बलात्कार कोई बरसात नहीं है
भारत में औसतन प्रतिवर्ष करीब 32000 बलात्कार के मामले रिपोर्ट होते हैं यानी एक दिन में करीब 90 मामले और इसे और ध्यान से देखें तो भारत में प्रति 16 मिनट में एक बलात्कार होता है।
बलात्कार को “पाशविक कहा जाता है पर यह पशु की तौहीन है, पशु बलात्कार नहीं करते। सुअर तक नहीं करता, मगर आदमी करता है।”
हरिशंकर परसाई
बलात्कार कोई बरसात का मौसम नहीं है, जिसमें साल भर सोते रहे मेंढक जागकर एकाएक टर्राने लगते हैं, उछलकूद मचाने लगते हैं। बलात्कार सभी मौसमों में घटने वाली विभीषिका है। कोलकता की चिकित्सक के साथ जिस तरह की नृशंसता हुई है, वह अब अकल्पनीय नहीं रह गई है। दिल्ली में निर्भया बलात्कार कांड के बाद उभरी सजगता बरसों बाद एक दूसरे महानगर में घटित नृशंसता के बाद पुनः थोडा उभरी। और इसके बाद तीसरे महानगर मुंबई में दो नन्हीं बच्चियों पर हुए यौन आक्रमण के बाद थोड़ी और उभरती दिखाई दी।
गौरतलब है यह क्षणिक या तात्कालिक सचेतनता क्या इस समस्या को किसी समाधान की तरफ ले जा सकती है? भारत देश में पुरानी औपनिवेशिक दंड संहिताओं के स्थान पर नई और कथित भारतीय सामाजिक, राजनीतिक वातावरण को ध्यान में रखकर तैयार नई अपराध संहिताएं (क़ानून) लागू हो गई हैं। क्या ये कोई परिवर्तन ला पाएंगी? इन्तजार करते हैं!
गौर करिए विश्व के जिन पांच देशों में महिलाएं सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं, उस सूची में भारत का स्थान चौथा है और ऐसा तब है जब यह अनुमानित है कि 77 प्रतिशत महिलाएं उन पर हुए यौन आक्रमण की रिपोर्ट ही नहीं करतीं।
भारत में औसतन प्रतिवर्ष करीब 32000 बलात्कार के मामले रिपोर्ट होते हैं यानी एक दिन में करीब 90 मामले और इसे और ध्यान से देखें तो भारत में प्रति 16 मिनट में एक बलात्कार होता है। इन मामलों में सजा मिल पाने की औसत दर 27 से 28 प्रतिशत ही है। जबकि ब्रिटेन में यह दर 63.5 प्रतिशत है। भारत में बलात्कार के आंकड़ों के अनुसार राजस्थान सूची में पहला स्थान (करीब 6000 मामले) उत्तरप्रदेश (3100 मामले) मध्यप्रदेश (2485 मामले) इसके बाद करीब 7 राज्य और है और उसके बाद पश्चिम बंगाल (करीब 1100 मामले) का स्थान आता है।
यहां विचारणीय यह भी है कि कोलकता के मेडिकल कालेज/अस्पताल में बलात्कार और हत्या का यह मामला क्या उन दुर्भाग्यशाली के डॉक्टर होने की वजह से हुआ है या उनके महिला होने की वजह से?
जाहिर है यह शासन और प्रशासन की घनघोर असफलता का द्योतक है। परंतु कश्मीर से कन्याकुमारी और असम से अरब सागर यानी गुजरात तक बलात्कार और महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अन्य यौन अपराधों में कोई भी राज्य पाक-साफ नहीं है।
यदि हालिया अखबार पढ़ें तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री से इस्तीफे की मांग करने वालों को उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, तमिलनाडु, ओडिशा, राजस्थान के मुख्यमंत्रियों से भी तुरंत इस्तीफ़ा मांगना चाहिए। आज ही खबर है कि राजस्थान के अजमेर में सन 1992-93 में 100 से भी ज्यादा बलात्कार करने वाले 5 व्यक्तियों को इस माह अगस्त 2024 में यानी 32 साल बाद निचली अदालत ने सजा सुनाई है।
दुष्यंत कुमार कहते हैं,
“आज मेरा साथ दो, वैसे मुझे मालूम है,
पत्थरों में चीख हरगिज कारगर होगी नहीं।”
सोचिए मणिपुर में जो हुआ वह क्या था? कर्नाटक में एक राजनेता के 2500 यौन अपराध संबंधी मामले सामने आने पर इतना हंगामा क्यों नहीं हुआ? हाथरस कांड को लेकर तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री तब क्यों चुप रहीं और अब मुखर क्यों रही हैं? केरल में कम्युनिस्ट सरकार ने न्यायमूर्ति हंसा आयोग की रिपोर्ट जो कि मलयालय फिल्म उद्योग में महिलाओं के यौन शोषण को लेकर थी, उसे 4.5 साल बाद दबाव पड़ने के बाद ही क्यों जारी किया?
