विकास काले विपरीत बुद्धि... जाग सके तो जाग

प्रकृति के प्रति चिंता की बातें बहुत हुईं, अब भी वैज्ञानिकों की चेतावनियों पर अमल नहीं हुआ तो आपदा के कई ग्‍लेशियर पिघलने को तैयार हैं

Updated: Feb 08, 2021, 01:40 AM IST

Photo Courtesy: systemwidecl.com
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कहते हैं ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ मगर आज की परिस्थितियों के मद्देनजर अब कहा जाना चाहिए ‘विकास काले विपरीत बुद्धि’। जिन्‍हें भी मेरे इस कहे पर शक हो वे रविवार को उत्‍तराखंड में हुई तबाही और इसके कारण पर नजर डाल लें। हम विकास की मृगमरीचिका के लिए पेड़ों को काट रहे हैं। पहाड़ों को समतल कर रहे हैं। पानी और सूर्य किरणें हमें ऊर्जा देने में कम पड़े तो हम अपनी दुनिया का अंधेरा दूर करने के लिए परमाणु परियोजनाएं ले आए। यह बात अलग है कि ये परियोजनाएं जितनी रोशनी देंगी, अपने नैसर्गिक नुकसान से इंसानी जीवन में उससे अधिक अंधेरा फैला देंगी। जैसे, मध्‍य प्रदेश की राजधानी भोपाल में स्‍मार्ट सिटी प्रोजेक्‍ट के तहत दशकों से खड़े नीम, पीपल, आम जैसे समृद्ध पेड़ काट कर पॉम ट्री जैसे महंगे दिखावटी पेड़ लगाए गए। जैसे, धरती के गहने पहाड़ों और टीलों को काट कर सड़कें चौड़ी की गई, निर्माण के लिए साधन जुटाए गए। अब जब पहाड़ नहीं हैं तो बह कर आते पानी को कौन रोके? बाढ़ की तबाही आना तो तय है। जब हरियाली उजाड़ने और औद्योगिक हवस पर नियंत्रण नहीं है तो लगातार होती तापमान वृद्धि को कौन रोके? हमारे इस बेपरवाह और गैर आनुपातिक विकास काल में विनाश का ग्राफ बढ़ना भी तय है। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब प्राकृतिक आपदाओं के कारण हमारी आंख के आंसू सूख नहीं पाएंगे।

अब तक विशेषज्ञ, पर्यावरणविद् अकसर ही विकास के नाम पर पर्यावरण को पहुंचाएं जा रहे खतरों के प्रति आगाह करते रहे हैं। राजनेताओं के लिए यह अपनी सहूलियत के अनुसार विरोध और समर्थन का मुद्दा रहा है मगर उत्‍तराखंड की आपदा के बाद जब पूर्व केन्‍द्रीय मंत्री उमा भारती अपनी ही सरकार के दौरान इस बारे में कुछ कह रही हैं तो उनकी बात गौर से सुनी जानी चाहिए। उमा भारती कुछ समय पहले देश की जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्री थीं इसलिए उनकी बात अधिक मायने रखती हैं। उमा भारती ने ट्वीट कर कहा है कि ग्‍लेशियर पिघलना चिंता एवं चेतावनी दोनों है। जब मैं मंत्री थी तब अपने मंत्रालय के तरफ़ से हिमालय उत्तराखंड के बांधों के बारे में दिए शपथ पत्र में आग्रह किया गया था कि हिमालय एक बहुत संवेदनशील स्थान है। इसलिये गंगा एवं उसकी मुख्य सहायक नदियों पर पावर प्रोजेक्ट नही बनने चाहिए। सरकार के ही एक अंग ने ही नहीं बल्कि भू-वैज्ञानिकों ने भी करीब 8 महीने पहले ऐसी आपदा को लेकर आगाह किया था। अगर उस समय इस पर कार्रवाई हुई होती तो शायद आज की घटना से हम लोगों को बचा सकते थे।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार देहरादून में स्थित वाडिया भू-वैज्ञानिक संस्थान के वैज्ञानिकों ने पिछले साल जून-जुलाई के महीने में एक अध्ययन के जरिए जम्मू-कश्मीर के काराकोरम समेत सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों द्वारा नदियों के प्रवाह को रोकने और उससे बनने वाली झील के खतरों को लेकर चेतावनी जारी की थी। शोध में पाया गया था कि हिमालय क्षेत्र की लगभग सभी घाटियों में स्थित ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। भारत की श्योक नदी के ऊपरी हिस्से में मौजूद कुमदन समूह के ग्लेशियरों में विशेषकर चोंग कुमदन ने 1920 के दौरान नदी का रास्ता कई बार रोका। इससे उस दौरान झील के टूटने की कई घटनाएं हुई। 2020 में क्यागर, खुरदोपीन व सिसपर ग्लेशियर ने काराकोरम की नदियों के मार्ग रोक झील बनाई है। इन झीलों के एकाएक फटने से पीओके समेत भारत के कश्मीर वाले हिस्से में जानमाल की काफी क्षति हो चुकी है।

