एनकाउंटर पुलिस की सबसे बड़ी विफलता

हम देख रहे हैं कि अपराध की दुनिया में प्रवेश करने वाला फिर शायद ही कभी समाज में लौटा हो। और लौटता भी है तो विकास दुबे बनकर। बापू मानते थे कि अपराधियों के साथ बीमारों जैसा व्यवहार होना चाहिए और जेलों को अस्पताल की तरह उनका उपचार कर उन्हें निरोग बनाना चाहिए। परन्तु हो तो इसके ठीक विपरीत हो रहा है। थाने नामक डिस्पेंसरियों और जेल नामक अस्पतालों में ही इस कदर संक्रमण हो गया है कि, जो उनमें जाता है वह संक्रमित होकर ही निकलता है।

Publish: Jul 10, 2020, 04:04 PM IST

भारतीय पुलिस प्रणाली इन दिनों बेहद चर्चा में है। इसकी पृष्ठभूमि में हाल में घटी दो घटनाएं हैं। पहली घटना है तमिलनाडु के तुथुकुडी जिले के सथकुलम कस्बे के निवासी पी. जयराम और उनके बेटे बेनिक्स की पुलिस अभिरक्षा में दी गई यातनाओं की वजह से हुई दर्दनाक मृत्यु और दूसरी घटना है उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर के चौबेपुर के पास स्थित गांव बिकरु में कुख्यात अपराधी विकास दुबे द्वारा आठ पुलिसकर्मियों की वीभत्स हत्याएं। सरसरी तौर पर देखने में लगता है कि इन दोनों घटनाओं में कोई समानता नहीं है और यह एकदम विपरीत परिस्थितियां सामने लाती हैं। पहली घटना में पुलिस के हाथों हत्या हुई है और दूसरी घटना में पुलिसकर्मियों की हत्या हुई है। परन्तु गहराई से अपराध और अपराधी के दर्शन को समझने का प्रयास करेंगे तो यह एक ही सिक्के के दो पहलू नजर आएंगे। इसीलिए यह आवश्‍यक हो गया है कि भारतीय पुलिस प्रणाली का व्यापक विश्लेषण किया जाए। 

तमिलनाडु की घटना से पाश की कविता, ‘पुलिस सिपाही से’ की यह पंक्तियां याद हो आई, ‘सिपाही बता, मैं तुम्हें भी इतना खतरनाक लगता हूं ? /भाई सच बता, तुम्हें/मेरी छिली हुई चमड़ी/ और मेरे मुंह से बहते हुए खून में/कुछ भी अपना नहीं लगता।’ पी. जयराम और उनका बेटा बेनिक्स कस्बे में मोबाइल मरम्मत की दुकान चलाते थे। दुकान समय पर बंद न करने पर उन्हें मृत्युदंड दे दिया गया, वह भी न्यायालय नहीं पुलिस के द्वारा। पर हमें सोचना होगा कि इस हत्या के लिए क्या सिर्फ पुलिस ही दोषी ठहराई जा सकती है? शर्मनाक यह है कि इन दोनों मृतकों के सिर्फ मुंह से ही नहीं बल्कि शरीर के अन्य निकासी द्वारों से भी लगातार खून बह रहा था। परन्तु सारा शासन-प्रशासन जैसे वर्णान्धता (कलर ब्लाइंडनेस) का शिकार हो गया। यानी उन्हें अब खून पानी नजर नहीं आता है? थोड़ा विस्तार में जाते हैं। पुलिस पिता-पुत्र दोनों को रातभर लॉकअप में रखने (पिटाई करने) के बाद इन्हें सथकुलम जनरल अस्पताल ले गई। वहां के मेडिकल अफसर ने पुलिस को इन दोनों के फिटनेस सर्टिफिकेट (शायद बिना जांच किए पुलिस की ख्याति (गुडविल) के चलते) दे दिए। वहां से इन्हें कार्यकारी मजिस्ट्रेट के पास ले जाया गया। उन्होंने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि इन दोनों को यातना दी गई है। यातना यहीं खत्म नहीं हुई। इन्हें पास की जेल ले जाने की बजाए 100 किलोमीटर दूर कोविलपट्टी उपजेल भेजा गया। जेल में भी उसकी चोटों की ओर ध्यान नहीं दिया गया और परिणामस्वरूप दो दिन बाद इन दोनों की मृत्यु हो गई। इति सिद्धम!

