माननीयों को क्‍यों मिले मुफ्त सुविधाएं, आप क्‍या सोचते हैं

भाजपा के प्रदेश मीडिया प्रभारी लोकेंद्र पाराशर ने पूर्व विधायकों की भत्ता बढ़ाने और टोल फ्री वाली माँग पर ट्वीट किया है कि काश!, पूर्व माननीय बैठक में इन मांगों के अलावा जरूरतमंदों के लिए कोई अभूतपूर्व मांग करते तो अच्छा होता। इन सुविधाओं में वृद्धि और भाजपा के अंदर से उठे सवाल के बाद वह बहस फिर चर्चा में आ गई है कि क्‍या पूर्व विधायकों व सांसदों को सुविधाएं मिलनी चाहिए या नहीं?  मिलनी चाहिए तो कितनी व कितने दिनों तक...

Updated: Mar 04, 2022, 11:28 AM IST

Photo Courtesy: east coast daily
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मप्र के करीब 400 पूर्व विधायकों को विधायक विश्रामगृह (रेस्ट हाउस) में तीन दिन रुकना और नाश्ता अब फ्री मिलेगा। उनके लिए 25 कमरे भी आरक्षित रहेंगे। सरकार में प्रोटोकॉल, रेलवे में एसी-फर्स्ट किराए की सुविधा और हवाई यात्रा के साथ मप्र भवन (दिल्ली) में कमरे के लिए तवज्जो मिलने से जुड़े मसलों को सदस्य सुविधा समिति देखेगी। पूर्व विधायकों के संघ की इन मांगों पर विधानसभा अध्यक्ष डॉ. गिरीश गौतम ने सहमति दे दी है। विधानसभा में गुरुवार को पूर्व विधायकों के कार्यक्रम में हुए इस निर्णय पर सवाल उठने लगे हैं। सबसे पहला सवाल तो भाजपा के प्रदेश मीडिया प्रभारी लोकेंद्र पाराशर ने ही उठाया। पूर्व विधायकों की भत्ता बढ़ाने और टोल फ्री वाली मांग पर पाराशर ने ट्वीट किया है काश!, पूर्व माननीय बैठक में इन मांगों के अलावा जरूरतमंदों के लिए कोई अभूतपूर्व मांग करते तो अच्छा होता। इन सुविधाओं में वृद्धि और भाजपा के अंदर से उठे सवाल के बाद वह बहस फिर चर्चा में आ गई है कि क्‍या पूर्व विधायकों व सांसदों को सुविधाएं मिलनी चाहिए या नहीं?  मिलनी चाहिए तो कितनी व कितने दिनों तक?
यह सवाल इसलिए भी महत्‍वपूर्ण है कि दलितों व पिछड़ों के आरक्षण, किसानों को मिलने वाली सुविधाओं और राहतों पर जब तब सवाल उठा दिए जाते हैं। एक वर्ग है जिसे महसूस होता है कि उनके दिए टैक्‍स पर बड़े वर्ग को पोषित किया जाता है। वे लोक-कल्‍याणकारी राज्‍य की अवधारणा पर ही प्रश्‍न उठाते हुए तर्क देते हैं कि किसी को मुफ्त कुछ नहीं मिलना चाहिए। चाहे कोई कितना ही वंचित हो, उसे कुछ कीमत तो चुकानी ही चाहिए। कॉर्पोरेट संस्‍कृति में ढलते समाज में यह तर्क समर्थन बढ़ा रहा है। पूर्व विधायकों की सुविधाओं पर आपत्ति व समर्थन के पीछे लोक कल्‍याणकारी राज्‍य और पूंजीवादी सत्‍ता सरोकारों की भी बहस है।

