संसद को छोड़ें, सड़क पर उतरें

संसद में बहस नहीं हो रही और सड़कें तो पहले ही अंधी, गूंगी और बहरी हो चुकी हैं। सड़कों से आवाज उठनी बंद हो गई है, इसीलिए संसद को भी आसानी हो गई है। मणिपुर या नूह को लेकर भारत बंद की कोई मांग सामने नहीं आई है। सब अपने-अपने ’’कंफर्ट जोन’’ में हैं। प्रधानमंत्री की चुप्पी मायने ही नहीं रखती। वस्तुत : राजनीतिक दलों और समाज से इतनी जोर से आवाज उठनी चाहिए थी कि आसमान भी थर्रा जाए।

Updated: Aug 04, 2023, 08:11 PM IST

"सरासर झूठ है ये कि तुम बेखबर थे/तुम्हें सब पता था/ कि मणिपुर जल रहा था/ और तुम खामोश थे-चुप थे/ये खामोशी तुम्हारी सियासत का/ हुनर पहचानती है/ ये सीना पीटकर/वहशी दरिंदो की तरह से/खून पीना जानती है।’’ :-  गौहर रजा 

मणिपुर आज भी जल रहा है। उसकी चिंगारी हरियाणा और उत्तरप्रदेश तक पहुंचने लगीं है। वह चिंगारी रेल के डिब्बे में सिपाही की ड्यूटी कर रहे वर्दीधारी सिपाही के जेहन में आग लगा चुकी है। वह नाम पूछता है, दाढ़ी देखता है और गोली से एक ज्वालामुखी को नए सिरे से जिंदा कर देता है। हरियाणा के नूह कस्बे में भयानक सांप्रदायिक हिंसा की शुरूआत मोनु मानेसर के एक वीडियो से होती है। ये वही मोनू मानेसर है, जिसने कुछ महीने पहले राजस्थान के जुनैद व नासिर को कथित तौर पर उन्हीं की कार में जिंदा जला दिया था। इसके बाद जब राजस्थान पुलिस उसे गिरफ्तार करने हरियाणा आई थी तो उनके ही खिलाफ पुलिस रिपोर्ट दर्ज की गई थी। एक भगोड़ा अपनी फरारी में भी सोशल मीडिया पर अतिसक्रिय है। उसके फेसबुक पर 83 हजार और यूट्यूब पर 2 लाख से ज्यादा ’’फालोवर्स’’ हैं। 

दंगा किसी भी ओर से या कोई भी करे, अक्षम्य है। परंतु यदि राज्य के गृहमंत्री एक अपराधी को क्लीन चिट दें और मुख्यमंत्री कहें कि पुलिस राज्य के प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा नहीं कर सकती तो क्या अब हरेक नागरिक अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी स्वयं ले और अपने निजी सुरक्षाकर्मी नियुक्त करे? क्या राष्ट्र राज्य अब अपने नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण भी नहीं करेंगे? मणिपुर में तो यह हो ही गया है। वहां दोनों समुदायों ने अपने-अपने बंकर बना लिये हैं और लगातार मरने मारने पर उतारू हैं।

गौहर रजा आगे कहते हैं, ’’इसे मालूम है/कब आग बस्तियों में लगवानी है/ इसे मालूम है कि वहशी दरिदों को/कब तक छूट देनी है/ इसे मालूम है/कि कब तक बरेना (नग्न) औरतों/को देखकर खामोश रहना है।’’ 

पूरे देश में धार्मिक यात्राएं निकल रही हैं। शासन प्रशासन उनकी आवभगत में लगा है। संसद में बहस नहीं हो रही और सड़कें तो पहले ही अंधी, गूंगी और बहरी हो चुकी हैं। सड़कों से आवाज उठनी बंद हो गई है, इसीलिए संसद को भी आसानी हो गई है। मणिपुर या नूह को लेकर भारत बंद की कोई मांग सामने नहीं आई है। सब अपने-अपने ’’कंफर्ट जोन’’ में हैं।  प्रधानमंत्री की चुप्पी मायने ही नहीं रखती। वस्तुत : राजनीतिक दलों और समाज से इतनी जोर से आवाज उठनी चाहिए थी कि आसमान भी थर्रा जाए। क्या प्रधानमंत्री के जवाब देने भर से वातावरण बदल जाएगा? 

समूचा विपक्ष लोकसभा से इस्तीफा देकर अभी से चुनाव मैदान में क्यों नहीं उतरता? महात्मा गांधी अभी भी सोए नहीं हैं। उनके मानने वाले राजनीतिज्ञ क्या वास्तविक संघर्ष भूल गए हैं। भारत की राज्यों की विधानसभाएं क्या इस विषय पर विशेष सत्र का आह्वान नहीं कर सकतीं? क्यों नहीं ’’इंडिया समूह’’ के राजनीतिक दल इस विषय पर संसद के संयुक्त सत्र की मांग नहीं कर रहे? जबकि वास्तविकता तो यही है कि मणिपुर में जो सन 2023 में हो रहा है। वह गुजरात 2002 का विस्तार ही है। सर्वोच्च न्यायालय का मणिपुर मामले में सीधा हस्तपेक्ष यह सिद्ध कर रहा है कि भारत की विधायिका और कार्यपालिका पूरी तरह से असफल हो गई हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री की स्वीकारोक्ति इसकी दर्दनाक सच्चाई है।

गौहर रजा आगे कहते हैं, ’’इसे मालूम है/आंखों से आंसुओं के/धारों को निकालना है/तुम्हारी ये अदाकारी/जिसपे नाज है तुमको/न अब ये तुमको बचाएगी/न ये उनको/कि जिनको तुमने/मुल्क की इज्जत /को बेचा है।’’

