Hathras Case: बाबरी मस्जिद ध्वंस से भी घातक हाथरस कांड

हाथरस में भारतीय संविधान की आत्मा को चोट पहुंची है। अब हाथरस की वह लड़की एक प्रतीक बन गई है, भारतीय लोकतंत्र में व्याप्त निरंकुशता, असमानता और निष्ठुरता की। हाथरस की घटना पर गुस्सा करने से ज्यादा जरुरी है कि इस पर शोक प्रकट किया जाए और शर्मिंदा महसूस किया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि वहां और देशभर में पुलिस व प्रशासन जो व्यवहार कर रहा है, उसे लेकर हममें से अधिकांश मूक दर्शक बने हुए हैं। हम जब तक ऐसा करते रहेंगे। हाथरस घटित होते रहेंगे।

Updated: Oct 02, 2020, 02:17 AM IST

हाथरस में बलात्कार पीड़ित लड़की की मृत्यु और उसकी अवैध अंत्येष्टी को 24 घंटे भी नहीं बीते थे कि उत्तरप्रदेश के ही बलरामपुर में भी 22 वर्ष की लड़की के साथ ठीक वैसा ही निर्भम व्यवहार हुआ। उसकी भी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी गई जिसके परिणामस्वरूप उसकी भी मृत्यु हो गई। इसका सीधा सा अर्थ यह निकाला जा सकता है कि अपराध करने वालों के मन में इस बात का कोई खौफ नहीं है कि उनका कुछ बिगड़ भी सकता है। हाथरस बलात्कार कांड को महज एक आपराधिक कृत्य निरूपित कर देना, बेहद सरलीकरण होगा। वहां पर उस अभागी लड़की की मृत्यु के बाद जो कुछ घटित हुआ वह बाबरी मस्जिद ध्वंस से भी ज्यादा दुःखद, दर्दनाक व दूरगामी परिणाम देने वाला सिद्ध होगा। यह दुर्योग ही है कि जिस दिन बाबरी मस्जिद ध्वंस में सब आरोपियों को बरी कर देने वाला विवादास्पद फैसला आया ठीक उसी दिन हाथरस में लोकतंत्र व संविधान की मूल भावना को ध्वस्त कर देने की नई शुरुआत भी हो गई।

सरसरी तौर पर देखें तो लगेगा कि यह मामला इतना ही तो है कि एक लड़की की लाश का विवादास्पद ढंग से प्रशासन द्वारा अंतिम संस्कार कर दिया गया। परन्तु बात इतनी छोटी नहीं है। उत्तरप्रदेश का शासन-प्रशासन क्या इतना सक्षम नहीं है कि वह अंतिम संस्कार के लिए सुबह तक इंतजार नहीं कर सकता था? क्या मृत देह को पुलिस संरक्षण में उसके परिवार को सौंपा जाना प्रषासन के बस में नहीं था? शासन व प्रशासन को इस बात का अधिकार किसने दिया कि वे मृतक के परिवार की धार्मिक, पारिवारिक व आत्मीय भावनाओं का तिरस्कार कर स्वमेव अंतिम संस्कार की प्रक्रिया पूरी कर दें।  जब एक विशिष्ट धर्म में रात्रि में अंतिम संस्कार का कमोवेश निषेध है तो सरकारी अमले ने भारतीय जनता केन्द्र संविधान प्रदत्त अधिकारों का हनन किस आधार पर किया? उनके इस कृत्य ने भारतीय लोकतंत्र के सामने अंतहीन प्रश्न खड़े कर दिए हैं।

अब हाथरस की वह लड़की एक प्रतीक बन गई है, भारतीय लोकतंत्र में व्याप्त निरंकुशता, असमानता और निष्ठुरता की। आज तो यह सवाल भी अनुत्तरित है कि उस दिन किस लड़की का अंतिम संस्कार किया गया? न तो परिवार वालों को उसका मुंह दिखाया गया न ही कहीं यह स्पष्ट किया गया कि वहां श्मसान में जो भस्म हो रही है, वह देह किसकी है? याद रखिए पुलिस जीप पर अपना सिर पटकती महिला को सिर्फ उस लड़की की माॅं समझने की भूल मत करिएगा। वह सिर भारत की व्यक्तिगत आजादी पर पड़े प्रहार का प्रतीक है। अपना माथा सहलाकर देखिए, आपको वहां गुल्लमा उठा हुआ जरुर महसूस होगा।

