संघ परिवार नेहरू से क्यों घबराता है

– शाहनवाज आलम – पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की केरल इकाई की पत्रिका ‘केसरी’ में छपे लेख जिसमें कहा गया था कि गोडसे को गांधी के बजाए नेहरू की हत्या करनी चाहिए थी से संघ परिवार ने भले ही अपने को अलग करते हुए इसे लेखक का अपना विचार करार दिया है लेकिन […]

Publish: Jan 10, 2019, 11:56 PM IST

संघ परिवार नेहरू से क्यों घबराता है
संघ परिवार नेहरू से क्यों घबराता है
p style= text-align: justify strong - शाहनवाज आलम - /strong /p p style= text-align: justify पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की केरल इकाई की पत्रिका ‘केसरी’ में छपे लेख जिसमें कहा गया था कि गोडसे को गांधी के बजाए नेहरू की हत्या करनी चाहिए थी से संघ परिवार ने भले ही अपने को अलग करते हुए इसे लेखक का अपना विचार करार दिया है लेकिन बावजूद इसके इस प्रकरण से एक बार फिर देश के प्रथम प्रधानमंत्री के प्रति संघ की पुरानी नफरत उजागर हो गई है। लेकिन सवाल है कि क्या यह प्रकरण सुनियोजित था जिसके तहत संघ की पत्रिका में भाजपा के टिकट पर हाल ही में लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी में रहे बी गोपालकृष्णन को गोडसे को नेहरू से बेहतर बताना था और फिर विवाद बढ़ जाने की स्थिति में खुद को उससे अलग कर लेना था। या सचमुच संघ नेहरू की आलोचना से नाराज हुआ और अपने को इस विवाद से अलग कर लिया? /p p style= text-align: justify जो लोग भी संघ परिवार के स्वतंत्रता बाद के इतिहास से वाकिफ हैं वे दूसरे विकल्प को बिल्कुल नही मान सकते। क्योंकि तमाम ऐसे उदारहरण और संदर्भ इस तथ्य को पुख्ता करते हैं कि स्वतंत्रता बाद की संघ परिवार की पूरी राजनीति का केन्द्र बिन्दु ही नेहरू विरोध रहा है। व्यक्तिगत तौर पर भी और राजनैतिक दृष्टि से भी। नेहरू के प्रति संघ परिवार के व्यक्तिगत द्वेष जो दरअसल किसी भी फासीवादी राजनीति की तरह ही संघ परिवार का भी ’शत्रु’ के चरित्र हनन का औजार रहा है का जिक्र करते हुए कभी संघ परिवार के कार्यकर्ता और बाद में सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन के प्रमुख शख्सियत रहे देश राज गोयल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ’राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ में बताया है कि जब भी प्रधानमंत्री नेहरू की कोई तस्वीर किसी विदेशी महिला राजनयिक या स्वतंत्र भारत के पहले गर्वनर जनरल लाॅर्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना माउंटबेटन जो खुद भी एक महत्वपूर्ण राजनैतिक शख्सियत थीं के साथ किसी सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान छपती थीं तो संघ परिवार के कार्यकर्ताओं को ऊपर से निर्देश दे दिया जाता था कि वे उस तस्वीर को काट लें और लोगों के बीच ले जाकर उसे दिखाएं और बताएं कि नेहरू भारतीय परंपरा के विरोधी हैं। यानी संघ परिवार राजनैतिक कारणों से इतर भी नेहरू का व्यक्तिगत तौर पर चरित्र हनन करता रहा है। वहीं अगर राजनैतिक कारणों को परखें तो वहां भी निराधार कारणों से जो दरअसल राजनैतिक द्वेष से उपजे थे हम संघ परिवार को नेहरू की छवि बिगाड़ने की कवायद में जुटे देख सकते हैं। मसलन जन संघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी कश्मीर के भारत के साथ हुए सशर्त समझौते जिसे धारा 370 कहा जाता है और जिसे खत्म करने की बात संघ परिवार करता है में भी मुखर्जी हस्ताक्षरकर्ता रहे हैं। यानी धारा 370 और कश्मीर की विशेष परिस्थितियों के मुद्दे पर वे भी नेहरू से सहमत थे। लेकिन बावजूद इसके संघ परिवार इस तथ्य को लगातार छिपाता और झुंठलाता रहा है और कश्मीर मुद्दे के विवाद की वजह नेहरू को बताता रहा है। /p p style= text-align: justify लेकिन सवाल उठता है कि नेहरू से इस नफरत की वजह क्या है? मोटे तौर पर देखा जाए तो इसके पीछे दो प्रकार के कारण साफ देखे जा सकते हैं। एक वैचारिक और दूसरा आजादी की लड़ाई में कोई भूमिका न होने की एहसास-ए-कमतरी से पैदा हुई कुंठा। अगर पहलेे कारणों पर गौर करें तो हम कह सकते हैं कि संघ परिवार एक बहुत मजबूत वैजारिक संगठन है जिसका एक-एक पैंतरा