यौन हिंसा: कुछ भी बदलता क्यों नहीं

भारतीय बलात्कारियों ने भले ही अरस्तु को न पढ़ा हो लेकिन वे इस वैश्विक भेदभाव को सहस्त्राब्दियों से अपने मन में सहेजे हुए हैं और उसे अपना अधिकार मानते हैं

Updated: Sep 25, 2021, 07:43 AM IST

Photo Courtesy: pravakta
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सन् 1978 में महाश्वेता देवी ने ‘‘द्रोपदी’’ शीर्षक से एक लघु कथा लिखी थी। पितृसत्ता से लड़ने वाली और नक्सलवादी होने के आरोप के मद्देनजर उसकी गिरफ्तारी होती है। पुलिस अधिकारी अपने कुछ सिपाहियों से उसका बलात्कार करने को कहता हैं। बलात्कार करने के बाद सिपाही उससे पुनः कपड़े पहनने को कहते हैं। परंतु द्रोपदी कपड़े पहनने से इंकार कर देती है। और दांतों से अपने बाकी के कपड़े भी फाड़ देती है। बड़े अफसर के सामने वह निःवस्त्र ही जाती है और कहती है, ‘‘मैं कपड़े क्यों पहनू ? यहां कोई इंसान ऐसा नहीं है, जिससे मैं शर्माऊ।’’

इस कहानी के लिखे जाने के भी 6 बरस पहले 26 मार्च 1972 को महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के देसाईगंज थाना परिसर में मथुरा नाम की एक आदिवासी लड़की (14 से 16 वर्ष के मध्य) के साथ दो पुलिसकर्मियों ने बलात्कार किया था। सेशन न्यायालय ने अभियुक्तों को बरी कर दिया था। बम्बई उच्च न्यायालय ने दोनों को सजा दी लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 1979 में उच्च न्यायालय के फैसले को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि मथुरा ने, ‘‘कोई शोर नहीं बचाया और उसके शरीर पर चोट के कोई निशान नहीं थे, संघर्ष के भी कोई चिन्ह नहीं मिलते अतएव कोई बलात्कार नहीं हुआ। चूंकि वह संभोग की आदी थी, तो संभव है उसने पुलिस वालों को उकसाया हो (वे ड्यूटी के दौरान नशे में थे) कि वे उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए’’ (साधारण भाषा में अनुवाद) इस निर्णय के पश्चात प्रो. उपेन्द्र बक्शी सहित तमाम लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय को पत्र लिखा, देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए। निर्णय तो नहीं बदला परंतु बलात्कार संबंधी कानून में जरुर परिवर्तन हुआ।

वस्तुतः स्थितियां बहुत नहीं बदलीं। 15 जुलाई 2004 को मणिपुर की 12 महिलाओं ने मनोरमा थंगजाम की मृत्यु व कथित बलात्कार के खिलाफ, इंफाल स्थित असम राईफल्स के मुख्यालय के सामने नग्न होकर प्रदर्शन किया था। इन बारह माँ या इमा के हाथों में तख्तियां थीं जिन पर लिखा था ‘‘भारतीय सेना हमारा बलात्कार करो’’ और ‘‘भारतीय सेना हमारा माँस ले लो।’’ मनोरमा के गोलियों से छलनी शरीर के निजी अंगों पर गोलियों के घाव थे। परिस्थितियों में उसके बाद तब भी कोई बदलाव नहीं आया। सन् 2012 में दिल्ली में हुआ निर्भया कांड जघन्यता की सभी सीमाओं को झुठला चुका था। सारा देश विचलित हुआ।

फिर नए सिरे से कानूनों पर मनन हुआ और इस कांड में शामिल चार वयस्कों को 20 मार्च 2020 को फाँसी भी दे दी गई। फाँसी की सजा का अभी स्मृति लोप भी नहीं हुआ था कि 14 सितंबर 2020 को हाथरस जिले में एक 19 वर्षीय दलित युवती के साथ बलात्कार और उसके बाद दी गई यातनाओं की वजह से उसकी करीब दो हफ्ते बाद अस्पताल में मृत्यु हो गई। यानी 200 दिनों तक भी फाँसी का कोई प्रभाव नहीं रहा। इससे भारतीय पुरुष समाज या पितृसत्तात्मक मानसिकता के दंभ को समझा जा सकता है।

