कर्नाटक: पहला सार्थक कदम

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के परिणाम इस मामले में बेहद महत्वपूर्ण रहे क्योंकि इससे भारत की जनता के विवेकवान होने पर छाया कोहरा काफी हद तक छंटता हुआ नजर आ रहा है। जाहिर है, यह शुरूआत ही है। अभी उत्तर, पश्चिम और मध्यभारत में कोहरा घना ही है। कांग्रेस की जीत इस मायने में बेहद महत्वपूर्ण है कि अपवादों को छोड़ दें तो इसका पूरा प्रचार अभियान बेहद शालीन और सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ था

Updated: May 23, 2023, 09:49 AM IST

'मेरी दृष्टि में राजनीतिक सत्ता कोई "साध्य" नहीं है, परंतु जीवन के प्रत्येक विभाग में लोगों के लिए अपनी हालत सुधार सकने का एक "साधन" है। राजनीतिक सत्ता का अर्थ है राष्ट्रीय प्रतिनिधियों द्वारा राष्ट्रीय जीवन का नियमन करने की शक्ति। अगर राष्ट्रीय जीवन इतना पूर्ण हो जाता है कि, वह स्वयं आत्मनियमन कर ले, तो किसी प्रतिनिधित्व की आवष्यकता नहीं रह जाती है'
महात्मा गांधी - 1931

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के परिणाम इस मामले में बेहद महत्वपूर्ण सिद्ध हुए क्योंकि इससे भारत की जनता के विवेकवान होने पर छाया कोहरा काफी हद तक छंटता हुआ नजर आ रहा है। जाहिर है, यह शुरूआत ही है। अभी उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत में कोहरा घना ही है। कांग्रेस की जीत इस मायने में बेहद महत्वपूर्ण है, कि अपवादों को छोड़ दें तो इसका पूरा प्रचार अभियान बेहद शालीन और सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ था। दूसरा स्थानीयता यहां एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। तीसरा चुनावी कटुता के बावजूद यहां हमें खिले हुए व मुस्कराते चेहरे दिखे! भारतीय संदर्भों में यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। अनेक चुनावों बाद भारत में वर्ग चेतना को लेकर बात उठी। 

अल्पसंख्यकों को लेकर स्पष्ट मत रखने में कंजूसी नहीं की गई। बजरंग दल और पीएफआई जैसे संगठनों को प्रतिबंधित किए जाने का दावा किया गया। साथ ही कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की पुर्नस्थापना का प्रयास भी कांग्रेस की ओर से स्पष्ट तौर पर सामने आया। परंतु यह ध्यान में रखना होगा कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ व तेलंगाना, कर्नाटक नहीं हैं और यहां पर कांग्रेस, अभीतक कर्नाटक जैसी राजनीतिक चेतना अभिव्यक्त नहीं कर पाई है। 

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हिन्दी भाषी राज्यों में अधिकांश राजनेताओं ने धार्मिक कथावाचकों को अपना प्रवक्ता बनाने का विचित्र उपक्रम प्रारंभ किया है। इन राज्यों में हर पचास किलोमीटर पर कहीं न कहीं कथावाचक प्रवचन करते मिल जाएंगे और बड़े शहरों में हर पांच किलोमीटर पर एक कथावाचक का पंडाल लगा मिला जाएगा। इस प्रक्रिया से लोकतंत्र, राजनीति और राजनीतिज्ञ तीनों ही संकट में पड़ गये हैं। आम जनता के मन में राजनीतिक चेतना का घटते जाना लोकतांत्रिक समाज के लिए बेहद खतरनाक है। दक्षिणपंथी ताकतों का सत्ता में आने के लिए किए जा रहे प्रयास, इसी प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं और सत्ता के आ जाने के बाद वे इसे पूरी ताकत से क्रियान्वित भी करते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या संभव था कि भारत के 85 करोड़ लोग मात्र 5 किलो मुफ्त अनाज को अपनी उपलब्धि या जीत मानने लगते? गांधी तभी तो राजनीतिक सत्ता को साधन मानते थे, जबकि आज के हालात में सत्तोता ही "साध्य" बन गयी है और आम जनता महज "साधन’’ बनकर रह गयी है। कर्नाटक चुनाव में बहुत दिनों बाद जनता में थोड़ी राजनीतिक चेतना पुन: विकसित होती दिखाई दी है। 

