संघ का सियासी चेहरा बेनकाब

–विवेकानंद- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अब तक यही कहता रहा है कि वह एक सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन है, लेकिन पहली बार संघ ने अपने चेहरे से खुद ही नकाब उतार दिया। संघ नेता राममाधव ने स्वीकार किया कि भगवा संगठन राजनीति में पहले से अधिक सक्रिय है। राममाधव के मुंह से यद्यपि इस स्वीकारोक्ति […]

Publish: Jan 07, 2019, 10:19 PM IST

संघ का सियासी चेहरा बेनकाब
संघ का सियासी चेहरा बेनकाब
- span style= color: #ff0000 font-size: large विवेकानंद- /span p style= text-align: justify strong रा /strong ष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अब तक यही कहता रहा है कि वह एक सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन है लेकिन पहली बार संघ ने अपने चेहरे से खुद ही नकाब उतार दिया। संघ नेता राममाधव ने स्वीकार किया कि भगवा संगठन राजनीति में पहले से अधिक सक्रिय है। राममाधव के मुंह से यद्यपि इस स्वीकारोक्ति कि आवश्यकता नहीं थी क्योंकि बीजेपी में संघ के लगातार दखल से यह पहले ही साफ हो चुका था। /p p style= text-align: justify दरअसल संघ कभी सामाजिक या सांस्कृतिक संगठन रहा ही नहीं है। राजनीति और उसके स्वरूप मिलने वाले पद और प्रमाद में उसके नेताओं की रुचि आरंभ से ही रही है। सत्ता साकेत की मलाई खाने के लिए उसके नेता लगातार बीजेपी में आते रहे हैं। हालांकि यह ढोंग जरूर किया जाता रहा है कि बीजेपी में जाने के बाद वे संघ के स्वयंसेवक नहीं रहेंगे। और साथ में यह भी बताना नहीं भूलता था कि भाजपा और उसके अंदरूनी मामलों में आरएसएस का दखल नहीं।  यह और बात है कि संघ के बिना बीजेपी में पत्ता भी नहीं हिलात। बीजेपी में होने वाले हर घटनाक्रम में पर्दे के पीछे संघ ही रहता है। /p p style= text-align: justify पिछले दो साल में बीजेपी में घटे एक एक घटनाक्रम पर नजर डालें तो तस्वीर और साफ हो जाती है। नरेंद्र मोदी को पीएम इन वेटिंग घोषित करने के लिए अमरावती में संघ सहित भाजपा से जुड़े वे सभी संगठन थे जो खुद को सामाजिक कहते हैं लेकिन राजनीति में गहरी रुचि रखते हैं और उसका सुख भोगने से उन्हें कभी परहेज नहीं रहा है। इन सामाजिक संगठनों ने विशुध्द रूप से राजनीतिक प्रक्रिया यानि लोकसभा चुनावों पर बंद दरवाजे में बैठक की जिसमें करीब 175 स्वयंसेवक शामिल हुए। इस बैठक में चुनावों के लिए संघ की रणनीति और नीतियों पर विचार विमर्श किया। /p p style= text-align: justify नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव की कैंपेन कमेटी के अध्यक्ष बनाए जाने से लेकर लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफे के बाद उन्हें मनाने और आडवाणी व मोहन भागवत मुलाकात में लोकसभा चुनाव की रणनीति पर चर्चा राजनीति में संघ की रुचि को प्रदर्शित करता है? आडवाणी को मनाने के वक्त तो स्वयं पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ही कहा था कि आडवाणी जी की भागवत जी से बात हुई है हालांकि संघ ने पलटी मार ली थी। इससे पहले नितिन गडकरी को लेकर संघ का जबदरस्त दखल लोगों ने