 

जघन्यता, क्रूरता व वीभत्सता की निरंतरता को हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी देखें ! दिल्ली के एक श्मशान घाट का पुजारी और उसके साथ एक 9 वर्षीय बालिका के साथ बलात्कार के दौरान आरोपी उसका मुँह इतनी जोर से बंद रखते हैं कि उसकी दम घुटने से मृत्यु हो जाती है। हैवानियत की शायद कोई सीमा नहीं होती। इस बालिका के साथ संभवतः उसकी मृत्यु के बाद भी सामुहिक बलात्कार का दौर चलता रहा होगा। मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड अंचल में सामुहिक बलात्कार की प्रक्रिया में युवती आँखों को एसिड (पुलिस के अनुसार जहरीली वनस्पति) से जला दिया जाता है।

महाराष्ट्र में एक नाबालिग लड़की के साथ 8 महीनों में 33 लोग बलात्कार करते हैं। ग्वालियर में 4 साल की लड़की के साथ बलात्कार होता है। अपने एक शोध के दौरान मैं और मेरी पत्नी ऐसे 2 बच्चों से मिले जिनकी उम्र 3 वर्ष से कम थी और उनके साथ बलात्कार हुआ था। बारह वर्ष की ऐसी बालिका से मिले जो कि यौन संबंधों की आदी हो चुकी है और उसका परिवार उसे किराये पर देता था। वैसे अब वह मुक्त है। अनगिनत मामले हैं, महिलाओं, युवतियों और बच्चियों (और अब किशोरों व लड़कों) के साथ भी यौन अपराधों के परंतु हमारा समाज इस समस्या से आँख नहीं मिलाना चाहता।

महाश्वेता जी की कहानी न तब काल्पनिक थी न अब ! इसे एक शाश्वत सच्चाई की तरह स्वीकारना होगा। मर्दो की नंगई अब सभी सीमाएं पार कर गई है। सामुहिक बलात्कार करते हुए उन्हें अपने नग्न चित्रण तक में कोई संकोच नहीं होता। क्या यह मनुष्य कहलाने के काबिल भी हैं ? बलात्कार के वीडिया सार्वजनिक कर देने से (ना) मर्दों के सम्मान को कोई ठेस नहीं पहुंचती। शायद ऐसा इसलिए कि उन्होंने नग्नता को अपना आभूषण और अपनी मर्दानगी का सबूत समझ लिया है । गिरने की सीमा को पुरुष समाज का एक अंश तोड़ चुका है। यह नंगई शौर्य प्रदर्शन का क्या कोई नया तरीका है ? भारत के तकरीबन हर अंचल में बलात्कार व यौन प्रताड़ना देने के नए-नए वीभत्स तरीके सामने आ रहे हैं | महिलाओं का प्रतिकार समाज में उनके प्रति समर्थन जुटा पाने में असमर्थ है। कारण ? संभवतः यही की पीडिताएं अधिकांशतः वंचित, आदिवासी या अल्पसंख्यक वर्गो से ताल्लुक रखती हैं। ऐसा क्यों ? इस अलगाव की जड़ें बहुत पहले मजबूत की जा चुकी हैं।

सीमोनंद बुआ बताती हैं। अरस्तु स्त्री को परिभाषित करते हुए कहते हैं, औरत कुछ गुणवत्ताओं की कमियों के कारण ही औरत बनती है। हमें स्त्री के स्वभाव से यह समझना चाहिए कि प्राकृतिक रूप से उसमें कुछ कमियां हैं। वह एक प्रासंगिक जीव है। वह आदम की एक अतिरिक्त हड्डी से निर्मित है। अतः मानवता का स्वरूप पुरुष है और पुरुष से संबंधित ही परिभाषित करता है। वह औरत को स्वायत्त व्यक्ति नहीं मानता। वह अपने बारे में सोच भी नहीं सकती। इसका अर्थ यह है कि वह अनिवार्यतः पुरुष के भोग की एक वस्तु है और इसके अलावा और कुछ नहीं। यानी पुरुष पूर्ण है जबकि औरत बस ‘‘अन्या’’।

