साँची की शांति में खुद के अंदर झांक के देखा...
साँची एक स्थान है जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य, पुरातात्विक महत्व,शिल्प के कारण तो अनूठा है ही, इन सबसे ऊपर मन की शांति पाने का अद्भुत स्थान है।
हिंदुस्तान का दिल देखा…/ट्रेन की छुक छुक सुनते सुनते आ पहुंचा मैं साँची स्तूपा/ साँची की शांति में खुद के अंदर झांक के देखा.../ हिंदुस्तान का दिल देखा…।
मप्र पर्यटन विभाग का यह विज्ञापन यों ही देखा, मैं एक बार अपनी गाड़ी उठा कर चल पड़ा साँची की ओर। जी हां, इस विज्ञापन ने अजब नहीं किया था बल्कि मप्र में कई स्थल हैं ही ऐसे गजब कि जिनका ख्याल भर हो जाए तो उन तक जाने से स्वयं को रोक पाना मुमकिन नहीं होता है। साँची भी ऐसा ही एक स्थान है जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य, पुरातात्विक महत्व,शिल्प के कारण तो अनूठा है ही, इन सबसे ऊपर मन की शांति पाने का अद्भुत स्थान है।
भोपाल से विदिशा रोड़ की तरफ साँची के रास्ते पर चलते जाना भी यात्रा का एक अविस्मरणीय अंग है। यदि बारिश का मौसम हो तो यह यात्रा यादगार बनना तय है। राह में सड़क के दोनों ओर की हरियाली मन मोह लेती है। प्रकृति का विस्तार, खेतों में बसी हरियाली देखते देखते कब सफर पूरा होता है, पता ही नहीं चलता है।
मुख्य सड़क से बाईं ओर कुछ अंदर जाने के बाद चढ़ाई शुरू होती है और हल्के घुमावदार रास्ते के बाद जब आप करीब 300 फीट ऊंची पहाड़ी पर पहुुंचते हैं तो सामने एक निराला दृश्य दिखाई देता है। नीले आसमान की पृष्ठभूमि पर चमकीले सितारे सा साँची स्तूप।
स्तूप का शाब्दिक अर्थ है- 'किसी वस्तु का ढेर'। स्तूप का विकास ही संभवतः मिट्टी के ऐसे चबूतरे से हुआ, जिसका निर्माण मृतक की चिता के ऊपर अथवा मृतक की चुनी हुई अस्थियों के रखने के लिए किया जाता था। गौतम बुद्ध के जीवन की प्रमुख घटनाओं, जन्म, सम्बोधि, धर्मचक्र प्रवर्तन तथा निर्वाण से सम्बन्धित स्थानों पर भी स्तूपों का निर्माण हुआ।
साँची केवल बौद्ध धर्म को समर्पित नहीं है यहां जैन और हिन्दु धर्म से सम्बंधित साक्ष्य मौजूद हैं। मौर्य और गुप्तों के समय के व्यापारिक मार्ग में स्थित होने के कारण इसकी महत्ता बहुत थी और आज भी है। साँची अपने आंचल में बहुत सारा इतिहास समेटे हुए है। साँची में स्तूपों का निर्माण तीसरी ईसा पूर्व से बारहवी शताब्दी तक चलता रहा। साँची को काकनाय, बेदिसगिरि, चैतियागिरि आदि नामों से जाना जाता था। साँची में एक पहाड़ी पर स्थित यह एक कॉम्पलेक्स है जहां चैत्य, विहार, स्तूप और मंदिरों को देखा जा सकता है।
साँची स्तूप में स्तूप क्रमांक एक सबसे बड़ा स्तूप है। इस स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक ने करवाया था। इस स्तूप का आकार उल्टे कटोरे की जैसा है।यह स्तूप गौतम बुद्ध के सम्मान में बनाया गया। इस स्तूप में प्रस्तर की परत और रेलिंग लगाने का कार्य शुंग वंश के राजाओं ने किया। इस स्तूप में चार द्वार बने हुए है जिनका निर्माण सातवाहन राजाओं ने करवाया था। इन द्वारों पर जातक और अलबेसंतर की कथाएं को दर्शाया गया है। इस स्तूप की पूर्व दिशा में स्तूप क्रमांक तीन है जो बिल्कुल साधारण है। साँची में कुल मिलाकर बड़े छोटे 40 स्तूप हैं।
स्तूप क्रमांक एक की उत्तर दिशा में सीढ़ियों से नीचे उतरकर स्तूप क्रमांक दो में पहुंचा जा सकता है। यह स्तूप उल्टे कटोरे के आकार का बना हुआ है। इस स्तूप के शिखर पर केवल एक छत्र लगा हुआ है। स्तूप क्रमांक दो से ही गौतम बुद्ध के दो सारिपुत्त और महामोदगलायन शिष्यों की अस्थियां मिली थी। इन अस्थियों को अब महाबोधि सोसाइटी के चैत्य में रखा गया है। प्रत्येक वैशाख पूर्णिमा को इन अस्थियों को दर्शनार्थ रखा जाता है। स्तूप क्रमांक दो जाने के मार्ग में एक विशाल विहार मिलता है जो की साँची का सबसे विशाल विहार है।
जिस अवस्था में आज स्तूप दिखाई दे रहे है वास्तव में ऐसे नहीं थे। 13 वीं शताब्दी से 17 वीं शताब्दी तक इनकी देखरेख न होने से और आक्रमणकर्त्ताओँ के आक्रमण से स्तूप खंड़हर में बदल गए। 1818 में जनरल टेलर ने इस जगह की खोज की तथा सर्वें किया। 1851 में अलेक्जेण्डर कनिंघम ने उत्खनन कार्य किया। सर जॉन मार्शल ने 1912-19 तक उत्खनन किया तथा साँची को आज के स्वरूप में लाने का श्रेय सर जॉन मार्शल को जाता है। उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों को साँची के संग्रहालय में रखा गया है जिसका नाम जॉन मार्शल के नाम पर रखा गया है। यूनेस्को ने साँची स्तूप को 1989 में विश्व विरासत स्थल घोषित किया था।
यहां भ्रमण के दौरान मेरी मुलाकात एक अमेरिकी चित्रकार एलेक्स स्टेन से हुई। अजंता-एलोरा सहित देश के विभिन्न हिस्सों से घूम कर साँची आए एलेक्स ने बताया कि भारत वैसा नहीं है जैसा मैंने किताबों में पढ़ा था। मैं चित्रकार हूँ इसलिए बहुत इच्छा थी कि यह देश देखूं। मुझे दो भारत दिखाई दिए हैं। एक मुंबई का भारत जो चमकीला और सम्पन्न है। दूसरा भारत वह है जो साँची, अजंता एलोरा में मिलता है। सच तो यह है कि भारत को, यहाँ कि कला और सांस्कृतिक विरासत को यहाँ आए बगैर नहीं जाना जा सकता है। किताबें केवल परिचय करवाती हैं।
एलेक्स का कहा सच ही तो है, साँची को किताबों में पढ़ कर, दूसरे के अनुभवों को सुन कर नहीं समझा जा सकता है। साँची का महत्व तो यहां आ कर ही जाना जा सकता है। आप कब जा रहे हैं साँची?