कुशीनगर को बुद्ध ने महाप्रयाण के लिए चुना था

बुद्ध ने अपने अंतिम प्रवचन में कहा था, जिस तरह से लापरवाह रहने पर घास जैसी नरम चीज की धार भी हाथ को घायल कर सकती है, उसी तरह से धर्म के असली स्वरूप को पहचानने में हुई गलती आपको नरक के दरवाजे पर पहुंचा सकती है

Updated: Sep 18, 2021, 08:51 AM IST

Photo Courtesy: social media
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बुद्ध ने अपने जीवन का प्रत्येक कार्य पूरी सचेतनता के साथ किया। कहते हैं एक बार भ्रमण के दौरान उन्होंने अनजाने में एक कीड़े को अपने बदन से हटा दिया। उन्हें तुरंत आभास हुआ कि उनकी चेतनता में कमी आई है, यह कैसे संभव है कि मस्तिष्क के निर्देश के बिना उनका हाथ स्वमेव उठ गया, क्रियाशील हो गया। बुद्ध वहीं ध्यानस्थ हो गए और कई महीनों बाद पुनः पूर्ण चेतन होकर ही वहां से हिले। कुशीनगर को उन्होंने अपने महाप्रयाण के लिए चुना और मोक्ष के लिए आवश्यक सभी अंतिम मानवीय क्रियाओं के लिए स्वयं ही शिष्यों को निर्देश दिए। वहीं उन्होंने अपना अंतिम उपदेश भी दिया था।

बुद्ध ने जीवन के 80वें वर्ष में महाप्रयाण का निश्चय किया। उन्होंने अपना अंतिम भोजन कुन्डा नामक एक लोहार से ग्रहण किया। कहते हैं वह भोजन विषैला था और बुद्ध उसी वजह से गंभीर बीमार भी पड़े। परंतु इसी दौरान बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। वे बोले यह भोजन ‘‘अतुल्य’’ है। जाहिर है वह भोजन अतुल्य ही होगा जो बुद्ध को मोक्ष दिलाए। गौर करिए बुद्ध को ज्ञान भी भोजन, खीर खाकर ही मिला था और महाप्रयाण भी उन्होंने भोजन के माध्यम से ही किया। बुद्ध ने अपने अंतिम प्रवचन में कहा था, ‘‘जिस तरह से लापरवाह रहने पर घास जैसी नरम चीज की धार भी हाथ को घायल कर सकती है, उसी तरह से धर्म के असली स्वरूप को पहचानने में हुई गलती आपको नरक के दरवाजे पर पहुंचा सकती है।

गौतम बुद्ध के महाप्रयाण के 2504 वर्ष बाद उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी भोजन या अन्न को लेकर ही अपनी वाणी को एक नुकीले हथियार में बदल रहे हैं, और वह भी कुशीनगर को, जिसे बुद्ध ने महाप्रयाण के लिए चुना था। सोचिए, यह कितना महत्वपूर्ण स्थान है। परंतु, आदित्यनाथ जी यहीं कह रहे हैं, ‘‘राशन सबको मिल रहा है? तब तो अब्बाजान कहने वाले राशन हजम कर जाते थे।’’ इस विद्रूपता का क्या अर्थ है ? यदि उन्हें लगता है और उनके पास प्रमाण हैं, (जाहिर है मुख्यमंत्री हैं तो प्रामाणिक बात ही करेंगे) तो उन्हें पिछली सरकारों पर मुकदमा दायर करना चाहिए जिन्होंने राज्य की करीब 80 प्रतिशत आबादी को भूखा मरने को छोड़ दिया। उनके हिस्से का खाद्यान्न 20 प्रतिशत को दे दिया जिन्होंने इसे बिना भेदभाव के एक मुस्लिम बहुल राष्ट्र बांग्लादेश और दूसरे हिन्दू बहुल (हिन्दू राष्ट्र) नेपाल को भेज दिया। यानी जाने अनजाने वे यह स्वीकारोक्ति तो कर ही गए कि अल्पसंख्यक वर्ग सांप्रदायिक नहीं है। वह किसी भी अन्य धर्म (आजकल वैसे इसके लिए विधर्मी शब्द प्रचलन में है) के व्यक्ति को भूखा नहीं मरने देंगे। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि ये अनाज के निजी निर्यातकर्ता अपने ही क्षेत्र के विधर्मी लोगों को राशन क्यों नहीं देंगे। दूसरे देशों को उन्होंने मुफ्त में तो अनाज निर्यात नहीं किया होगा ?