भारतीय बलात्कारियों ने भले ही अरस्तु को न पढ़ा हो लेकिन वे इस वैश्विक भेदभाव को सहस्त्राब्दियों से अपने मन में सहेजे हुए हैं और उसे अपना अधिकार मानते हैं। ऐसा लगा था कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की निर्णायक भूमिका के चलते उनकी परिस्थिति में आमूलचूल परिवर्तन आएगा। कुछ परिवर्तन आए भी। परंतु पुरुषवादी सोच में बहुत अंतर नहीं आया। गौरतलब है डा. राममनोहर लोहिया सन् 1967 के अपने लेख, ‘‘औरतें और यौन शुचिता" में लिखते हैं, ‘‘भारत का दिमाग बड़ा क्रूर हो गया है। जानवरों पर जैसी क्रूरता इस देश में होती है अन्य कहीं वैसी नहीं। मनुष्य एकदूसरे के प्रति क्रूर हैं। गांव क्रूर है, महल्ला क्रूर है। लेकिन ऐसे कितने कुटुम्ब और लड़कियां हैं जो गांव अथवा महल्ले की क्रूरता से बच सकें। इसलिए उन्हें परंपरा की रस्सियों और बेड़ियों में जकड़ कर रखना पड़ता है।’’ परंतु 55 साल बाद यह प्रवृत्ति गांवों से बरास्ता कस्बों, नगरों, शहरों से होते हुए महानगरों को भी अपनी चपेट में ले चुकी है।

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हर राज्य, हर शहर, हर कस्बा, हर गांव अपने तई दावा करता है कि वह भारत का सबसे सुरक्षित स्थान है, महिलाओं के लिए। परंतु हर सुरक्षित क्षेत्र सेंधमारी का शिकार है। किसी जमाने में मुंबई सबसे सुरक्षित माना जाता था। वर्तमान में वहां भी महिलाएं नए तरह की जघन्यताओं की शिकार हो रहीं हैं। केरल को अपवाद माना जाता था, लेकिन अब ? मध्यप्रदेश को तो शांति का टापू कहा जाता था लेकिन आज यहां बच्चों और महिलाओं पर होने वाले अपराधों का रिकार्ड बनता जा रहा है। दुःखद स्थिति यह है कि उत्तरपूर्वी भारत जो महिलाओं के लिए हमेशा से सुरक्षित रहा है, वहां भी उनके लिए परिस्थितियां प्रतिकूल होती जा रहीं हैं।

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भारत में महिलाओं की बेहतर के लिए लगातार नए कानून बनते जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर एक वर्ग निरंतर यह दोहरा रहा है कि महिलाओं और बच्चों से संबंधित कानूनों का दुरुपयोग हो रहा है। इस विरोधाभासी स्थिति को लगातार प्रोत्साहित कर भेदभाव को कायम रखने की पुरजोर कोशिश जारी है। ठीक ऐसा ही अनुसूचित जाति व जनजाति संबंधी कानूनों को लेकर भी कहा व किया जा रहा है। जब भी स्थितियां ज्यादा प्रतिकूल होती हैं तो भारतीय शास्त्रों के कुछ उद्धहरण हमारे सामने आ जाते हैं। यह कुछ वैसा ही है कि हम अपने घरों के आसपास स्वतंत्रता दिवस और गणराज्य दिवस पर देशप्रेम के गीतों का खोखला शोर सुनते हैं। हममें से अधिकांश उन्हें आत्मसात करने की कोशिश ही नहीं करते। इस परिस्थिति को बदलने के लिए वास्तविक राजनीतिक प्रतिबद्धता और शक्ति की आवश्यकता है।

कवि चन्द्रकान्त देवताले अपनी कविता, ‘‘इधर मत आना.... यह काटीगाँव हैं’’, में महाश्वेता देवी को याद करते हुए लिखते हैं "अलबत्ता आ जाये दीदी महश्वेता/ बैठ जाए जीमने/ और तोड़ टुकड़ा घास रोटी का/ पूछ लें काए से खाऊँ इसे ?/ और कह दे अक्समात बुढ़िया कोई/ आँसू टपकाकर भूख मिलाकर खा ले माई। तो क्या यह दुबारा। धरती फट जाने जैसा नहीं होगा?’’ भारत में तो रोज ही धरती फट रही है, पर वह भी औरतों को अपने में समा नहीं पा रही ।

(गांधीवादी विचारक चिन्मय मिश्रा के यह स्वतंत्र विचार हैं)