दफ्तर दरबारी: ब्यूरोक्रेसी की चाल से एमपी में हुई 10 हाथियों की हत्या
MP News: लुप्त हो चुके चीतों को पुन: बसाने के प्रयास कर रही मध्यप्रदेश सरकार पर दाग लग गया है कि वह राष्ट्रीय विरासत पशु हाथी को बचा नहीं पा रही है। सतही कारण जो भी हो अफसरों की 'शाही चाल' ही 10 हाथियों की मौत का कारण बनी।
हाथियों की मौत: 100 घंटे बाद जागी सरकार, जांच समितियां गठित मूल मुद्दे पर बात नहीं
भारत सरकार ने 2010 में हाथी को राष्ट्रीय विरासत पशु घोषित किया है। देश के वन्य जीवन के इतिहास में यह पहला मौका है जब मध्यप्रदेश के बांधवगढ़ क्षेत्र में एक साथ 10 जगली हाथियों की मौत हुई है। अब सरकार निशाने पर है। कई जांच समितयां बनाई जा चुकी हैं। हाथियों की मौत का प्रारंभिक कारण जहरीली फसल खा लेना बताया जा रहा है। मगर वास्तव में यह वन विभाग की लापरवाही द्वारा की गई हाथियों की हत्या है। इस सुस्त और लापरवाह चाल के कारण ही इंसान और वन्य प्राणियों के बीच जानलेवा संघर्ष बढ़ने की स्थितियां बन गई हैं।
हाथियों की मौत भारत में वन्य प्राणियों और मनुष्यों के बीच जारी खूनी संघर्ष की एक कड़ी है। भारत में लगभग 88 हाथी गलियारे हैं। छत्तीसगढ़ हाथियों का मुख्य निवास है। हाथी गलियारा वन भूमि की संकीर्ण पट्टियां हैं जो बड़े हाथियों के आवासों को जोड़ती है। दक्षिण भारत में हाथी गलियारे का 65 फीसदी भाग संरक्षित क्षेत्रों या आरक्षित वनों के अंतर्गत आता है। लेकिन मध्य क्षेत्र में केवल 10 फीसदी हाथी गलियारे पूरी तरह से वन क्षेत्र है। 90 फीसदी क्षेत्र में वन, कृषि और बस्तियां हैं। कोयला और लौह अयस्क खनन जैसी गतिविधियां मध्य भारत में हाथी गलियारे के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
हाथियों को भोजन के लिए व्यापक चरागाहों की आवश्यकता होती है, ऐसे में वे छत्तीसगढ़ के रास्ते से मध्यप्रदेश के उमरिया क्षेत्र में आ जाते थे और अपने समय पर वापस चले जाते थे। तथ्य और वन विभाग की समीक्षा बैठकें बताती है कि 2015-16 में आए हाथियों में से कुछ हाथी वापस छत्तीसगढ़ नहीं गए। उन्हें बांधवगढ़ का वन्य क्षेत्र पसंद आ गया। मध्य प्रदेश में रह गए हाथियों का इंसानों से संघर्ष हुआ तो वन विभाग के अफसरों ने संजय टाइगर रिर्जव और बांधवगढ नेशनल में उन्हें रेस्क्यू कर दिया गया। संभव है कि हाथियों को बांधवगढ़ में रख लेने के पीछे पर्यटन को बढ़ावा देने का उद्देश्य भी होगा। लेकिन, इसके भविष्य के खतरों पर विचार नहीं हुआ।
हाथी समुदाय में रहने वाला प्राणी है। जब कुछ साथी नहीं पहुंचे तो छत्तीगढ़ से और हाथी उमरिया में आ गए। उधर छत्तीसगढ़ के मरवाही में हाथियों को डराने, भगाने विस्फोटकों और बिजली के खुले तालों का प्रयोग खुल कर होने लगा। जो हाथी आए थे वे भी उमरिया में रह गए। वन्य अफसरों ने वन विभाग की स्टेट एडवायजरी बोर्ड में 2016-17 में प्रस्ताव भेज कर इन हाथियों को रखने बारे में पूछा था मगर इस पर कोई फैसला नहीं हुआ। बता दूं कि इस बोर्ड के अध्यक्ष सीएम होते हैं।
उमरिया के वन क्षेत्र में हाथियों के रह जाने से इंसानों से संघर्ष बढ़ गया। ग्रामीण फसलों के चौपट होने से नाराज है। बीते 8-9 सालों में हाथियों के साथ संघर्ष में करीब 30 ग्रामीणों की मौत हुई है। ऐसे में यह आशंका बलवती है कि मारने के लिए हाथियों को जहरीला पदार्थ खिला दिया गया। या ऐसी स्थितियां बना दी गई कि हाथी स्वत: मर जाएं।
