दफ्तर दरबारी: 11 बच्चों की मौत, अफसर का पत्र, भ्रष्टाचार पर बात कर लो सरकार
MP News: मिलावटी कफ सिरप के कारण प्रदेश में एक माह से बच्चे बीमार हैं। 11 बच्चों की मौत हो चुकी है लेकिन दोषी पर कार्रवाई में सरकार को एक माह लग गया। अब भी वास्तविक दोषी सजा से दूर हैं। ऐसे में भ्रष्टाचार पर एक आईएफएस अधिकारी का मुख्यमंत्री को लिखा गया पत्र चर्चा में आ गया है।

मध्य प्रदेश में कफ सिरप की वजह से 11 बच्चों (कुछ मीडिया संस्थानों के अनुसार 13 बच्चे) जान गंवा बैठे हैं। तमिलनाडु, राजस्थान और केरल में तो ऐसे मामले सामने आते ही दवाई पर प्रतिबंध लगा दिया गया और अन्य कार्रवाई हो गई लेकिन मध्य प्रदेश में तो सिस्टम पहले दवा के जहरीला होने को ही खारिज करता रहा। फिर जब जांच रिपोर्ट में खुलासा हो गया तो सरकार ने सख्त कार्रवाई का संदेश देते हुए कफ सिरप की बिक्री प्रतिबंधित की, एफआईआर की और एक डॉक्टर को गिरफ्तार कर लिया गया।
सरकार की यही ‘सख्त’ कार्रवाई है। तमिलनाडु की तरह मध्यप्रदेश में भी कफ सिरप तुरंत बैन होना था लेकिन यहां तो मंत्री और अफसर नकारते रहे कि कफ सिरप से मौत हो रही है। जब जांच रिपोर्ट में सिद्ध हो गया तो डॉक्टर पर कार्रवाई की गई। यह कैसी कार्रवाई कि जिन डॉक्टरों ने दवा लिखी उनमें से तीन के नाम एफआईआर में हैं मगर गिरफ्तार किए गए एक डॉक्टर। उन पर भी ऐसी मामूली धाराओं में केस दर्ज किया गया जिनमें आसान जमानत का प्रावधान है।
जांच रिपोर्ट आने तक सरकार कफ सिरप का बचाव करती रही जबकि अन्य राज्य बैन कर चुके थे। बच्चे के बीमार होने का पहला मामला 24 अगस्त को आया। 4 सितंबर को पहली मौत हुई। सरकार को जांच करने और एफआईआर होने में एक महीने से ज्यादा का वक्त लग गया। दूसरे राज्य जहां बच्चों की मौत पर तुरंत कदम उठा रहे थे, वहीं मध्यप्रदेश में सिस्टम एक महीन की सुस्त चाल से चल रहा था, मानो समय के साथ इस मामले के भी ठंडे पड़ने का इंतजार हो रहा है।
हर बार ऐसे मामलों में कार्रवाई की गाज छोटे कर्मचारी पर गिरती है। इस मामले में भी यही हुआ। डॉक्टर पकड़ा गया। मगर सिरप को अनुमति और जांच करने वाले अफसर फिलहाल बचे हुए हैं। दवा में मिलावट की जांच करने वाले ड्रग कंट्रोलर, दवा कंपनी के मालिक पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। जो मंत्री पहले दिन से कफ सिरफ के निर्माताओं का बचाव कर रहे थे अब मुख्यमंत्री के एक्शन की प्रशंसा कर रहे हैं। असल में एक दर्जन बच्चों की मौत डॉक्टर के गलत दवा लिखने से नहीं, ड्रग कंट्रोलर, स्वास्थ्य विभाग का अमले के लापरवाह और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाने से हुई। यह तथ्य भी गौरतलब है कि रीवा-शहडोल संभाग में कफ सिरफ का उपयोग नशे के रूप में हो रहा है। नशे के लिए तस्करी की कफ सिरप की तस्करी की जाना आम बात है। रीवा पुलिस ने पिछले एक वर्ष में जितना कफ सिरप पकड़ा है उतना पहले कभी नहीं पकड़ा गया।
