनी ही तेजी से नागरिक अधिकारों पर बंदिशें लगाई जा रही हैं। यह विडंबना चौंकाती है। लगता है हर देश में लोकतंत्र को निगलने या ग्रहण लगाने वाली शक्तियां अलग अलग नारों और प्रतीकों के माध्यम से आती हैं। भारत में वे शक्तियां रामराज्य का एक अलग ही भाष्य करते हुए आ रही हैं। हमें यह ध्यान रखना होगा कि जब संविधान की प्रस्तावना तैयार हो रही थी तो कुछ लोगों ने कहा कि पहले राष्ट्र की एकता और अखंडता होनी चाहिए। लेकिन डॉ आंबेडकर ही नहीं केएम मुंशी जैसे लोंगों ने भी कहा कि पहले व्यक्ति की गरिमा का पद होना चाहिए। सवाल उठता है कि संविधान निर्माण के सत्तर सालों बाद जहां स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व मुरझा रहे हैं वहीं सभी नागरिकों को राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय देने का संकल्प भी कमजोर पड़ रहा है। इसी के साथ व्यक्ति को गरिमा देने वाला दावा भी ढीला पड़ रहा है। यह विचित्र स्थिति है कि कण कण में व्यापने वाले राम एक शहर के मंदिर तक सीमित किए जा रहे हैं और उनकी मर्यादा की ऊंचाई की जगह पत्थरों से निर्मित होने वाली मूर्तियों और कंगूरों की बात की जा रही है। उसी तरह से व्यक्ति को स्वतंत्रता और गरिमा देने का दावा करने वाला संविधान व्यक्ति को कदम कदम पर बांध रहा है और उसके मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जिम्मेदार न्यायपालिका खामोश है। 

`एनिमल फार्म’ की तरह ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के ईश्वरीय उपदेश बदल रहे हैं और धीरे धीरे मिट रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि बाद में यही बचेगा कि सारे नागरिक बराबर हैं लेकिन कुछ लोग ज्यादा बराबर हैं।