ओडिशा में एक चिकित्सक द्वारा अपने दो मरीजों से अस्पताल में बलात्कार करने वाले मामले को लेकर इतना बवाल क्यों नहीं उठा? उत्तराखंड में पिछले वर्ष जिस लडकी को मार कर नहर में बहा दिया गया वह मामला क्यों उबाल नहीं खा रहा? मुरादाबाद में सरकारी बस में लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले को ज्यादा तवज्जो क्यों नहीं मिल रही? कोलकता उच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई जांच के आदेश, राज्य सरकार की लापरवाही को लेकर उन्हें नसीहत देने के बाद और जांच शुरू हो जाने के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय का स्वमेव संज्ञान लेना अजीब सी स्थिति बयां कर रहा है।
कोलकता में घटी घटना एक महिला के साथ घटी है। यह एक संयोग या दुर्योग जो भी कहना चाहे, कि वह एक चिकित्सक भी थी। सीबीआई जांच से जो आरंभिक तथ्य सामने आ रहे हैं वे सामूहिक बलात्कार की ओर और अस्पताल में व्याप्त अनिमितताओं की ओर भी ईशारा कर रहे हैं। साथ ही साथ ध्वनित हो रहा है कि इसमें कुछ चिकित्सक भी शामिल हो सकते हैं। यानी वही वाली बात है कि एक महिला/युवती/ बच्ची अपने परिवार में एवम अपने परिवारजनों से भी सुरक्षित नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि समय दोषारोपण से ज्यादा सामाजिक व् राजनीतिक आत्मावलोकन का है।
हमें सोचना होगा कि समाज में हिंसा बर्बरता, नृशंसता और वीभत्सता में क्यों द्विगुणित होती जा रही है। इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि स्थानीय या राज्य पुलिस पर अविश्वास क्यों बढ़ता जा रहा है। क्या सीबीआई जैसे अतिविशिष्ट अपराध अनुसंधान संस्थान इस तरह से राज्यों में जाकर अनुसंधान करने को भेजे जाएंगे? अगर स्थानीय शासन/प्रशासन अपने यहां हुए अपराधों की जांच तक कर पाने में सक्षम नहीं माने जा रहे हैं, तो उनके बने रहने का औचित्य ही क्या है? राज्य के नागरिक अपनी सुरक्षा के लिए जो कर का भुगतान कर रहे हैं, वह क्या इतने अकुशल कर्मचारियों को वितरित किया जा रहा है?
कोलकता के अस्पताल में आज केन्द्रीय अर्ध सैनिक बल “टोह” लेने पहुंचें हैं। ऐसे मामलों में होना तो यही चाहिए कि केन्द्र और राज्य सरकार के पुलिस वाले एकसाथ कार्य करें, जिससे कि स्थानीय प्रशासन को अपनी चूक और अनुसंधान में क्या कमी रह गई है, यह सब समझ में आए। एक अपराध की जांच में केन्द्र और राज्य एजेंसियों का आमने सामने होना या प्रतिद्वंदियों की तरह दिखना भारत के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है। जो कुछ बंगाल में किया जा रहा है वही मुंबई में दो छोटी बच्चियों के पालकों को एफआईआर दर्ज कराने में ग्यारह घंटे लगे। वहां क्यों नहीं किया जा रहा है?
इंदौर के एक शासकीय विद्यालय में एक महिला शिक्षक द्वारा कुछ छात्राओं के साथ बेहद अशालीन व्यवहार उनकी तलाशी के दौरान किया गया। परिजन रिपोर्ट कराने के लिए भटकते रहे। अंततः मैंने उच्च न्यायालय में इसे लेकर एक जनहित याचिका लगाई। न्यायालय द्वारा निश्चित समयावधि में रिपोर्ट प्रस्तुत करने के आदेश देने के बाद घटना के करीब 12 दिन बाद एफआईआर दर्ज हुई। परंतु संबंधित शिक्षिका का अभी तक निलंबन तक नहीं हुआ है जबकि जांच समिति ने उन्हें प्रथम दृष्टया दोषी पाया है।
अतएव मुद्दा पश्चिम बंगाल भर का नहीं है और न ही चिकित्सकों / चिकित्साकर्मियों को सुरक्षा दे देने से बलात्कार की घटनाओं को ब्रेक लगेगा? बलात्कार की जड़ें पितृ सत्त्तात्मक मनोवृति में गहरी पैठ बनाये हैं। गौरतलब है अरस्तु ने 2500 बरस पहले स्त्री को परिभाषित करते हुए कहा था, “औरत कुछ गुणवत्ताओं की कमियों के कारण ही औरत बनती है। हमें स्त्री के स्वभाव से यह समझना चाहिए कि प्राकृतिक रूप से उसमें कुछ कमियां हैं। वह एक प्रासंगिक जीव है। वह आदम की एक अतिरिक्त हड्डी से निर्मित है।”