साफ है, कफ सिरप दवा कम जहर और नशीला पदार्थ ज्यादा है। इस पूरे मामले में सरकार, उसका सिस्टम बराबरी का जिम्मेदार है। वह सिस्टम जो ऐसे अपराधों को होने देता है, जिस पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं और जिसे बचाने के लिए मंत्री मैदान में आ जाते हैं। देखना तो यही है कि क्या अब दोषी अफसरों पर भी एफआईआर होगी, जिन्होंने ऐसी दवा कंपनियों से आंखें मूंदें रखी हैं? या फिर सिर्फ तमाशा होगा जैसा इंदौर में चूहों द्वारा बच्चों को कुतर जाने के मामले में हुआ।
भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा सिस्टम
स्वास्थ्य तंत्र में भ्रष्टाचार के इन आरोपों के पहले पीडब्ल्यूडी विभाग घोटालों और लापरवाहियों के आरोप झेल चुका है। भोपाल और इंदौर में 90 डिग्री कोण के ब्रिज बना कर विभाग की अच्छी-खासी किरकिरी हो चुकी है। सरकार लगातार कर्ज लेकर लाड़ली बहना योजना को संभाले हुए हैं। ऐसे में सीएम मोहन यादव के कार्यकाल की पहली कलेक्टर–कमिश्नर, एसपी–आईजी कांफ्रेंस को लेकर भी एक खास तरह की मांग हुई है।
रिटायर्ड आईएफएस आजाद सिंह डबास ने 7 और 8 अक्टूबर को भोपाल में हो रही कलेक्टर-कमिश्नर, एसपी-आईजी कांफ्रेंस के संदर्भ में मुख्यमंत्री का पत्र लिखा है। आईएफएस डबास ने कहा है कि बेहतर होता कि एक सत्र में भारतीय वन सेवा के मैदानी अधिकारियों को भी शामिल किया जाता ताकि वन भूमि पर हो रहे अंधाधुंध अतिक्रमण, अवैध उत्खनन, अवैध कटाई, वन-राजस्व भूमि विवाद और वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत वितरित किए जा रहे वन अधिकार पत्रों के सबंध में सार्थक चर्चा होती।
आजाद सिंह डबास ने लिखा है कि यह कहने में कोई गुरेज नही है कि वरिष्ठ अधिकारियों की सांठ-गांठ के बगैर प्रदेश में डंपर घोटाला, व्यापम घोटाला, ई-टेण्डिरिंग घोटाला, पोषण आहार घोटाला, वृक्षारोपण घोटाला, सिंहस्थ घोटाला, दवा घोटाला इत्यादि सैकड़ों घोटाले हो ही नही सकते थे। भ्रष्टाचार के चलते प्रदेश में शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाएं चरमराई हुई हैं। हर विभाग में भ्रष्टाचार का बोल-बाला है अतः इस भ्रष्टाचार पर चर्चा न करना सच्चाई से मुंह मोड़ना है। बेहतर होता कि इस अति विकराल समस्या पर भी इस कांफ्रेंस में विस्तृत चर्चा कराई जाती ताकि इसका कोई स्थाई हल निकलता।
आजाद सिंह डबास ने लिखा है कि रिटायर्ड आईएफएस का पत्र ऐसे समय आया है जब स्वास्थ्य विभाग में भ्रष्टाचार की चर्चा है। औपचारिक रूप से न सही, अनौपचारिक रूप से सत्ता और संगठन तक भ्रष्टाचार की शिकायतें पहुंच तो रही ही हैं।
विधायक से पंगा लो और बने रहो कलेक्टर!