किसी भी व्यक्ति को बोलने से पहले सोचना समझना चाहिए कि वह कहाँ पर खड़ा है। क्या गांधी समाधि पर युद्ध की यशोगाथा गाई जा सकती है? क्या नेहरु की समाधि पर सांप्रदायिकता की बात की जा सकती है? क्या सरदार पटेल की समाधि पर खड़े होकर भारत के विखंडन की बात की जा सकती है? क्या लक्ष्मीबाई की समाधि पर अंग्रेजों का गुणगान किया जा सकता है? तो क्या उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री को बुद्ध के महाप्रयाण या समाधि स्थल पर इस तरह की शब्दावली का प्रयोग करना चाहिए? मैं ऐसे एक से अधिक गैर मुस्लिमों को जानता हूँ जो अपने पिता को अब्बा और माँ को अम्मी कहते हैं। ‘‘पापा’’ का पिता का पर्यायवाची हो जाना किसी साजिश का हिस्सा नहीं है। बच्चे का सबसे पहले ‘‘बुआ’’ बोलना अपनी माँ के खिलाफ कोई साजिश नहीं हैं। दुनिया के सबसे कोमलतम और सर्वाधिक आत्मीय संबोधनों को तिरछी मुस्कान के साथ इस्तेमाल करना बेहद आत्मघाती है। यह कृत्य बुद्ध के प्रवचन की याद दिला रहा है कि लापरवाह रहने पर घास जैसी नरम चीज की धार भी हाथ को घायल कर सकती है।

अपवाद छोड़ दें तो भोजन करता प्रत्येक प्राणी, यानी मनुष्य व अन्य प्राणीजगत इस सृष्टि के सबसे सुंदर व भावभय क्षव का साक्षी होता है। बहुत कम बार हममें संतुष्टि का उतना भाव होता है जितना कि भोजन के समय हममें मौजूद रहता है। भोजन को लेकर किया गया कोई भी तंज दुनिया की निकृष्टतम अभिव्यक्ति माना जा सकता है। यह तय है कि चुनाव जीतने की रणनीतियां बनाने वाले इसे युद्ध की रणनीतियों की तरह ही लेते है, जिसमें सबकुछ जायज होता है। हमें यहां यह भी ध्यान में रखना होगा कि ‘‘अब्बाजान’’ का जवाब ‘‘चचाजान’’ नहीं हो सकता। बल्कि हमें यहां भी कुशीनगर में दिए गए बुद्ध के अंतिम प्रवचन को ध्यान में रखना होगा। इसमें वे कहते हैं, ‘‘आकाश में पूरब पश्चिम का कोई भेद नहीं होता, लोग अपने मन में भेदभाव को जन्म देते हैं और फिर यह सच है, ऐसा विश्वास करने लगते हैं। बुद्ध जो बात कह रहे हैं वह आकाश में स्थित ध्रुव तारे की तरह अडिग है, जिसके आधार पर पूरी दुनिया का आवागमन निश्चित होता है और अपने गंतव्य पर पहुंचता है।

अगर एक प्रदेश का मुख्यमंत्री किसी विशिष्ट समुदाय के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित है तो क्या उसे संविधान का पालन करने वाला माना जा सकता है? मुख्यमंत्री दो अलग - अलग शपथ लेते हैं। पहले हिस्से में वे ईश्वर या सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करते हैं कि वे विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखेंगे। भारत की प्रभुता और अखंडता बनाए रखेंगे। साथ ही मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करेंगे तथा वे बिना किसी भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करेंगे। सोचिये, क्या वे अपनी इस प्रतिज्ञा का अनुपालन करते नजर आए? नहीं !