देखा ही है। पिछले दिनों भोपाल सीट से चुनाव लड़ने के लिए लालकृष्ण आडवाणी अड़े थे क्या बीजेपी के किसी नेता में स्वतंत्र रूप से उनके खिलाफ निर्णय लेने की क्षमता थी। यह केवल संघ के इशारे पर ही हो सकता था। लेकिन संघ कभी यह स्वीकार नहीं कर सकता। इस बार संघ खुलकर सामने आया है क्योंकि बीजेपी के माध्यम से सत्ता सुख पाने को लालायित आरएसएस की असलियत पहले ही सामने आ चुकी थी। और यह भी साफ हो चुका था कि संघ सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है यहां तक कि अपने वर्षों पुराने एजेंडे और सिध्दांतों को भी तिलांजलि दे सकता है। हाल ही में संघ ने अपने इस बदली नीति को सर्वे के नाम पर जनता के मत्थे मढ़ दिया। सर्वे के मुताबिक लोगों में राम मंदिर मुद्दा अब उतना असरदार नहीं रहा जो बीजेपी को लाभ पहुंचा सके। जबकि हकीकत यह है कि संघ खुद समझ चुका है कि अब लोगों को भगवान के नाम पर बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। धारा 370 भी अब कारगर नहीं है लिहाजा कश्मीर जाकर इस मुद्दे को उछालने वाले मोदी अब इस मामले में मौन हैं। सरदार पटेल को हाईजेक करने की कोशिश की अब उनका नाम भी कहीं सुनाई नहीं देता। संघ सत्ता के लिए इतना लालायित है कि उसने एक चुनावी सर्वे भी करा डाला लेकिन इस सर्वे ने उसकी और बीजेपी की राष्ट्रीय होने की कलई खोल दी। उत्तरभारत की हिंदी पट्टी के अलावा बीजेपी को कहीं कोई पूछने को तैयार नहीं है। यानि बीजेपी अब भी एक क्षेत्रीय पार्टी ही है। क्षेत्रीय पार्टी होने की उसकी सोच उसके निर्णयों में भी दिखती है। क्षेत्रीय पार्टियां कितनी भी लोकप्रिय हो जाएं लेकिन उनके नेताओं में पराजय का भय हमेशा बना रहता है। इसलिए वे सुरक्षित सीट की तलाश में रहते हैं। वे अपनी इसी आशंका के चलते ऐसे-ऐसे निर्णय करते हैं जो उनके लिए घातत हो जाते हैं। बीजेपी भी आजकल ऐसा ही कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी बड़े जोर-शोर से बोलते हैं लेकिन सत्ता चाहिए इसलिए कर्नाटक से येदियुरप्पा को फिर गले लगा लिया। दुनिया को ईमानदारी का पाठ पढ़ाने वाले इन कथित लोकप्रिय नेता का यह साहसिक कदम बताता है कि वे खुद कितने ईमानदार हैं और उदार हैं। जेडीयू से साबिर अली को तोड़ा। सतीश चंद्र दुबे को टिकट दिया यह जानते हुए भी कि दुबे हत्या अपहरण और जबरन उगाही सहित दजन भर आपराधिक मुकदमों का सामना कर रहे हैं। इसके अलावा सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) की एक गोपनीय रिपोर्ट में बताया गया है कि दुबे जिले के पूर्वी हिस्से में चरस और गांजे की सारी तस्करी को नियंत्रित करने वाले गिरोह का हिस्सा हैं। एसएसबी एक अर्ध्दसैनिक बल है जिसके पास भारत-नेपाल सीमा की चौकसी और सीमा पार से तस्करी जैसे अपराधों को रोकने के लिए जिम्मेदारी है। श्रीरामुलु को सुषमा स्वराज जैसी लीडर के विरोध के बावजूद बीजेपी में शामिल किया गया। अन्य दलों से आए नेताओं को दिल खोलकर टिकट बांटे जा रहे हैं क्योंकि अपने नेताओं की जीत की उम्मीद कम है। ऐसे लोग और दल जो अपने सिध्दांतों और नीतियों पर अडिग नहीं रह सकते वे देश की सेवा कैसे करेंगे यह सवाल उठना लाजमी है। /p