अगर आज भारत के लोग यह समझ रहे हैं कि यह जो कुछ हो रहा है, वह सन 2024 के आमचुनावों को अपने पक्ष में करने के लिए ही है, तो फिर इसका विरोध मच्छरदानी में बैठकर तो हो नहीं सकता। सड़कें को ही आबाद करना होगा, उनको आंख, कान और मुंह पुन : उपलब्ध कराने होंगे। संसद और विधानसभाएं कमोवेश यथास्थिति के पक्षधर होते जा रहीं है। विपक्षी दलों की राज्य सरकारें केवल अपना ही प्रचार करने के बजाए सांप्रदायिकता के खिलाफ चार-चार पृष्ठ के विज्ञापन क्यों नहीं जारी करतीं? जनसंवाद से क्या उन्हें किसी ने रोका है? संसद में प्रधानमंत्री का बयान देना या नहीं देना एक बराबर है। यह कोई व्यक्तिगत या राजनीतिक दल की अपनी प्रतिष्ठा का सवाल नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि मणिपुर में महिलाओं से अभद्रता वाला वीडियो जारी होने से पहले सिवाय राहुल गांधी के वहां की समस्या एवं भयावहता एवं नृशंसता पर किसी ने भी मजबूत आवाज नहीं उठाई। सबसे बड़ा सवाल यह है कि सांप्रदायिकता को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने से सभी राजनीतिक दल कहीं न कहीं बच रहे हैं। 

प्रवचन देने वाले बाबाओं की ’’डिमांड’’ पक्ष विपक्ष दोनों में बराबरी से है। राजनीतिक दल युवाओं को लामबंद कर पाने की कोशिश ही नहीं कर रहे हैं।  राजनीति में चुनाव-जीतने या हारने से ज्यादा महत्वपूर्ण है, जनसमस्याओं को प्रासंगिक बनाए रखना। अडानी का राजनीतिक विमर्श से बाहर हो जाना बता रहा है कि कोई अकेला ईमानदारी से एक हद तक ही संघर्ष कर सकता है।

नज्म में आगे है, ’’तुम्हारी ये अदाकारी/ सियासत के खुले बाजार में/अब बिक नहीं सकती/हदें जब पार हो जाएं/वतन की आंख में जब आंसू हों/शर्मिंदगी के/गुस्सा फूट निकलता है।’’ 

जनता का गुस्सा कब फूटेगा? सांप्रदायिकता तो अब रेल में दौड़ रही है। हाथरस से पनपी यह हिंसा मुंबई के पास जाकर वाया गुजरात एक सिपाही की बंदूक से अंगारे दाग रही है। भारतीय मीडिया मणिपुर को चार मिनट देने को तैयार नहीं है, जबकि नूह की सांप्रदायिकता को चार दिन से लगातार जिंदा बनाए हुए है। सवाल सिर्फ इतना है कि ये मीडिया कर्मी रात में सो कैसे पाते होंगे? ये वीभत्सता क्या उन्हें विचलित नहीं करती? क्या उनकी नौकरी और गुलामी में अब फर्क खत्म हो गया है? गांधी कहते हैं, ’’मैं हिन्दू मुस्लिम एकता की समस्या को छोड़ने का साहस नहीं करता। यह मनुष्य के हाथों से निकल गई तो इसका उपाय केवल ईश्वर के हाथों में है। जैसे द्रौपदी को उसके पतियों ने, मनुष्यों ने, देवताओं ने त्याग दिया था और उसने केवल ईश्वर से सहायता की प्रार्थना की थी और ईश्वर ने उसको सहायता दी थी!’’ क्या हमारे सामने भी यही विकल्प बचा है? संविधान और विवेक दोनों अपना महत्व क्यों खोते जा रहे हैं? 

भूख, गरीबी, सामाजिक व आर्थिक असमानता से ध्यान हटाने के लिए यह सब हो रहा है और हमसब जानते-बूझते भी यह सब होने दे रहे हैं। मणिपुर में चीरहरण से आगे की स्थिति बनी और अधिकांश भारतीय मुंह लटकाए बैठे हैं। क्या हमने खुद को दांव पर लगा दिया है? और हम खुद को हार चुके हैं? क्या लोकतंत्र में चुनाव में जीत के बाद विजेता के अलावा सब अस्तित्वहीन हो जाते हैं? सामाजिक बदलाव में संविधान, कानून, संसद मददगार हो सकते हैं, लेकिन अंतत: तो जनता ही है जो इन तीनों को प्रासंगिक बनाती है। आज जनता अप्रासंगिक हो गई है। प्रसिद्ध नाट्यकार ब्रेख्त तो बहुत पहले ’’एक नई जनता’’ की उम्मीद लगाए बैठे थे।

प्रधानमंत्री ने विपक्षी गठबंधन को ’’इंडिया नहीं घमंडिया गठबंधन’’ कहा। इससे यह तो पता चल ही जाता है कि उनके पास अब राजनीतिक शब्दावली का अभाव  हो गया है। और यह इसलिए भी कि वे राजनीतिक तौर पर स्वयं को सहज नहीं मान  रहे हैं। तीसरी या तीसवीं बार भी प्रधानमंत्री बन जाना मायने नहीं रखेगा यदि वे भारत के असतित्व पर गहराते संकट पर संबोधित नहीं होते।

 गौहर रजा अंत में लिखते हैं, "डरो उस वक्त/वतन की औरतें उठकर/तुम्हें उरिया करेंगी/तुम्हारी अदाकारी का पर्दा फाड देंगी/कोई बच्चा कहेगा/बताओ मां/यही राजा है न/जिसे किसी बुनकर ने/सभी के सामने/नंगा किया था।’’