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तो सोचिए कि इन हत्याओं की जवाबदारी किन-किन पर और क्यों आती है? अभी एक वर्ष में या आजादी के बाद से पुलिस अभिरक्षा में कितने लोगों की संदेहास्पद स्थितियों में मृत्यु हुई है, ऐसे रोंगटे खड़े कर देने वाले आंकड़ों को याद नहीं करते हैं। वैसे यह अकेली घटना ही समझा रही है कि हवालात (कस्टोडियल डेथ) में होने वाली संदेहास्पद मृत्यु (हत्या) में किसी को भी सजा क्यों नहीं मिलती। पी.यू.सी.एल. के राष्ट्रीय महासचिव के सुरेश एक मूलभूत समस्या की ओर इशारा कर रहे हैं। वे कहते हैं, ‘‘इस स्तर (प्राथमिक जांच या न्यायिक हिरासत) पर मजिस्ट्रेट ही हमारे संवैधानिक अधिकारों के रक्षक होते हैं। दुर्भाग्यवश 95 प्रतिशत मजिस्ट्रेट बेहद यांत्रिक तरीके से कार्य करते हैं। इसका कारण यह है कि उन्हें कानून का बहुत अच्छा ज्ञान नहीं होता और उन्हें अपर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाता है।’’  तो यह जमीनी स्थिति है।

अब दूसरी घटना जो उत्तरप्रदेश के कानपुर जिले के चौबेपुर स्थित बिकरु गांव की है, पर विचार करते हैं। इस लोमहर्षक घटना में विकास दुबे नामक एक खूंखार अपराधी ने अपने गिरोह के साथ मिलकर 8 पुलिसकर्मियों की बेरहमी से हत्या कर दी। मृतकों में एक डी.एस.पी., तीन सब इंस्पेक्टर और चार सिपाही शामिल हैं। हत्याएं बेहद वीभत्सता से की गई। डी.एस.पी. की हत्या करने के बाद उसके शरीर के अंग काटे गए। किन्हीं पुलिसकर्मियों के चेहरे व शरीर पर गोलियों की बौछार कर दी गई। समाचार माध्यम हमें बता ही चुके हैं कि घटनाक्रम क्या था और सब कैसे घटित हुआ। पुलिस अब घटना के तरीके की कभी आतंकवाद तो कभी माओवाद से तुलना कर रही है। यह भी कहा जा रहा है मृतक डी.एस.पी. ने कानपुर के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखकर बताया था कि किस तरह से अभय दुबे नामक दुर्दांत अपराधी को पुलिस विभाग ही संरक्षण दे रहा है। खबर है कि वह चिट्ठी गायब हो गई है। यह बात भी सामने आ गई है कि संबंधित थाने के कतिपय पुलिसकर्मियों ने इस छापामारी की पूर्व सूचना दे दी थी, जिससे कि वह सतर्क हो गया और उसने इस घटना को अंजाम दे दिया। चिड़िया जब खेत चुग गई तो पुलिस की तंद्रा टूटी। उसने बदला लेते हुए या प्रतिक्रिया स्वरूप आरोपी का हवेलीनुमा मकान उसी बुलडोजर से ध्वस्त कर दिया, जिससे कि घटना वाले दिन उनका रास्ता रोका गया था। अभय दुबे के वाहन नष्ट कर दिए गए। ये सब क्या दर्शाता है? क्या पुलिस को पूर्व में मालूम नहीं था कि वह मकान अवैध है और वहां से अवैध गतिविधियां संचालित होती हैं? उसके वाहन किस उपयोग में आते हैं? कैसे 25 पुलिसकर्मी थाने में हुई हत्या की गवाही में बयान से पलट गए? 60 से अधिक गंभीर अपराध करने वाले अपराधी को जमानत कैसे मिल जाती है? जमानत मिल जाने के खिलाफ ऊपरी/उच्च अदालतों तक, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय भी शामिल है, में अपील क्यों नहीं की जा रही थी। तीन दशकों तक उसका गुंडाराज कैसे चलता रहा? अब जो भी हो रहा है या किया जा रहा है वह प्रतिक्रिया है, क्रिया नहीं। और इसमें बेचारगी की स्थिति ज्यादा बनती है।