साफ है कि कथित विकास के लिए हमने विनाश को आमंत्रित कर लिया है। इसे जरा गहराई से समझते हैं। बिजली हमारी सबसे बड़ी जरूरत बन कर उभरी है। देश में बिजली की कमी को पूरा करने के लिए भारत सरकार परमाणु ऊर्जा के तेज प्रसार का निर्णय ले चुकी है। भारत के पास स्वदेशी परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम है और उम्‍मीद की जा रही है कि परमाणु ऊर्जा से वर्ष 2024 तक 14.6 गीगावाट बिजली प्राप्‍त की जाएगी। वर्ष 2032 तक बिजली उत्पादन की इस क्षमता को 63 गीगावाट करनेका लक्ष्‍य है। सवाल उठता है कि जब फुकुशिमा के परमाणु विध्वंस के बाद जब यह साफ हो गया है कि तमाम दावों के बाद भी परमाणु संयंत्र सुरक्षित नहीं है तो फिर हम इस खतरनाक दिशा में क्‍यों चल रहे हैं? एक रिएक्टर में रेडियोधर्मी परमाणु ईंधन कई टन की मात्रा में होता है। अगर वह किसी भी कारण से बाहरी वातावरण के संपर्क में आ जाता है तो उससे रेडियोधर्मिता का खतरा परमाणु बम से भी कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है। हम यह जानते हुए भी परमाणु ऊर्जा पर भरोसा करते जा रहे हैं। मतलब यदि कोई दुर्घटना न भी हो तो भी एक अवस्था के बाद परमाणु संयंत्रों को बंद करना होता है और वैसी स्थिति में परमाणु संयंत्र का विध्वंस तथा उसके रेडियोएक्टिव कचरे को डंप करना अधिक खर्चीला होता है। वर्ष 1986 में चेर्नोबिल की दुर्घटना से 4000 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल हज़ारों वर्षों तक रहने योग्य नहीं रहा। वहाँ हुए परमाणु ईंधन के रिसाव से करीब सवा लाख वर्ग किमी ज़मीन परमाणु विकिरण के भीषण असर से ग्रस्त है। तो क्‍यों हम राजस्‍थान, मध्‍य प्रदेश सहित देश के अन्‍य हरेभरे और आबादी क्षेत्रों में परमाणु कार्यक्रमों को अपनाने पर आमादा हैं? जबकि चेरनोबिल दुर्घटना के बाद जर्मनी अपने यहां स्‍थापित परमाणु संयंत्रों को हटाने का निर्णरू ले चुका है। यूरोपीयन यूनियन में जहां वर्ष 1979 में 177 परमाणु ऊर्जा संयंत्र सक्रिय थे वहां इनकी संख्‍या घट कर 143 संयंत्र रह गई है। 

परमाणु संयंत्र स्‍थापना या कथित विकास किसी दुर्घटना के समय ही मानवीय त्रासदी लेकर नहीं आता बल्कि यह अपनी स्‍थापना के समय से ही स्‍थानीय निवासियों के लिए मुसीबत बन जाता है। मध्‍य प्रदेश का आदिवासी जिला मंडला इसका एकदम उपयुक्‍त उदाहरण है। यहां चालीस साल पहले बरगी बांध के कारण चुटका सहित 54 गांव विस्थापित हुए थे। अब चुटका परमाणु विद्युत परियोजना के कारण विस्थापित होने की तलवार लटक रही है। आदिवासियों को हमारे विकास के लिए बार-बार अपनी जमीन से बेदखल किया जा रहा है। आदिवासी ग्रामीणों 2009 से ही चुटका परमाणु परियोजना का विरोध कर रहे हैं। इस परियोजना से 1.25 लाख लोग विस्थापित होंगे। इस संयंत्र को स्थापित करने के लिए कुल 6663.22 हेक्टेयर वन भूमि और वन क्षेत्र वाली 76699.56 हेक्टेयर सरकारी भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा। मतलब विकास की कथित चमकीली रेखा के लिए हम मानव, वन, वन्‍य प्राणी सबको दांव पर लगा रहे हैं। 