इस पर सीमोन ड बोउवार कहतीं हैं, “अतः मानवता का स्वरुप पुरुष है और पुरुष औरत को औरत के लिए परिभाषित नहीं करता, बल्कि पुरुष से संबंधित ही परिभाषित करता है। वह औरत को स्वायत्त व्यक्ति नहीं मानता।”
कोलकता में जिस व्यक्ति ने महिला चिकित्सक की हत्या और बलात्कार किया वह पदानुक्रम में उनसे बहुत निचली पायदान पर था। पर वह अंततः एक “पुरुष” तो था ही। इसलिये वह दुनिया की प्रत्येक स्त्री से स्वमेव श्रेष्ठ हो ही गया। क्या वह कभी भी किसी पुरुष उच्च अधिकारी से इस तरह का हिंसात्मक व्यवहार कर सकता था? कभी नहीं।
कमल भसीन इस बात को आगे बढ़ाते हुए समझातीं हैं, “दक्षिण एशिया में हिंदी भाषा में इसे पितृसत्ता कहते हैं। उर्दू में इसे पिद्रशाही और बंगला में पितृतौन्त्रों खा जाता है। हम किसी भी वर्ग की औरते क्यों न हो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में हम अनेक तरीकों से अपने गिरे हुए दर्जे जो महसूस करती हैं। परिवार, काम की जगह और समाज में हमारे साथ होने वाला भेदभाव, बेकद्री, अपमान, नियंत्रण, शोषण, जुल्म और हिंसा उसके अनेक रूप हैं। इनका छोटा-मोटा ब्योरा हर उदाहरण में भिन्न हो सकता है, लेकिन मुख्य रूप कहानी वही होती है।” गौर करिए राम रहीम और आसाराम बापू को पेरोल मिलने से किसके हौसले बढ़ेंगे?
तो क्या है वह मुख्य कहानी? वह कहानी कोलकता के उस चिकित्सा शिक्षा संस्थान के सेमिनार हाल तक सीमित नहीं है। वहां एक अपराध भर हुआ है। यह अपराध उस व्यापक सामजिक, राजनीतिक साजिश के मूल में है, जो भारतीय संविधान और उसके मूल्यों में विश्वास नहीं रखता। हर बार वह एक नया प्रतीक गढ़ लेता है। निर्भया कांड में फासी की सजा तामील करवा देने के बाद भी इन्हें कोई फर्क क्यों नहीं पड़ा? फर्क इसलिये नहीं पड़ा क्योंकि हाथरस कांड में न्याय नहीं हुआ। महिला पहलवानों के साथ न्याय नहीं हुआ। उत्तराखंड की नर्स और रिसेप्शनिष्ट के साथ न्याय नहीं हुआ, आदि। महिलाओं के साथ हो रहे सामाजिक और क़ानूनी अन्याय की परिणिति इसी तरह होती है। प्रत्येक बलात्कार पर इतना ही विरोध सामने आएगा जितना कोलकता के मामले में आया है तो शायद कुछ बात बने। इस्तीफ़ा मांगकर विरोध का आसान रास्ता चुनना घातक है। होना तो यही चाहिए कि न्यायालय राज्य सरकार के माध्यम से ही इस मामले को परिणिति तक ले जाता।
बरसात तो आती है, चली जाती है। परंतु भारतीय समाज पर तिरस्कार की एक काली छाया इस कदर छा गई है कि जेठ के सूरज की रोशनी भी उस स्याह अँधेरे को भेद नहीं पा रही है। कुछ बेहद सकारात्मक पहल महिलाओं को स्वयं ही करना होगी। गौरतलब है महिला संगठनों ने बलात्कार के मामलों में मृत्युदंड का हमेशा विरोध किया है। तमाम विशेषज्ञों का भी मानना है कि बलात्कार के बाद होने वाली हत्याओं पर अंकुश लगाना है, तो मृत्युदंड को समाप्त करना होगा। साथ ही साथ जल्दी सुनवाई के अलावा सजा की दर में भी वृद्धि करना होगी जो कि बिना पुलिस सुधार लागू हुए और जनभागीदारी के बिना संभव नहीं है।
बाबा फरीद ने कहा है
“फरीदा जिन लोइण जगु मोहिआ से लोइण मैं डिठू
कजल रेख न सहदिआ से पंखी सूई बहिठू”
अर्थात अपनी यौवनावस्था में मैंने वे आखें देखी थीं जिन्होंने सारे संसार पर जादू कर रखा था। वे आँखें इतनी नाजुक थीं कि काजल की रेखा भी सहन नहीं कर पाती थीं। आज मैं उन्हें पुनः देख रहा हूँ। मरणोपरान्त उन आँखों के कोटर में पक्षियों के नन्हे-नन्हे शिशु बैठे हुए हैं।
उम्मीद रखनी होगी कि कोलकता की चिकित्सक का यह बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा और महज कुछ सुरक्षा इंतजामों की व्यवस्था पर स्वयं को नहीं समेटेगा। यह घटना समझा रही है कि अब आपको प्राणवान बनाये रखने वाली भी अपने प्राण बचाने में असमर्थ हो रही हैं। ऐसे में एक बेहद परिवर्तनकारी सोच को बढ़ावा देने की जरुरत है।