हाथरस में भारतीय संविधान की आत्मा को चोट पहुंची है। जबरिया शवदाह की तात्कालिक प्रतिक्रिया यही होनी थी कि जिले के सभी वरिष्ठ अधिकारियों को कार्यालय खुलने से पहले निलंबित कर राजधानी लखनऊ में पहुंचा दिया जाना चाहिए था। वस्तुतः प्रथम दृष्टया तो यह मामला बर्खास्तगी का ही बनता है।

भारतीय संविधान अपनी उद्देशिका में सबसे पहले सामाजिक न्याय की बात करता है। इसी क्रम में आगे अवसर की समता और व्यक्ति की गरिमा की बात कही गई है। संविधान के मूल अधिकार अपने आप में स्तुत्य हैं। अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता की बात करते हुए समझाता है कि किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष क्षमता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा। परन्तु हाथरस में पीड़िता के परिवार को समता नहीं बल्कि एकतरफा अधिनायक वादी व्यवस्था का सामना करना पड़ा।  अनुच्छेद-15 धर्म, मूलवंश जाति, लिंग या जन्म के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। यहां तो परिवार को जैसे मनुष्य ही नहीं माना गया। संविधान का अनुच्छेद 19 शांतिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन की गारंटी देता है। उत्तर प्रदेश सरकार बताए कि पीड़िता के परिवार ने ऐसा क्या किया कि उन्हें जबरन रोका गया। संविधान का अनुच्छेद 26 धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्र देता है। इसी के खंड (ख) में कहा गया कि किसी भी धार्मिक समुदाय को अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने की स्वतंत्रता है, तो यह कैसे हुआ कि मृतका का अंतिम संस्कार धार्मिक रीति के विरुद्ध जाते हुए रात में कर दिया गया और इतना ही नहीं अंतिम संस्कार करना परिवार का विशेषाधिकार है। उसे इससे वंचित क्यों किया गया? वह मृत देह किसी अबोध लड़की की थी या किसी दुर्दांत आतंकवादी की? यदि किसी आतंकवादी की होती तो शायद, जी हां शायद सहन करने की थोड़ी बहुत गुंजाइश रहती। वैसे मृत देह सभी विषय वासनाओं से परे हो ही जाती है।

यदि प्रशासन को किसी बड़े बवाल का अंदेशा था तो वे परिवार को समझाबुझा कर दिल्ली ले जाकर उनके द्वारा अंतिम संस्कार करवा सकते थे। यह तो स्पष्ट है कि प्रशासन ने बहुत सोच समझकर और वरिष्ठतम की सहमति से ही यह कदम उठाया होगा। इसकी पीछे उनकी मंशा अपना वर्चस्व और कठोर बनाने की रही होगी।

महात्मा गांधी कहते हैं, "सर्वोच्च कोटि की स्वतंत्रता के साथ सर्वोच्च कोटि का अनुशासन और विनय होता है। अनुशासन और विनय से मिलने वाली स्वतंत्रता को कोई छीन नहीं सकता। संयमहीन स्वच्छंदता संस्कारहीनता की घोतक है, उससे व्यक्ति की अपनी और पड़ौसियों की भी हानि होती है।" गौर करिए हमने बाबरी मस्जिद ध्वंस में एक वर्ग की स्वच्छंदता देखी और हाथरस वाले मामले में प्रशासनिक स्वच्छंदता का विकृत रूप सामने आया। जिस तरह की भाषा व तल्खी का प्रयोग हाथरस के कई अधिकारियों ने किया वह शर्मिंदा करता है।

वैसे भी हाथरस की घटना पर गुस्सा करने से ज्यादा जरुरी है कि इस पर शोक प्रकट किया जाए और शर्मिंदा महसूस किया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि वहां और देशभर में पुलिस व प्रशासन जो व्यवहार कर रहा है, उसे लेकर हममें से अधिकांश मूक दर्शक बने हुए हैं। हम जब तक ऐसा करते रहेंगे। हाथरस घटित होते रहेंगे। निर्भया कांड के बाद बदली गई कानूनी प्रक्रिया और मृत्युदंड का प्रावधान भी परिस्थितियों को बदल नहीं पा रहा है? ऐसा क्यों हो पा रहा है? संभवतः इसका कारण यहीं है कि विद्यमान प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारना चाहते हैं। हमें लगता है कि यह सुधर सकती है, जबकि यह आमूल परिवर्तन की मांग करती है। इसीलिये हाथरस में हुआ मानवता ध्वंस बाबरी मस्जिद ध्वंस से ज्यादा खतरनाक है।

