महाशिवरात्रि की महिमा

महाशिवरात्रि का व्रत करने से शिवजी जैसे संतुष्ट होते हैं, वैसा स्नान, वस्त्र, धूप और पुष्प के अर्पण से भी नहीं होते

Updated: Mar 11, 2021, 04:39 AM IST

Photo courtesy: facebook
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शास्त्रों में भगवत आराधन के लिए जो पवित्र दिन सुनिश्चित हैं, उसमें वर्ष में तीन दिन ऐसे हैं जिसमें रात्रि में भगवान की आराधना होती है।

काल रात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा:

कालरात्रि= दीपावली, महारात्रि=शिवरात्रि और मोहरात्रि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी। इसी क्रम में आज महाशिवरात्रि का पावन पर्व है। हम सभी के लिए अत्यंत सौभाग्य का विषय है कि हमने भारत वर्ष में जन्म लिया है। जहां समय समय पर हमें ईश्वर की आराधना करने का सौभाग्य प्राप्त होता रहता है। इस देश में जितने भी पूजा, व्रत, उपवास पर्वोत्सव के रूप में प्रचलित हैं। उसमें शिवरात्रि के समान किसी का प्रचलन नहीं है। इस विराट पर्व में भारत के हिन्दू संस्कृति के परिपालक आबाल, वृद्ध,नर,नारी सभी किसी न किसी रूप में सम्मिलित होते ही हैं। शैव,शाक्त, सौर,गाणपत्य और वैष्णव कोई किसी भी सम्प्रदाय का हो शिवरात्रि का व्रत अनुष्ठान प्राय: सभी लोग करते हैं। और यह शास्त्र विहित भी है।

आचाण्डाल मनुष्याणां भुक्ति मुक्ति प्रदायकम्।

यह व्रत भोग और मोक्ष दोनों को प्रदान करने वाला है। एक बार कैलाश शिखर पर स्थित भगवती पार्वती ने भगवान शंकर से पूछा-

कर्मणा केन भगवन् व्रतेन तपसापि वा।

धर्मार्थ काम मोक्षाणां हेतुस्त्वं परितुष्यति।।

हे भगवन्! एक जिज्ञासा मेरे मन में हो रही है कि आप किस कर्म से, व्रत से या तपस्या से संतुष्ट होते हैं??

तब इसके उत्तर में भगवान शिव बोले-

फाल्गुने कृष्ण पक्षस्य या तिथि: स्याच्चतुर्दशी।

तस्या या तामसी रात्रि: सोच्यते शिवरात्रिका।

तत्रोपवासंकुर्वाण: प्रसादयति मां ध्रुवम्।

न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया।

तुष्यामि न तथा पुष्पै: यथा तत्रोपवासत:।।

अर्थात् फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को जिस अंधकार मय रजनी का उदय होता है उसे शिव रात्रि कहते हैं। उस दिन जो उपवास करता है वह निश्चय ही मुझे संतुष्ट करता है। उसदिन व्रत करने से मैं जैसा संतुष्ट होता हूं वैसा स्नान, वस्त्र, धूप और पुष्प के अर्पण से भी नहीं होता। यद्यपि इस व्रत का उपवास ही मुख्य अंग है, तथापि रात्रि के चारों प्रहरों में पृथक-पृथक पूजा का विधान भी है।

दुग्धेन प्रथमे स्नानं, दध्ना चैव द्वितीयके।

तृतीये तु तथाSSज्येन, चतुर्थे मधुना तथा।।

प्रथम प्रहर में दूध से शिव के ईशान मूर्ति की, द्वितीय प्रहर में दही से शिव की अघोर मूर्ति की, तृतीय प्रहर में घी से वामदेव की एवं चतुर्थ प्रहर में शहद से सद्योजात मूर्ति को स्नान करा कर पूजन करना चाहिए। प्रभात में विसर्जन के बाद व्रत कथा सुनकर अमावस्या को यह कहते हुए पारण करना चाहिए-

संसार क्लेश दग्धस्य व्रतेनानेन शंकर।

प्रसीद सुमुखो नाथ, ज्ञान दृष्टि प्रदो भव।।

हे शंकर! मैं नित्य संसार की यातना से दग्ध हो रहा हूं। इस व्रत से आप मुझ पर प्रसन्न हों। आप प्रसन्न होकर मुझे ज्ञान दृष्टि प्रदान करें। इस प्रसंग से जुड़ी हुई संक्षेप में एक कथा है। वाराणसी का एक व्याध शिकार के लिए वन में गया। वहां अनेक मृगों का शिकार किया लौटते समय मार्ग में वह बहुत थक गया था, अतः एक वृक्ष के नीचे सो गया। नींद टूटने पर रात्रि हो गई थी। चारो ओर घोर अंधकार छाया हुआ था। जाने का मार्ग नहीं सूझ रहा था। घर लौटना असंभव देखकर वह हिंसक जन्तुओं के आक्रमण के भय से उसने एक वृक्ष के ऊपर चढ़कर रात्रि बिताने का निर्णय किया। भाग्य वश उस दिन शिवरात्रि थी। और जिस वृक्ष पर वह बैठा था वह बिल्व वृक्ष था।

उस वृक्ष की जड़ में एक प्राचीन शिव लिंग था। व्याध प्रात: शिकार के लिए घर से निकला था तब से कुछ खाने को नहीं मिला अतः सहज में ही उसका उपवास हो गया। वसंत की रात्रि में ओस की बूंदों से भीगा हुआ बिल्वपत्र व्याध के शरीर से लगकर शिवलिंग पर गिर गया। इससे आशुतोष के तोष का पार न रहा। फलस्वरूप आजीवन दुष्कर्म करने पर भी अंतकाल में उस व्याध को शिवलोक की प्राप्ति हुई। कथा का सारांश यह है कि अनजाने में की गई पूजा से शिवजी जब इतना संतुष्ट हो जाते हैं, तब जो लोग विधि पूर्वक शिवरात्रि में उपवास और शिवपूजन करते हैं, उनके पुण्य का तो कहना ही क्या।