मण्टो लिखते हैं, "क्या इंसानियत से हमें दस्तरदार (अलग) होना चाहिए .... क्या  हमारा उससे, जिसे जमीर कहते हैं, ऐतबार उठ जाना चाहिए? कुछ समझ में नहीं आता कि इन सवालों का जवाब क्या है या क्या होना चाहिए।’’ कर्नाटक में पिछले कुछ वर्षों से हलाला, हिजाब जैसे मसलों को लेकर जिस उग्रता और निरंकुशता से विषैला वातावरण बनाया जा रहा था, उसके सामने कांग्रेस ने राहुल गांधी, प्रियंका गांधी व मल्लिकार्जुन खरगे के साथ ही साथ सिद्धारमैया और डी.के शिवकुमार को संयमित व संतुलित व्यवहार से प्रचार करते देखा, उससे यह उम्मीद भी बंधी कि हमारे देश में अभी महात्मा गांधी की अहिंसा की भावना खत्म नहीं हुई है। यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि कनार्टक में धार्मिक उन्माद का प्रभाव अभी शहरी मध्यवर्ग में पैठ बनाए हुए है। यह भी उल्लेखनीय है कि भाजपा जो यह दावा कर रही है कि उसका मत प्रतिशत कम नहीं हुआ, का विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि उसे मिलने वाले मतों (पिछली विधानसभा) में से करीब पांच प्रतिशत मत कांग्रेस की ओर गए हैं और उसकी भरपाई भाजपा को जनता दल (सेक्युलर) के मतों से हुई है। अतएव यह मानना कि भाजपा को अभी भी अपने पुराने सारे समर्थकों का समर्थन हासिल है, कहना ठीक नहीं होगा।
 
भारत में अगले पंद्रह महीने चुनावी मौसम के हैं। प्राकृतिक मौसम इस बीच पृष्ठभूमि में चला जाएगा। इसकी शुरूआत दो हजार के नोट बंद करने से हो गई है। अभी न तो कर्नाटक चुनावों पर ज्यादा बात हो रही है और न ही मौसम की बदहाली पर। फिर भी सबकुछ चुनावी ही है। सारा इलेक्ट्रानिक मीडिया इस बात पर जुटा पड़ा है कि सन 2024 में होने वाले आमचुनाव में क्या कोई नरेंद्र मोदी को चुनौती दे पाएगा? यह बेहद खतरनाक है कि संसदीय चुनाव प्रणाली में पूरी राजनीतिक चर्चा को दल की बजाय व्यक्ति केंद्रित कर दिया गया है। अतएव कांग्रेस व अन्य राजनीतिक दलों को मीडिया के इस मकड़जाल में न फंसने की कोशिश करना चाहिए बजाए इसके कि जाल में फंसने के बाद बाहर निकलने के लिए अंधाधुंध मेहनत करने के यह आसान नहीं है। जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, वहां पर मुख्यमंत्री की दावेदारी करीब-करीब तय हो चुकी है। ऐसे में यह बात उठनी भी स्वाभाविक है कि केंद्र में चेहरा कौन होगा? पंरतु इस सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हिन्दी भाषी प्रदेशों और पश्चिम भारत के राज्यों में, सांप्रदायिकता की बढ़ती और मदमाती फितरत से कैसे निपटा जाए? जाहिर है फिलहाल तो इसे स्थानीय स्तर पर ही निपटना होगा, खासकर विधानसभा चुनावों के मद्देनजर!