पर्यावरण चेतना की पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ में प्रकाशित एक आलेख के अनुसार तेल और गैस उद्योग ने हमारे महासागरों को बुरी तरह प्रभावित किया है। तेजी से हो रहे समुद्र के औद्योगीकरण को वैज्ञानिकों ने "ब्लू एक्सिलरेशन" नाम दिया है। ब्लू एक्सेलेरेशन समुद्री संसाधनों और उसपर आधिपत्य की एक अंधी दौड़ है जो वैश्विक स्तर पर अस्थिरता पैदा कर सकती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि तेल और गैस उद्योग ने महासागरों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। विश्लेषण के अनुसार, दुनिया भर में मीठा पानी तेजी से दुर्लभ होता जा रहा है। जिसको देखते हुए पिछले 50 वर्षों में समुद्र के खारे पानी को साफ करने के लगभग 16,000 संयंत्र लगाए गए हैं। दूसरी ओर निर्माण उद्योग की मांग को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर रेत और बजरी का खनन किया जा रहा है। 

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2021 को "महासागरों के दशक" के रूप में मनाने के लिए कहा है। इसका उद्देश्‍य है कि हम महासागरीय संसाधनों के अपरिवक्‍व दोहन को रोंके। वैज्ञानिकों का मानना है कि सी फ़ूड इंडस्ट्री, तेल और गैस, खनन और बायोप्रोस्पेक्टिंग उन तमाम उद्योगों में से कुछ है जो बड़े पैमाने पर समुद्रों का दोहन कर रहे हैं। इन सभी पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्‍जा है। कं‍पनियों का लक्ष्‍य केवल मुनाफा है। देशों की सरहदों का भी उनके मुनाफे से कोई लेना देना नहीं है। इस अंधे विकास पर वैज्ञानिकों का सुझाव है कि निवेशकों को समुद्री संसाधनों पर निवेश करने से पहले पर्यावरण को भी ध्यान में रखना चाहिए। वे ध्‍यान रखते नहीं है इसलिए अधिक कठोर मानदंड अपनाने की जरुरत है।

जब हम पर्यावरण पर विकास के खतरों की बात करते हैं तो सवाल उठता है कि क्‍या सड़क, फ्लाय ओवर, ब्रिज, बांध न बनाएं?  क्‍या बड़ी आबादी को बिना बिजली, बिना घर, बिना पानी रहने और मरने दें? क्‍या अच्‍छी सड़कों, चमकदान रोड के अभाव में वाहनों में ईंधन के अधिक उपयोग से होने वाले नुकसान की अनदेखी कर दी जाए? ऐसे तमाम तर्कों का उत्‍तर है- नहीं। सुनियोजित और सोचे समझें विकास से आपत्ति नहीं है। मगर समूचा मानव समाज ही प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और दोहन के अंतर को भूल गया है। परमाणु ऊर्जा के उपयोग और इससे जुड़े खतरों के प्रति हमेशा ही आगाह किया जाता रहा है मगर हमने विकास के नाम पर खतरनाक परियोजनाओं को अपनाया उनके खतरों से बचाव का कोई प्रबंधन नहीं किया। जैसे,सड़क बनाने के लिए पेड़ तो काटे, उनके विस्‍थापन या नए पौधरोपण के लिए धन खर्च तो किया मगर जितने पेड़ काटें उनके आधे भी पौधे पनपे ही नहीं। पिछले कुछ वर्षों में भारत ने भी नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर ध्‍यान केंद्रित किया है मगर विनाश की तुलना में यह भरपाई बहुत ही कम है। 

सरकार, समाज और व्‍यक्तिगत स्‍तर पर भी यह कभी नहीं सोचा जाता है कि जितना पानी, रेत, हवा, ऊर्जा हमने प्रकृति से ली है, उसे लौटाने का ईमानदार जतन किया गया है कभी? प्रकृति के प्रति चिंता की बातें बहुत हुईं, अब भी इन वैज्ञानिकों की चेतावनियों पर अमल नहीं हुआ तो आपदा के कई ग्‍लेशियर पिघलने को तैयार हैं।