सरकार ने पहले मामलों को हलके में लिया। घटना के सौ घंटे बाद सीएम ने आपात बैठक बुलाई। इस बैठक में भी अफसरों ने हाथियों की मौत का जो कारण बताया उससे मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव भी संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने वन राज्यमंत्री के साथ दो वरिष्ठ अफसरों को जांच का जिम्मा दे दिया।
प्रशासनिक और राजनीतिक लापरवाही का उदाहरण है कि बीमार हाथियों को समय पर चिकित्सा सुविधा मिलने में दिक्कत आई। मांगे गए प्राणी चिकित्सक इलाज के लिए पहुंच ही नहीं पाए। उधर, वन्य प्राणियों के लिए कार्य करने वाली संस्थाएं आरोप लगा रही हैं कि बांधवगढ़ में विशेषज्ञ वन्य अफसर नियुक्त नहीं है। ये सारी पोस्टिंग राजनीतिक आधार पर की गई है, विशेषज्ञता के आधार पर नहीं। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में राज्य स्तरीय स्टीयरिंग कमेटी गठित नहीं होने से वन्य प्राणी संरक्षण में लापरवाही हो रही है।
बैठक, जांच दल और फिर कार्रवाई का आश्वासन, यह प्रक्रिया तो चलती रहेगी लेकिन सवाल यही है कि जब उमरिया क्षेत्र में भी इंसान और हाथियों के बीच संघर्ष की स्थितियां बन रही थी तक सरकार ने क्या किया? पहली बार ही छत्तीसगढ़ लौट कर नहीं गए हाथियों को रेस्क्यूं किया गया तो उनके लिए पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम क्यों नहीं हुए? वन समितियों और आदिवासियों से इस संबंध में चर्चा क्यों नहीं की गई? हाथियों के विस्थापन या उनके निवास को सुरक्षित करने के कमतर प्रयास क्यों किए गए? इन्हीं सवालों का बने रहना हाथियों की मौत का कारण है।
शाही सर्विस हैं इसलिए घी उनकी थाली में
इंडियन सिविल सर्विस को कभी व्यंग्य में शाही लोक सेवा कहा जाता था। इसके अपने कारण भी है। कहते हैं देश से ब्रिटिश चले गए लेकिन ब्यूरोक्रेट के रूप में अपना एक रूप छोड़ गए। इसका कारण भी है। खुद को देश के प्रशासनिक तंत्र का दिमाग मानने वाले अफसर हर हाल में अपने फायदे का रास्ता निकाल लेते हैं। इन पर अक्सर आरोप लगता है कि ये सत्ता को भी अपने हिसाब से संचालित कर लेते हैं। इंडियन सिविल सर्विस यानी आईएएस, आईपीएस और आईएफएस समर्थ हैं इसलिए लाभ के मामले में अन्य कर्मचारियों से अलग हैं। कर्मचारी संगठन आरोप लगता हैं कि अफसर बोनस, एरियर, टीए-डीए के मामले में कर्मचारियों कर मांगों की फाइलों को अटकाते रहते हैं लेकिन जब उनकी खुद की बारी आती है तो फाइल कहीं नहीं रूकती।
एक बार फिर ऐसा ही हुआ। प्रदेश के कर्मचारियों और अधिकारियों को भले ही महंगाई भत्ता एरियर्स के रूप में किस्तों में दिया जाएगा अफसरों को एकमुश्त मिलेगा। आईएएस, आईपीएस, आईएफएस अधिकारियों को एरियर्स की राशि एकमुश्त देने के निर्देश केंद्र सरकार ने दिए और मध्य प्रदेश में भी तुरंत केंद्रीय अधिकारियों को महंगाई भत्ते की राशि एक साथ देने के आदेश जारी कर दिए गए हैं।
एमपी के कर्मचारी तो अपने महंगाई भत्ते को लेकर ही परेशान है। तृतीय श्रेणी कर्मचारी संघ के महामंत्री उमाशंकर तिवारी का कहना है कि सीएम ने जनवरी 2024 से 4 फीसदी महंगाई भत्ता देने की घोषणा की है जबकि मांग तो जुलाई 2024 से 3 फीसदी भत्ता देने की भी है। दूसरे राज्य दे चुके हैं तो मध्य प्रदेश देरी क्यों कर रहा है?
कर्मचारियों का वेतन कम होता हैं। महंगाई की मार उन्हीं पर तुलनात्मक रूप से ज्यादा है लेकिन अफसरों ने अपना हिस्सा पहले ले लिया। बाकि कर्मचारी किस्तों में चैन पाते रहें, उन्हें उनकी परेशानी से क्या?