हमारे यहां और विश्व के तमाम देशों में आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रक्रिया बेहद विचित्र है। हावर्ड जेहर लिखते हैं, "अपराध न्याय प्रणाली में पीड़ित तो हमेशा हाशिये पर रहता है। इतना ही नहीं न्याय प्रक्रिया में उसका प्रतिनिधित्व या भागीदारी अपराध के मसले पर एक फुटनोट से ज्यादा नहीं रहती।" अपराध दर्ज होते ही राज्य सर्वेसर्वा बन जाता है। पीड़ित या पीड़िता के सारे अधिकार राज्य को हस्तांतरित हो जाते हैं और पीड़ित (हत्या हो जाने या मृत हो जाने की स्थिति में उसका परिवार) महज एक दर्शक बनकर रह जाता है।

आप स्वयं देख लीजिए बलात्कार के मामलों कितना समय बीत जाने के बाद रिपोर्ट दर्ज की जाती है। हाथरस मामले का ही विस्तार से अध्ययन कीजिए, सब समझ में आ जाएगा। यहां तो चरम स्थिति निर्मित हुई कि पीड़िता की मृतदेह तक परिवार को नहीं मिल पाई। यानी वह दर्शक भी नहीं रह पाया। अत:एव आवषश्यक है कि आपराधिक न्याय प्रणाली में पीड़ित को भी अपनी तरफ से पैरवी का मौका मिले जैसा कि दीवानी मामलों में होता है। हम पुलिस सुधार की बात तो करते हैं, परन्तु परिवर्तन से डरते हैं।

हाथरस मामले में काफी बवाल सा मच गया है। परन्तु इस मामले में अन्याय सिर्फ पीड़िता के साथ नहीं हुआ है बल्कि संविधान की व कानूनों की अवहेलना भी हुई है, अत: विरोध को महज इस घटना तक सीमित न रखकर अधिक व्यापक स्वरुप प्रदान करना पड़ेगा। भारतीय शासन तंत्र के बढ़ते अधिनायकवादी स्वरुप से सचेत होकर उसे बदलने का प्रयास करना होगा।

हमें यह भी याद रखना होगा कि इसे महज एक  दल से जोड़ना भी समाधान के रास्ते में रोड़ा बनेगा। यह तय है कि पिछले कुछ वर्षों में इस प्रवृत्ति का विस्तार हुआ है। उत्तर प्रदेश में क्रूरता का जो दौर चल रहा है वह पूरे राष्ट्र के लिए घातक है। कार का लगातार पलटते रहना और एनकाउंटर की ताजपोशी लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। निर्भया कांड के बाद दी गई अनुशंसाओं में न्यायमूर्ति वर्मा ने स्पष्ट तौर पर मृत्युदंड की खिलाफत की थी। महिला संगठनों ने भी फांसी का विरोध किया था। अगर हमें बलात्कार के बाद की पाशविकता को काबू में करना है तो सबसे पहले देश में मृत्युदंड पर रोक लगानी ही होगी। यह कैसे हो पाएगा? गांधी जी ने आजादी के बाद कहा था, ‘‘सच्ची लोकशाही केन्द्र में बैठे हुए बीस आदमी नहीं चला सकते। वह तो नीचे से हर एक गांव के लोगों द्वारा चलायी जानी चाहिए।‘‘

आज गांव-गांव में लोगों की भागीदारी की बात तो छोड़ दीजिए, हम सभी जानते हैं कि केन्द्र में अब कितने लोग शासन के ‘‘केन्द्र‘‘ में हैं और जो कुछ पूरे राष्ट्र में हो रहा है, वह किसी से छुपा भी नहीं है। सवाल उठता है कि समाधान कहां तलाशें? शायद सुकरात की यह बात कुछ समाधान निकाल पाए। वे कहते हैं, ‘"शुक्र है, कम से कम मैं यह तो जानता हूॅं कि मैं क्या नहीं जानता।" भारत के शासनकर्ताओं को अपनी सर्वज्ञ की मानसिकता से निकलकर उन सबको साथ लेना होगा जो अपने-अपने क्षेत्रों में थोड़ा बहुत जानते हैं। अंत में पुनः यही कि हाथरस कांड बाबरी मस्जिद ध्वंस से ज्यादा गंभीर है।