यहां पर केरल के पूर्व पुलिस महानिदेशक और सी.आर.पी.एफ. एवं बी.एस.एफ. के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक रहे एन.सी. अस्थाना की टिप्पणी बेहद महत्वपूर्ण प्रतीत होती है। उनका कहना है कि सामान्यतया दुर्दांत अपराधी भी पुलिस की प्रतिक्रिया और प्रतिशोध के डर से पुलिसकर्मी की हत्या करने से बचते हैं। यदि दुबे ने आठ पुलिसकर्मियों को मार डाला है तो इसका अर्थ यह निकलता है कि उसे पक्का विश्‍वास था कि पुलिस पार्टी उसे गिरफ्तार करने नहीं बल्कि एनकाउंटर के माध्यम से उसे खत्म करने को आ रही थी। जिस तरह से घात लगाकर हमला करने की तैयारी नजर आ रही है, उससे प्रतीत होता है कि पुलिस पर की गई गोलीबारी दुष्टतापूर्ण वीरता दिखाने के लिए नहीं की गई थी। उसने यह सब जानबूझकर कर किया था। श्री अस्थाना की बात बेहद तर्कपूर्ण जान पड़ती है। हमें याद रखना होगा कि एक राज्यमंत्री स्तर के नेता की हत्या करने के बावजूद उसे उस मामले में और अन्य मामलों में जमानत मिल जाती है, तो उसमें गिरफ्तारी को लेकर एकाएक इतनी भयानक उत्तेजना क्यों पैदा हुई?

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याद रखिए राज्यमंत्री हत्या वाले मामले में 25 पुलिसकर्मियों ने बयान बदल दिए थे और वह बरी हो गया था। उत्तर प्रदेश पुलिस ने पिछले कुछ अर्से से जो माहौल बनाया था कि एनकाउंटर के माध्यम से अपराधों पर काबू पाया जा सकता है, इस मामले में तो उनका वार संभवतः उल्टा पड़ गया और वे ही इसके शिकार हो गए। मीडिया में यह खबरें भी आ रही हैं वह पहले भी पुलिस टीम पर गोली चला चुका था और एक सर्किल अफसर को बंधक भी बना चुका था। तो इस बार उसने ऐसा हत्याकांड क्यों किया?

बहरहाल मुद्दा यह है कि तमिलनाडु में हिरासत में मौत का मामला हो या उत्तर प्रदेश में पुलिसकर्मियों की हत्या का या फिर विकास दुबे के एनकाउंटर का, तीनों ही मामले में हिंसा का स्वरूप कमोवेश एक सा है। एक सा घृणित व एक सा वीभत्स। एक अनूठा क्षितिज सा दिखाई पड़ रहा है, जहां दोनों ही पक्ष बजाय कानूनी रास्ता अपनाने के कानून अपने हाथ में ले रहे हैं और अभियोजक, न्यायाधीश से लेकर जल्लाद तक की भूमिका खुद ही निभा लेना चाहते हैं। प्रसिद्ध सामाजिक विज्ञानी डॉ. श्यामचरण दुबे का कहना है कि, ‘‘समाज की जड़ें अतीत में होती हैं, वह वर्तमान में जीता है और भविष्य उसके लिए चिंता और प्रावधान का विषय होता है।’’ भारत की प्रशासनिक व्यवस्था इस कथन की पहली दो शर्तें तो पूरी करती है, पर वह भविष्य की चिंता और प्रावधान को गैरजरुरी मानती हैं। वह तो स्थायी वर्तमान में है और यथास्थिति में कोई परिवर्तन नहीं चाहती। वर्ना यह कैसे संभव था कि विकास दुबे विनाश दुबे में रुपांतरित हो गया? थाने में एक के बाद एक पुलिस व अन्य अफसर आते गए, जाते गए परन्तु किसी ने उसे छेड़ा नहीं। और जब प्रयास किया गया तो वर्तमान एकबार पुनः भविष्य पर भारी पड़ गया।