पूर्व विधायकों की मांगों को क्‍यों माना जाना चाहिए? इस सवाल का जवाब जसवंत सिंह ने ही दिया है। उन्‍होंने सार्वजनिक रूप से कहा है कि पूर्व विधायक मांग करते हैं, तो खिल्लियां उड़ाई जाती हैं। कम कीमत में मिलने वाले खाने को लेकर आलोचना होती है। हम लोगों की तकलीफ सुनते है, लेकिन हमारी तकलीफ सुनने वाला कोई नहीं है। पूर्व विधायक होने के बावजूद दो-दो रुपये के लिये हाथ फैला रहे हैं। पूर्व विधायकों को कोई किराए से भी मकान नहीं देता है। पूर्व विधायकों को संसदीय सचिव के बराबर की सुविधा मिलनी चाहिए।

पूर्व विधायकों की पीड़ा यह भी है कि विधायकी चली जाने के बाद भी वे जनप्रतिनिधि हैं और क्षेत्र में लोग उनसे काम करवाने या राहत दिलवाने की आस रखते हैं। एक तरफ पार्टी में सुनवाई नहीं होती, दूसरी तरफ प्रशासन भी उनकी बातों को तवज्‍जो नहीं देता। विधायकी गई है, जनता का नेतृत्‍व नहीं। इसलिए सुविधाएं मिलना जनता के हित में ही होगा। उन्‍होंने मांग रखी थी कि भोपाल आने के दौरान यहां ठहरना महंगा होता है। इसलिए विधानसभा के रेस्ट हाउस में रुकने के लिए किराया न लिया जाए। अभी पूर्व विधायकों को पहले तीन दिन 20 रुपए रोज और इसके बाद तीन दिन 50 रुपए और इसके बाद 100 रुपए रोज के हिसाब से किराया देना पड़ता है। इसके साथ ही मांग की है कि विधानसभा दफ्तर में होने वाले चाय नाश्ते का खर्च भी विधानसभा कार्यालय उठाए। विधायकों ने सड़कों पर टोल टैक्स से छूट और पेंशन बढ़ाने की भी मांग की है।
इस मांग के विपरित पूर्व विधायकों को मुफ्त सुविधाएं न देने की मांग के पीछे भी मजबूत तर्क हैं। सवाल यह है कि अमीर से अमीर हो रहे जनप्रतिनिधियों को आखिर मुफ्त सुविधाएं क्‍यों चाहिए? मध्‍यप्रदेश जैसे कई राज्‍य कर्ज के बोझ से दबे हैं मगर माननीयों की सुविधाओं में इजाफा हो ही रहा है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) के मुताबिक पिछले दस सालों के दौरान मध्‍य प्रदेश के विधायकों की सम्‍पत्ति दस गुना तक बढ़ी है। जबकि प्रति व्‍यक्ति आय तीन गुना ही बढ़ पाई है। 2008 में जहां विधायकों की औसत आय 1.51 करोड़ थी जो 2018 में बढ़ कर 10.17 करोड़ हो गई। इस दौरान प्रति व्‍यक्ति आय 32,453 से बढ़ कर मात्र 90,998 ही हुई है।