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मध्य प्रदेश में तो सिवाय धार्मिक कर्मकांड के वर्तमान सत्ताधारी नेतृत्व के पास और कोई विकल्प है ही नहीं। अपनी चौतरफा असफलता को छिपाने का और कोई जरिया भी उसके पास नहीं है। प्रदेश में सर्वाधिक शिशु व मातृ मृत्युदर, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में करीब दो दशकों से प्राध्यापकों की स्थायी नियुक्तियों का अभाव, असीमित स्तर तक पैठ बना चुका भ्रष्टाचार, हर साल बुआई के मौसम में खाद की कमी, कानून की बिगड़ती स्थिति, भयानक बेरोजगारी और गरीबी जैसी अन्य तमाम विसंगतियां सामने स्पष्ट दिखाई पड़ रही हैं। इससे निकलने का एकमात्र उपाय के रूप में उन्हें अभी तो धार्मिक क्रिया-कलाप ही नजर आते हैं। साथ ही महिलाओं को सीधे आर्थिक सहायता का प्रावधान!  इस सबके चलते कांग्रेस के लिए सामाजिक समरसता और वर्ग चेतना का ही रास्ता बच रहता है। कर्नाटक में कांग्रेस ने जिस साहस के साथ सांप्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठाया है, क्या वही हिम्मत मध्य प्रदेश में हमें दिखाई पड़ेगी? व्यापम जैसा घोटाला भी अभी तो आम जनता का स्मृति से बाहर हो गया है, क्या वह पुन: सामने आ पाएगा?
    
हाल ही में एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म (ए डी आर) ने एक आंकड़ा जारी किया है। इसके अनुसार आजादी के बाद करीब 60 साल तक शासन में रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कुल संपत्ति करीब 588 (पांच सौ अठ्यासी) करोड़ रू की है। वहीं मात्र 13 वर्षों तक शासन/सत्ता में रही भाजपा की कुल संपत्तियां करीब 4847 (चार हजार आठ सौ सैतालिस) करोड़ रू हो चुकी है। यानी कांग्रेस से करीब 8 गुना अमीर है भाजपा। इससे जो जाहिर हो रहा है, उसको प्रचारित करना आज की बड़ी जरूरत है। इसी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर अभी बहुत स्पष्टता नहीं है कि राजनीतिक दलों की रणनीति क्या होगी। परंतु कर्नाटक का चुनाव इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इसके नतीजों ने सांप्रदायिकता व भ्रष्टाचार दोनों को बेहद कठोरता के साथ नकारा है। भाजपा व संघ अभी भी अपने एजेंडे से बहुत हटे नहीं हैं और इसका जीवंत प्रमाण है, कि नए संसद भवन का उद्घाटन विनायक दामोदर सावरकर के जन्मदिन पर करना और बजाय राष्ट्र प्रमुख के तौर पर राष्ट्रपति से उद्घाटन कराए जाने के, प्रधानमंत्री द्वारा स्वंय क्रेडिट के तौर पर उद्घाटन करना.. वास्तव में बेहद आश्चर्यचकित और विचलित करने वाला है। 

इसी के समानांतर दिल्ली की प्रशासनिक स्थिति पर सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा दिए गए निर्णय को नकारते हुए अध्यादेश लाना बताता है कि वर्तमान सरकार अपना शिकंजा बरकरार रखना चाहती है। आम आदमी पार्टी इससे काफी विचलित है और सभी विपक्षी दलों से राज्यसभा में सहयोग मांग रही है। इस पर फारूक अब्दुल्ला की टिप्पणी बेहद प्रासंगिक है कि सन 2019 में धारा 370 खत्म करने के प्रस्ताव का तो आम आदमी पार्टी ने समर्थन किया था। वैसे कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को सहयोग का वायदा कर दिया है। 

 भारतीय लोकतंत्र इस वक्त पुनः बड़े स्तर पर जनभागीदारी की बाट जोह रहा है, हालांकि यह बेहद जोखिम भरा भी है। मगर आज की परिस्थिति में कांग्रेस ही वस्तुतः एकमात्र राष्ट्रीय दल बची है। ऐसे में उसकी नैतिक व राजनीतिक जिम्मेदारी बहुत ज्यादा हो जाती है। आजादी के पहले के इस संदर्भ पर गौर करना जरूरी है। बात सन् 1930 के गांधी और कांग्रेस के सविनय अवज्ञा आंदोलन की है। इरफान हबीब अपनी पुस्तक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन व राष्ट्रवाद में लिखते हैं, "सन् 1930 में कारावास का अर्थ था कि उस व्यक्ति को कभी नौकरी नहीं मिलेगी। समझौते में वह अपनी संपत्ति भी खो सकता था। इस कारण हमें इस बात से आश्चर्य होता है कि सविनय अवज्ञा आंदोलन में 90 हजार से अधिक लोग ऐसी परिस्थिति में भी जेल गए थे। अपनी भूमि को हारने और परिवार से बाहर हो जाने की बात को ध्यान में रखिए। यदि हम इन बातों को ध्यान में रखते हैं तो देशभर में और उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रांत (एन.डब्लू एफ पी) में भी, सविनय अवज्ञा आंदोलन एक महत्वपूर्ण घटना थी।"