विकास दुबे का एनकाउंटर आजादी के बाद से लेकर अब तक की अवधि में पुलिस की सबसे बड़ी विफलताओं में से एक है। पुलिस को पूरी जांच के बाद उसे कानूनी रास्ते से सजा तक पहुंचाना चाहिए था। मगर उसने ऐसा नहीं किया।

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महात्मा गांधी कहते थे कि, ‘‘भारत की आजादी अहिंसक है। वहां अपराध तो होंगे। लेकिन कोई अपराधी नहीं होगा। उन्हें दंडित नहीं किया जाएगा। अपराध भी अन्य बीमारियों की तरह एक बीमारी है और यह विद्यमान सामाजिक पद्धति का उत्पाद है। अत:एव सभी अपराध, जिसमें हत्या भी शामिल है, का बीमारी की तरह ही उपचार किया जाएगा।’’ परन्तु भारत में आजादी के बाद से ऐसा कोई प्रयास किया ही नहीं गया। हम देख रहे हैं कि अपराध की दुनिया में प्रवेश करने वाला फिर शायद ही कभी समाज में लौटा हो। और लौटता भी है तो विकास दुबे बनकर। बापू मानते थे कि अपराधियों के साथ बीमारों जैसा व्यवहार होना चाहिए और जेलों को अस्पताल की तरह उनका उपचार कर उन्हें निरोग बनाना चाहिए। परन्तु हो तो इसके ठीक विपरीत हो रहा है। थाने नामक डिस्पेंसरियों और जेल नामक अस्पतालों में ही इस कदर संक्रमण हो गया है कि, जो उनमें जाता है वह संक्रमित होकर ही निकलता है। पुलिस थानों में जैसा व्यवहार होता है, उससे तो पीड़ित ही दहशत में आ जाता है। तमिलनाडु का मामला इसका जीवंत उदाहरण है। बापू एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं, कि ‘‘समुदाय अपराध करते हैं और अपराधी भी अपराध करते हैं। परन्तु समुदाय ही मुख्य अपराधी है।’’  कानपुर के मामले में अपराधी को मिली सामाजिक व राजनीतिक मान्यता ही अपराधी को एक पृथक (अवैधानिक) न्याय व्यवस्था में परिवर्तित कर देती है। भारत के प्रत्येक राज्य के प्रत्येक थाने में (अपवाद छोड़ दें) एक ना एक विकास दुबे मौजूद है और वह अपनी अदालत चलाता है। समाज की बेरुखी या इसे बुजदिली कहना ज्यादा उपयुक्त होगा, इन समानांतर अवैध न्याय व्यवस्था की शरण में जाती है। यदि हमें पुलिस व्यवस्था व उनके व्यवहार को बदलना है तो लंबे चौड़े प्रयासों की बजाए शुरूआत थोड़े से की जा सकती है। अभी जितनी आवश्‍यकता हैं उससे 20 प्रतिशत अधिक पुलिसकर्मियों की तत्काल भर्ती करें और उन्हें साप्ताहिक व अन्य सभी अवकाश अनिवार्यतः उपलब्ध कराएं। तभी सुधार की शुरुआत हो सकती है। पुलिसकर्मी को हर हाल में सामान्य जीवन उपलब्ध होना ही चाहिए। पुलिस की कार्यशैली जैसी आज दिखाई पड़ रही है, वह पिछली दो शताब्दियों की निरंतरता लिए हुए है। अभी उसे लोकतांत्रिक बनाने की आवश्‍यकता है। पाश कहते हैं, ‘‘मैं तो सिर्फ एक आदमी बनना चाहता था। यह क्या बना दिया गया हूं?’’