दूर दृष्टि वाला और बहुत सुनियोजित होता है। यानी निश्चित तौर पर नेहरू के अंदर संघ परिवार कोई ऐसा तत्व जरूर देखता है जो उसे अपने हिन्दुत्ववादी एजेंडे के लिए बाधक लगता हैं। जिसके चलते वह पिछले 67 साल से नेहरू की आलोचना में अपनी समस्त ऊर्जा लगाए हुए है। दरअसल यह तत्व है नेहरू की धर्म निरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता। जिसे वे अपने कई समकक्षी कांग्रेसी नेताओं से इतर आधुनिक नजरिए से देखते थे जिसमें पुर्नउत्थानवाद की प्रवित्त बिल्कुल नहीं थी और जो भारत को वैश्विक मापदंडों पर एक आधुनिक समावेशी लोकतंत्र की जमात में ले जा सकता था। नेहरू के इस आधुनिक दर्शन का अक्स भारतीय संविधान में भी देखा जा सकता है जिसे संघ परिवार ने हिन्दू धर्म पर हमला और विदेशी षडयंत्र कह कर मानने से सार्वजनिक तौर पर इनकार ही नहीं किया है बल्कि उसकी जगह पर मनुस्मिृति को ही संविधान बनाने की भी बात कही है। नेहरू के प्रति संघ की वैजारिक नफरत की दूसरी वजह हिन्दू कोड बिल जो हिन्दू पुरुषों में बहु विवाह को प्रतिबंधित करने और महिलाओं के अधिकारों को सीमित अर्थों में ही सही लेकिन अनिवार्य संबल देता है का पास होना था। जिसके खिलाफ संघ परिवार के तत्कालिक राजनीतिक शाखा जनसंघ ने संसद के अंदर और संघ परिवार ने सड़कों पर इसे धर्म शासत्रों के विरुद्ध बताते हुए इसका विरोध किया था। संघ परिवार के लिए संविधान के बाद हिन्दू कोड बिल उसके मनुवादी एजेंडे जिसमें महिलाओं के किसी स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति नहीं थी के लिए पक्षाघात की तरह था। वहीं 1955 में नेहरू मंत्रिमंडल द्वारा पास किया गया जमीनदारी उन्मूलन अधिनियम को संघ परिवार ने अपने हितों के खिलाफ माना। क्योंकि संघ परिवार का मुख्य आर्थिक आधार बड़े जमीनदार और राजघराने थे। /p p style= text-align: justify इस तरह स्वतंत्रता बाद के भारत के निर्माण काल के दौर से जिसके केन्द्र में नेहरू थे से ही संघ परिवार नेहरू का व्यक्तिगत और वैचारिक विरोधी रहा है। इसीलिए अगर ‘केसरी’ में छपे लेख में यह कहा जा रहा है कि गोडसे को गांधी के बजाए नेहरू को मारना चाहिए था तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। संघ परिवार नेहरू को लेकर ऐसा ही विचार रखता है। /p p style= text-align: justify दरअसल केसरी में छपे इस लेख की हमें संघ परिवार की दुविधा के बतौर देखना चाहिए। दुविधा यह कि उसे गांधी और नेहरू दोनों से नफरत थी इसलिए हत्या तो वह इन दोनों की ही करना चाहता था। सवाल सिर्फ यह था कि वह पहले किसे मारे? जिसमंे संघ ने गांधी को मारना अपनी फौरी जरूरत समझा था। इसीलिए हम देखते हैं कि गांधी की हत्या जिसे संघ ’गांधी वध’ कहता है जिसका अर्थ धार्मिक औचित्य से किसी पापी या विधर्मी को मारने से होता है पर उसने कभी भी देश से माफी नही मांगी। एक पैंतरे के तहत वह उनके हत्यारे नाथू राम गोडसे का संघ परिवार से कोई संबंध नहीं होने की बात करता है। लेकिन उसके पक्ष में ’मी नाथू राम गोडसे बोलतोए’ जैसे नाटक का मंचन करावा कर ’गांधी वध’ को जायज भी ठहराता है। और नेहरू की मौत के पचास साल बाद भी उनकी काल्पनिक हत्या में तार्किकता और औचित्य तलाशने की कोशिश करता है। निश्चित तौर पर यह सब एक वैचारिक दिशा में वेचारिक प्रतिबद्धता के साथ किया जा रहा है। जिसका अंतिम लक्ष्य सावरकर गोलवलकर और हेडगेवार जैसे हिन्दुत्ववादी नेताओं को इनकी जगह पर स्थापित करना है और ’अपने’ पास किसी भी स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े प्रतीक के न होने की कुंठा से छल पूर्वक उबरना है। जो तभी संभव हो सकता है जब स्वतंत्रता आंदोलन के इन दोनों प्रमुख चेहरों- गांधी और नेहरू को पृष्ठभूमि में धकेल दिया जाए। जो कि एक मुश्किल ओर दूभर कार्य है। क्योंकि संघ परिवार के इन आदि गुरुओं की उस आंदोलन में कोई सकारात्म्क भूमिका नही थीं। इसलिए केसरी में छपे लेख को गांधी जयंती को स्वस्छता अभियान और नेहरू जयंती को स्वच्छता सप्ताह घोषित करके इन दोनों नेताओं के राजनीतिक दशर्न को पृष्ठभूमि में धकेलने और उसे भुलाने की रणनीति के ही एक हिस्से के बतौर देखना होगा। /p p style= text-align: justify /p