आज तकरीबन एक शताब्दी बाद देश, कांग्रेस से उसी तरह के समर्पण की उम्मीद कर रहा है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के कारण बहुत वर्षों बाद देश ने इतने बड़े पैमाने पर किसी जमीनी राजनीतिक गतिविधि से साक्षात्कार किया है।
 
महात्मा गांधी ने अपने अठारह रचनात्मक कार्यों में सबसे पहले सर्वधर्म समभाव को रखा है। उनका मानना था कि भारत तभी भारत बना रह सकता है, जब यहां सांप्रदायिक सद्भाव कायम रहे। यह भी तय है कि भारत में धार्मिक अलगाव की विद्रूपता बढ़ाने में अंग्रेजों की बेहद रूचि थी और वे समझ चुके थे कि बिना धार्मिक भेदभाव को बढ़ावा दिए भारत में लंबे समय तक शासन कर पाना उनके लिए संभव नहीं है। यह बात आरएसएस और उसके राजनीतिक व सामाजिक अनुयंग भी समझ गए। अंग्रेजों के जाने के बाद ईसाई धर्मावलंबी भी उनकी इस फेहरिस्त में शामिल हो गए। इसीलिए अब वर्तमान सरकार इतिहास के अध्ययन से मुगल काल को पूरी तरह से बेदखल कर देना चाहती है। 

इस तथ्य पर गौर करिए कि उन्नीसवी शताब्दी के शुरूआती वर्षों में जब तक अंग्रेज पूरी तरह से भारत के शासक नहीं बन पाए थे, तब क्या स्थिति थी। राजा राम मोहन राय उस समय के बड़े ही दूरदर्शी नेता था। उन्होंने सन् 1830 में ही यह बताया था कि भारत एक राष्ट्र नहीं है, क्योंकि वह जातियों में विभक्त है। वे चाहते और उचित समझते तो जातिगत विभाजन के समानांतर धार्मिक विभाजन को भी रेखांकित कर सकते थे परंतु तब तक भारत धार्मिक आधार पर विभाजित नहीं हुआ था। भले ही तब तक मुस्लिम शासकों को यहां राज करते सात सौ वर्षों से ज्यादा बीत गए हों। अत: आवश्यक है कि कांग्रेस कर्नाटक की ही तरह पूरे देश में अल्पसंख्यकों को भारतीय मुख्यधारा का अनिवार्य अंग माने! कर्नाटक ने भारत को नया भरोसा दिया है परंतु राह अभी बहुत लंबी है। 

कांग्रेस व भाजपा सांसदों की संख्या में करीब 6 गुने का अंतर है। अगर इस समीकरण को बदलना है तो इस वर्ष राज्यों के विधानसभा चुनावों को उसी तैयारी व समर्पण के साथ लड़ना होगा जैसा कि कर्नाटक में लड़ा गया है। नरेश सक्सेना की कविता ’’रंग’’ वह सब समझा रही है, जिससे कि भारत बना है और बना रहेगा। ये पंक्तियां हैं...
सुबह उठकर देखा तो आकाश 
लाल, पीले, सिन्दूरी और गेरूए रंग से रंग गया था 
मजा आ गया, "आकाश हिन्दू  हो गया है’’
पड़ोसी ने चिल्लाकर कहा
"अभी तो और मजा आएगा’’ मैंने कहा
बारिश आने दीजिए सारी धरती मुसलमान हो जाएगी।’’
दूर क्षितिज पर आकाश और धरती दोनों मिल जाते हैं। भारत वहीं से शुरू होता है!