जी हां, सही पढ़ा आपने। विधायकों से पंगा लेकर भी कलेक्टर बना रहा जा सकता है। यह तब संभव है जब विधायक विपक्ष से हो। यदि मैदानी पोस्टिंग के दौरान बीजेपी विधायक से विवाद हुआ है तो अफसर का हटना तय है, जैसे दो बीजेपी विधायकों के विरोध के चलते भिंड और डिंडौरी कलेक्टर को बदल दिया गया लेकिन ढ़ाई साल की सेवा पूरी करने के बाद भी रीवा कलेक्टर प्रतिभा पाल बची रह गईं।
अप्रैल 2023 में प्रतिभा पाल के इंदौर नगर निगम कमिश्नर रहते हुए बावड़ी हादसा हुआ था। बावड़ी में गिरने से 36 लोगों की मौत हो गई थी। उस समय इंदौर नगर निगम की कार्यशैली को लेकर सवाल उठे थे। हादसे के छह दिन बाद ही उनका इंदौर से ट्रांसफर हो गया।
रीवा में भी उनकी कार्यशैली विवादों से घिरी रही। कांग्रेस विधायक अभय मिश्रा से विवाद भी सुर्खियों में रहा है। एक बैठक में नहीं बुलाने से नाराज सेमरिया से कांग्रेस विधायक अभय मिश्रा गुरुवार को कलेक्ट्रेट परिसर में छह घंटे तक धरने पर बैठे। विधायक मिश्रा ने रीवा कलेक्टर प्रतिभा पाल की ईमानदारी पर सवाल उठाते हुए कहा है कि अगर वे कह दें कि ईमानदार हैं तो वे पोल खोल देंगे। आकलन है कि कांग्रेस विधायक अभय मिश्रा परेशान हो कर जितना विरोध करेंगे कलेक्टर के बने रहने की संभावना उतनी ही मजबूत रहेगी।
नेहा मारव्या 14 साल में कलेक्टर बनी, 8 माह में हटी
कहते हैं जो चीज जितने संघर्ष से मिलती है उतना ही उसे सहेजा जाता है। मगर लगता है, आईएएस नेहा मारव्या इस सिद्धांत को भूल गईं। यही कारण है कि बड़ी मुश्किलों और संघर्ष के बाद 14 साल में उन्हें कलेक्टर बनाया गया लेकिन स्वभाव और कार्यप्रणाली ही उनकी बाधा बन गई। उनका अंदाज ऐसा रहा कि सरकार ने आठ माह में ही भोपाल बुला लिया।
बीते सप्ताह सरकार ने 12 जिलों के कलेक्टरों को बदला तो इसमें एक नाम डिंडौरी कलेक्टर नेहा मारव्या का भी था। उनका हटना अप्रत्याशित नहीं है क्योंकि बीते कुछ समय से शहपुरा से बीजेपी विधायक और पूर्व मंत्री ओमप्रकाश धुर्वे लगातार डिंडौरी कलेक्टर नेहा मारव्या की शिकायत कर रहे थे। इस नाराजगी की वजह कलेक्टर नेहा मारव्या का बर्ताव भी है।
2011 बैच की आईएएस नेहा मारव्या अपनी सर्विस की शुरुआत से ही विवादों से घिरी रही हैं। 2017 में शिवपुरी जिला पंचायत की सीईओ रहते हुए उन्होंने कलेक्टर की गाड़ी का बिल रोक दिया था। फिर भोपाल में मुख्यसचिव और प्रमुख सचिव से भिड़ गई थीं। इसके बाद उन्हें लूप लाइन में भेज दिया गया था। मोहन यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद जनवरी 2025 में उनकी एक पोस्ट सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी। आईएएस सर्विस मीट के पहले दिन आईएएस आफिसर्स एसोसिएशन के ग्रुप में उन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए लिखा था कि मैं बिना काम के बैठी हूं, मेरे पास कोई काम नहीं है।
इस पोस्ट के बाद उन्हें डिंडौरी कलेक्टर बनाया गया था।
आईएएस बनने के 14 साल बाद जब नेहा मारव्या कलेक्टर बनी तो माना गया था कि वे फील्ड में खुद को साबित करेंगी लेकिन आरंभ में ही उनकी बीजेपी विधायक ओमप्रकाश धुर्वे से खटपट हो गई। जनजातीय विभाग के 438 शिक्षकों के तबादले करने से भी विधायक ओम प्रकाश धुर्वे नाराज थे। इस मामले में भोपाल से हस्तक्षेप कर ट्रांसफर आदेश निरस्त किया गया था। इस तरह आठ माह में ही नेहा मारव्या की कलेक्टरी चली गई। अफसरों के बीच यह मामला एक केस स्टडी की तरह है कि कैसे मैदान में सत्ता और स्वयं की अपेक्षाओं के साथ तालमेल कर काम करना चाहिए।