समर्थ अफसरों के आगे कोर्ट भी असहाय!
मध्यप्रदेश में एक नया वर्क कल्चर दिखाई दे रहा है कि ब्यूरोक्रेसी से विधायिका भी परेशान हैं और न्यायपालिका भी। बीते दिनों बीजेपी विधायकों ने अफसरों के खिलाफ अलग-अलग मोर्चा खोल दिया था। परेशान हो कर बीजेपी विधायक पुलिस अधिकारी की चरण वंदन करते तक नजर आए थे। कोर्ट भी बार-बार अफसरों के खिलाफ टिप्पणियां कर रही हैं।
ताजा मामले में इंदौर खंडपीठ ने सख्ती टिप्पणी की है। एक शिक्षिका को दी गई राहत के कोर्ट के आदेश का पालन नहीं होने पर न्यायाधीश ने नाराजगी प्रकट की है। एक साल में भी आदेश का पालन नहीं होना हाई कोर्ट ने अवमानना माना है। इसके बाद कोर्ट ने स्कूल शिक्षा विभाग की प्रमुख सचिव आईएएस रश्मि अरुण शमी और स्कूल शिक्षा आयुक्त आईएएस संजीव सिंह के खिलाफ नामजद वारंट जारी किए हैं। इन वारंटों में पुलिस को दोनों अधिकारियों को कोर्ट के सामने पेश करने का आदेश दिया गया है।
अधिकारियों पर टिप्पणी का यह पहला मामला नहीं है। बीते कुछ सालों में ऐसे आधा दर्जन मामले हुए हैं जब कोर्ट ने ताकतवर अफसरों के खिलाफ नकारात्मक टिप्पणियां और कार्रवाई की है। जबलपुर हाईकोर्ट ने 6 माह में भी उसके आदेश पर अमल नहीं करने पर आईएएस संजय दुबे से सख्त लहजे में बात की थी। कोर्ट ने कहा था कि अफसर काम नहीं कर सकते तो इस्तीफा दे दें। मई 2024 में महिला शिक्षक के पक्ष में फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारियों की मनमानी पर फटकार लगाते हुए मध्य प्रदेश सरकार पर 10 लाख रुपये का जुर्माना लगाया था।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने पन्ना के तत्कालीन कलेक्टर संजय कुमार मिश्रा को कहा था कि वह कलेक्टर बनने के लायक नहीं हैं और राजनीतिक एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं। ऐेसे कई मामले हैं जो बदले वर्ककल्चर को बताते हैं। जिनके आधार पर वे शिकायतें सच लगती है जिनमें कहा जाता है कि अफसरशाही बेलगाम हो रही है।
बवाल के बाद बदल गई एसपी के पत्र की भाषा
दीपावली पर कई जगह जुआ खेलने का रिवाज है। इस रिवाज को देखते हुए इस सप्ताह जबलपुर के पुलिस कप्तान का एक पत्र वायरल हुआ। जुआरियों पर कार्रवाई के लिए लिखे गए इस पत्र की भाषा को लेकर एसपी साहब ऐसा घिर गए।
पुलिस अधीक्षक संपत उपाध्याय के नाम से जारी आदेश में लिखा गया था कि नदी, कुआं, तालाब और ऊंची इमारतों में चल रहे जुए के फड़ों पर कार्रवाई नहीं की जाएगी। रेड के पहले अच्छे तरीके से पता कर लिया जाए आसपास कुंआ, तालाब, नहर, नदी तो नहीं है, यदि है तो रेड नहीं होगी। पुलिस की उपस्थिति का एहसास कराया जाए, ताकि वे खुद भाग जाएं।
जैसे यह पत्र वायरल हुआ लोग चटकारे लेने लगे। सवाल उठे कि एसपी साहब जुआ बंद करवाना चाहते हैं या कि जुआरियों को बच कर निकल जाने का मौका देना चाहते हैं। अपराधियों से पुलिस की मिली भगत के आरोप भी लगे। छत्तीसगढ़ में एक व्यक्ति की पुलिस से बच कर भागने के दौरान हुई मौत के बाद यह पत्र जारी किया गया था। इस बात पर कुछ लोगों ने एसपी की संवेदनशीलत और समझदारी की तारीफ भी कि लेकिन पत्र की भाषा से बखेड़ा तो खड़ा हो ही गया। अंतत: कुछ ही घंटों बाद इबारत बदल कर दूसरा पत्र जारी करना पड़ा।