तर्क है कि इतने अमीर जनप्रतिनिधियों को मुफ्त के दाम पर सुविधाएं क्‍यों मिले? इसे शर्मनाक ही कहा जाएगा कि देश के करोड़पति, अरबपति जनप्रतिनिधि पेंशन लेते हैं और गरीब, वंचित, विधवा महिलाओं, नि:शक्‍त बुजुर्गों को 300 रुपए पेंशन भी समय पर नहीं मिल पाती है।
बहुत कम लोग जानते हैं कि हमारे देश में सांसदों और विधायकों को वेतन के अलावा काम करने के लिए भत्ता भी मिलता है। उन्‍हें संसद और विधानसभा की दिनभर की कार्यवाही में शामिल होने के लिए दैनिक भत्ता मिलता है। कर्मचारी काम करने के बदले वेतन पाते हैं मगर माननीयों को वेतन के अलावा दैनिक भत्ता मिलता है। सवाल यह है कि जब वेतन है तो भत्‍ता क्यों? खासकर, तब जब कई माननीय सदन में सक्रिय रहते ही नहीं है। सांसदों और विधायकों की पेंशन के लिए तो नियम है कि वे एक दिन ही लोकसभा या विधानसभा के सदस्य रहे होंगे तो भी जीवनभर पेंशन पाने के पात्र हो जाते हैं। पूर्व विधायक या लोकसभा सदस्य होते ही उसे पेंशन मिलने लगती है। पूर्व सांसदों के लिए पेंशन की व्यवस्था सभी लोकतंत्रात्मक देशों में है, परंतु उन्हें पेंशन उस दिन से मिलती है, जब उनकी उम्र कर्मचारियों की रिटायर्ड होने की आयु जितनी हो जाती है। जैसे यदि सरकारी कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष है तो पूर्व विधायक व सांसद को 60 वर्ष की उम्र होने के बाद ही पेंशन मिलेगी।
मोटे तौर पर संसद सदस्यों को प्रदान की गई सुख-सुविधाएं वेतन तथा भत्ते, यात्रा सुविधा, चकित्सा सुविधाएं, आवास, टेलीफोन आदि से संबंधित होती हैं। संसद सदस्य बीस हजार रुपये प्रति माह की दर से निर्वाचन क्षेत्र संबंधी भत्ता प्राप्त करने का हकदार है। प्रत्येक संसद सदस्य को 20,000 रुपये प्रति माह की दर से कार्यालय व्यय भत्ता मिलता है। इसके अलावा यात्रा भत्ता व यात्रा सुविधाएं भी मिलती हैं।
 
कोरोना महामारी के संकट के दौरान मांग उठी थी कि पूर्व सांसदों व विधायकों को मिलने वाली पेंशन व अन्य भत्तों पर तत्काल रोक लगा दी जानी चाहिए। इससे पहले 2017 में लोक प्रहरी नामक संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर पूर्व सांसदों को मिलने वाली पेंशन और अन्य सुविधाओं को रद्द करने की मांग की थी। तत्कालीन जज जस्टिस जे. चेलमेश्वर और जस्टिस संजन किशन कौल की पीठ ने इस मामले को कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर का बताते हुए यह याचिका खारिज कर दी थी। कोर्ट ने कहा था, 'हमारा मानना है कि विधायी नीतियां बनाने या बदलने का सवाल संसद के विवेक के ऊपर निर्भर है।'

दुनिया में भारत ही संभवत: इकलौता देश है जहां नेताओं को अपनी सुविधाएं तय करने आ अधिकार है। अन्‍य देशों में संसद नहीं बाहरी संस्‍था जनप्रतिनिधियों के वेतन, भत्‍ते आदि का निर्धारण करती हैं। इस मनमाने तरीके पर भी सुझाव दिए गए हैं कि माननीयों के वेतन, भत्‍ते, सुविधाएं तय करने के लिए आयोग का गठन किया जाए।

हालांकि, यह तर्क भी दिया जाता है कि‍ सभी पूर्व विधायक या सांसद करोड़पति नहीं है। कुछ बेहद सामान्‍य जीवन जी रहे हैं। खासकर वे जनप्रतिनिधि जिन्‍होंने समाजवाद, वामपंथ या ऐसी ही किसी अन्‍य शुचितावादी तौर तरीकों से राजनीति की है। पूर्व माननीयों को मिलने वाली मुफ्त सुविधाओं के पक्ष व विपक्ष में तर्क से अलग यह तथ्‍य विचारणीय है कि जब देश में जनता ने हर तरह की सब्सिडी को त्‍यागने की पहल की है तो समर्थ जनप्रतिनिधि भी अपने उन हकों को छोड़ें जिनके लिए वे आसानी से पैसा दे सकते हैं। मूल मुद्दा यह है कि अमीर माननीयों को सुविधाओं देने के विरोध में उठे स्‍वर वंचितों और वास्‍तविक हकदारों को मिलने वाली सहायता पर भी आपत्ति उठाने लगते हैं। आपत्ति जताते हुए सहायता पाने वाले समुदाय को जलील करने वाली शब्‍दावली का प्रयोग कर दिया जाता है। समाज में असमानता की यह खाई लगातार बढ़ती जा रही है। विधायिका इस ओर भी सोचें।