मानव धर्म ही वास्तविक धर्म है

धृति, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, चोरी न करना, बाहर भीतर से पवित्र रहना,मन को वश में रखना, ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करना, सत्य बोलना, क्रोध न करना ही है मानव धर्म

Updated: Aug 24, 2020, 07:35 PM IST

मानव शरीर में प्रारब्ध का भोग करते-करते भी नवीन कर्म किए जा सकते हैं। कर्म दो प्रकार के होते हैं- एक विहित कर्म और दूसरा निषिद्ध कर्म। विहित कर्म को धर्म कहते हैं और निषिद्ध कर्म को अधर्म कहते हैं। जैसे- चलना, आदान-प्रदान, खाना-पीना, बोलना या मौन रहना यह सब क्रियाएं यदि शास्त्र विहित हैं तो वह धर्म हो जाती हैं।

भगवान की कथा सुनने से धर्म होता है।परनिन्दा और व्यर्थ की चर्चा करने और सुनने से अधर्म होता है। नेत्रों से मंदिर में दर्शन करने से, गंगा के दर्शन करने से, नर्मदा के दर्शन करने से,संत महात्माओं के दर्शन करने से धर्म होता है। हाथ से दान करना, माता- पिता की सेवा करना धर्म है जबकि लोभवश चोरी करना, बलपूर्वक दूसरों के धन का अपहरण करना अधर्म हो जाता है। शुद्ध अन्न भगवान को भोग लगाकर खाना धर्म है, वहीं मद्य और मांसाहार करना अधर्म है। चलना-फिरना भी धर्म-अधर्म हो जाता है।

इसीलिए इस शरीर का धर्मार्जन के द्वारा सदुपयोग करने में इसकी सार्थकता मानी जाती है। धर्म-अधर्म और उनके फल स्वर्ग-नरक परोक्ष होने के कारण उनका अनुभव प्रत्यक्ष-प्रमाण से यद्यपि नहीं होता पर उसके लिए दूसरे नेत्र हैं जिनको हम शास्त्र कहते हैं। शास्त्र का अर्थ है- हितमुपदिश्यते शास्यते अनेन इति शास्त्रम्  जिसके द्वारा हमारा लोक-परलोक में हित हो ऐसे उपायों का जिनके द्वारा हमें ज्ञान होता है, उसे शास्त्र कहते हैं। मुख्य रूप से शास्त्र वेद ही हैं, जो सृष्टि के आरम्भ से ही ईश्वर की प्ररेणा से ऋषियों के हृदय में मंत्रों के रूप में आविर्भूत हुए थे। ऋषि मंत्रों के दृष्टा हैं,कर्ता नहीं हैं। वेद शास्त्र हमारा मार्गदर्शन करते हैं किन्तु वे शब्द रूप हैं। वे शब्द किसी मनुष्य के न होकर अपौरुषेय वेदों के हैं, इसीलिए उनका किसमें तात्पर्य है इसके निर्णय के लिए मीमांसा शास्त्र में साधन बताए गए हैं। 

शास्त्र को अधिकारी की आवश्यकता होती है। सर्व प्रथम शास्त्र के उपदेश का अधिकारी मानव होता है, जो स्वयं को मानव समझता है और अपना कल्याण चाहता है, उसके लिए मानव धर्म है।

मानव धर्म को ही सामान्य धर्म कहते हैं। धृति, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, चोरी न करना, बाहर भीतर से पवित्र रहना,मन को वश में रखना, ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करना, सत्य बोलना, क्रोध न करना यह मानव धर्म है। इसकेे बिना मानव पशु तुल्य हो जाता है। उसके पश्चात् वर्ण आश्रम के कर्त्तव्य हैं, जिनमें माता-पिता, गुरु जनों की सेवा, दीन-दुखियों की सहायता,पत्नी का पति के प्रति, पिता का पुत्र के प्रति, पुत्र का पिता के प्रति,भाई का भाई के प्रति,जो कर्त्तव्य होते हैं उसे विशेष धर्म कहते हैं।

शास्त्र के इन नियमों के अनुसार हमें अपना जीवन सुव्यवस्थित कर भगवत्प्राप्ति की ओर अग्रसर होना चाहिए।