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किसी भी सभा को चुनावी रैली में परिवर्तित कर देना भी आज के समय की विशिष्टता है। प्रधानमंत्री की मुजफ्फरनगर की सभा को किस श्रेणी में रखा जाए? लगातार यह बात सामने आ रही थी कि लाखों भाजपा कार्यकर्ता वहां इकट्ठा हुए। यदि विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया जाना मुख्य उद्देश्य था तो अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं व विशिष्ट व्यक्तियों को मंच पर स्थान क्यों नहीं दिया गया? क्या यह उचित नहीं होता कि मंच पर संवैधानिक पदों पर आरुढ़ व्यक्ति ही होते? इस सभा के आयोजन का खर्च तो संभवतः उत्तरप्रदेश सरकार ने ही वहन किया होगा। हमारी समस्या यह हो गई है कि हम अतीत के माध्यम से ही भविष्य को हथिया लेना चाहते हैं। वर्तमान परिस्थितियों की जटिलता से हम मुँह चुराते रहते हैं। कुशीनगर में अपने अंतिम उपदेश में बुद्ध कहते हैं, ‘‘अतीत में ध्यान केंद्रित नहीं करना, ना ही भविष्य के सपने देखना, बल्कि अपने दिमाग को वर्तमान क्षण में केंद्रित करना।’’

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परंतु हो तो इसके विपरीत रहा है। अतीत से सीधी छलांग भविष्य में लगाई जा रही है। वर्तमान में विद्यमान कोरोना संकट, बेरोजगारी, मंहगाई, व्यवस्था व समाज का अपराधीकरण अब चर्चा का विषय नहीं हैं। सारी राजनीतिक जमात को लग रहा है कि जैसे सत्ता के बिना उनका अस्तित्व ही नहीं बच पाएगा? योगी आदित्यनाथ का अब्बाजान कहना सिर्फ जुबान का फिसलना नहीं है और टिकैत का चचाजान कह कर जवाब देना कोई समझदारी नहीं है। चुनाव को यदि सांप्रदायिक कलेवर से बाहर निकालना है तो अन्य राजनीतिक दलों को भी सांप्रदायिक कलेवर से स्वयं को मुक्त करना होगा। यह बेहद जटिल कार्य है और इसमें अपनी पूरी प्रतिबद्धता को उधेड़ना पड़ता है। महात्मा गांधी और पं. नेहरु यह कर पाए थे। बुद्ध ने जो प्रतिमान स्थापित करने की बात की थी, उन्हें इन दोनों के अलावा भी तमाम लोगों ने आत्मसात किया था। खान अब्दुल गफ्फार खान और मौलाना आजाद इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में से हैं।

वस्तुतः सांप्रदायिक टिप्पणी का जवाब मात्र कोई धर्मनिरपेक्ष टिप्पणी भर नहीं हो सकती। इससे निपटने के लिए जबरदस्त मैदानी काम किए जाने की आवश्यकता है। साथ ही इस प्रक्रिया में निरंतरता की आवश्यकता है, जिससे कि भविष्य में कोई भी सांप्रदायिक टिप्पणी करने में संकोच करे। हमें अपने आचरण में अब्बाजान और बाबूजी के बीच के अंतर करने वालों को समझना होगा और इनसे निपटना भी होगा। महाप्रयाण की प्रक्रिया के दौरान बुद्ध ने कुटिया के बाहर किसी का बेहद करुण व झकझोर देने वाला रुदन सुना। उन्होंने आनंद से पूछा, ‘‘ये कौन है जो इतने करुण स्वर में रो रहा है।’’

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आनंद ने कहा, “भंते ! भद्रक रो रहा है। वह आपके दर्शन को आया है। बुद्ध ने उसे बुलाया और पूछा वत्स क्यों रो रहे हो?” भद्रक ने कहा, कि “भंते जब आप हमारे साथ नहीं होंगे तब हमारा मार्गदर्शन कौन करेगा। प्रकाश तक कौन ले जाएगा?” बुद्ध मुस्कराए और स्नेह से उसके सिर पर हाथ रखकर बोले ‘‘भद्रक ज्ञान का प्रकाश तुम्हारे भीतर है, उसे बाहर मत खोजो। अप्प दीपो भव यानी अपने दीपक स्वयं बनो।’’ यही बुद्ध का अंतिम उपदेश था जो उन्होंने कुशीनगर में ही दिया था।

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आज जरुरत है कि अपने भीतर भरी घृणा व सांप्रदायिकता को खाली करें और वहां करुणा की रोशनी भरें। अप्प दीपों भव, अर्थात स्वयं दीपक बने बगैर उद्धार नहीं है।

(गांधीवादी विचारक चिन्मय मिश्रा के यह स्वतंत्र विचार हैं)