असली लॉकडाउन की शुरुआत तो अब हुई है

कोरोना तो बहाना है, नियमों में बदलाव कर तानाशाही लाना है

Publish: May 14, 2020, 10:24 PM IST

Photo courtesy : bussiness today
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मध्यप्रदेश की सरकार ने 5 मई को एक छोटा सा नोटिफिकेशन निकाल कर औद्योगिक भारत के इतिहास का सबसे बड़ा फैसला ले लिया और मजदूरों के लिए जितने भी क़ानून थे उनमे से एक को छोड़कर बाकी सब के सब श्रम कानूनों को समाप्त करने का आदेश निकाल दिया। यह क़ानून इस देश के मजदूर आंदोलन की करीब 150 वर्षों की लड़ाई का नतीजा थे। अगले ही दिन उत्तरप्रदेश में योगी की सरकार ने एक को छोड़कर बाकी सारे श्रम क़ानून तीन वर्षों के लिए स्थगित करने का एलान ठोंक दिया। मजेदार मसखरी यह है कि योगी ने न्यूनतम वेतन का बाध्यकारी अधिनियम तो स्थगित कर दिया किन्तु समय पर वेतन भुगतान किये जाने वाला प्रावधान बचाये रखा है। उसके बाद तो जैसे होड़ सी लग गयी और एक के बाद एक भाजपा सरकारें, और उनकी देखादेखी कुछ और सरकारें भी लाइन लगाकर लगभग इसी तरह के फैसले लेती गयीं। भारत में मजदूर वर्ग के अस्तित्व के अब तक के इतिहास में इतना बड़ा हमला उस पर कभी नहीं हुआ।

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जिन श्रम कानूनों को खत्म या स्थगित किया गया या निष्प्रभावी बनाया गया है उनमे से कई तो ऐसे थे जिन्हे विधानसभा और लोकसभा ने लंबी बहस के बाद पारित किया था और उनमे बदलाव भी वे ही कर सकती थीं। मगर संसदीय प्रणाली की इन सारी रस्मों और किस्मों और बारीकियों से संघ की राजनीतिक भुजा भाजपा के एकल नेतृत्व में चलने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार इतनी ऊपर उठ चुकी है कि न उसे नीचे का धरातल नजर आता है ना ही संविधान की सुध आती है। मगर ना तो ये बदलाव-जिन्हे सुधार कहा जा रहा है- अचानक है ना हीं इनका कोरोना से उपजी मुश्किलों और संभावनाओं से कुछ भी लेना देना है। उद्योग जगत के मुश्किल में पड़ने का दावा श्रमिकों की पीड़ादायी तकलीफों की तुलना में कही नहीं लगता।

फिर कोविद-19 सिर्फ भारत में नहीं आया। न्यूज़ीलैंड जैसे छोटे देश सहित दुनिया के बाकी ज्यादातर देशों ने इसके असर से प्रभावित मजदूरों की मुश्किलें हल करने को प्राथमिकता दी। उनकी आमदनी सुनिश्चित करने के लिए खजाने खोले - उनके हाथ पाँव नहीं बांधे। अगर चीन से सारे उद्योग अपना बोरिया बिस्तरा समेट कर भारत में डेरा डालने वाले है मार्का मुंगेरीलाली संभावना के हिसाब से यह किया गया है तो इससे बड़ी मूर्खता कोई नहीं हो सकती। यह सब भ्रम फैलाने और नाजायज को जायज ठहराने की असफल कोशिश है।

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कोरोना आपदा के प्रति शुरुआती लापरवाही और उसके बाद लॉकडाउन से प्रभावित भारतीयों के प्रति अवज्ञा और अपमान से भरे अमानवीय रवैये से ही साफ़ हो गया था कि इस प्रकोप का बहाना बनाकर मेहनतकशों के जीवन और लोकतंत्र पर बड़ा हमला किया जाने वाला है। कोरोना तो बहाना था - तानाशाही लाना था। यह उसी तानाशाही की ओर एक अत्यंत सुचिंतित और गंभीर कदम है। दुनिया भर में जहां जहां तानाशाहियां आयी हैं मजदूर किसान और मेहनतकश उसका पहला निशाना बने हैं। मंगलवार को दिए अपने गोल गोल खोखले दीखते किन्तु असल में बहुत मानीखेज भाषण में प्रधानमंत्री ने इसे पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है। कानूनों को गैरकानूनी तरीके से बदलकर मजदूरों को बंधुआ बनाने वाली ताजा हरकतों पर एक शब्द बोलना तो दूर उन्होंने हजारों मील पैदल चलते लाखों भारतीयों के प्रति हमदर्दी का आभास तक नहीं दिया। इससे ठीक उलट लैंड, लेबर, लिक्विडिटी और लॉ में "बोल्ड रिफॉर्म्स" करने के दृढ इरादे का एलान करके आने वाले दिनों में हमलों के और तेज होने के साफ़ संकेत दे दिए हैं।

इन चार में लॉ - विधि विधान - का उल्लेख करके यह भी साफ़ कर दिया है कि बचे खुचे लोकतांत्रिक अधिकार भी अब सुरक्षित रहने वाले नहीं है। इतनी बड़ी आपदा, जिसे ज्यादातर लोग महामारी कह रहे हैं - के बीच फंसी, भूख से बिलबिलाती, आजाद भारत के सबसे विराट पलायन में दर दर की ठोकरें और अलग अलग राज्यों की पुलिस की लाठियां खाती जनता के लिए कुछ कदम उठाने की बजाय मोदी सरकार अब संविधान और लोकतंत्र और जनता तीनो से आर पार के मूड में हैं। इस भाषण में दिखावटी राहत की घोषणाओं तक से बचकर मोदी ने सबूत दे दिया है कि उन्हें किसी की परवाह नहीं है।

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वैसे भी हमले की जद में सिर्फ मजदूर नहीं है। मध्यप्रदेश सरकार 5 मई के अपने कुख्यात आदेश के पहले 1 मई को मण्डी एक्ट को लगभग अप्रासंगिक बनाने वाले संशोधन करके किसानों की लूट का लाइसेंस देशीविदेशी कारपोरेट कंपनियों को दे चुकी घी। केंद्र सरकार केंद्र, राज्य तथा पब्लिक सेक्टर के कर्मचारियों के वेतन में से मोदी के निजी पीएम केयर फण्ड में कटौती करा चुकी थी। झांकी उस मध्यमवर्ग की भी निकाली जा रही है जो इन्हे सत्ता तक पहुंचाने वाली पालकी का मुख्य कहार था। कोरोना के बहाने पत्रकारों और मीडिया कर्मियों की धुआंधार छंटनी उस मुग्ध तबके को भी असलियत का भान करा रही है जिसने अच्छे दिनों के जाप कंठी और माला दोनों पहन कर किये थे। सलामत कोई भी नहीं - तानाशाही में सलामत कोई भी नहीं रहता।

यह और कुछ नहीं कार्पोरेटी-हिंदुत्व है। कोरोना संकट के बीच हिन्दू-मुस्लिम खेल खेलना, अफवाहों के जरिये सारा ठीकरा भारतीय समाज के ही एक हिस्से पर मढ़कर अहमदाबाद कोरोना के अमरीकी कनेक्शन पर धूल डालना और इस तरह जनता को ध्रुवीकृत करके बाँट देना हिंदुत्व का आरम्भिक आलाप था - जिसकी घनगरज के बीच अब कारपोरेट के हितसाधन के लिए सप्तम सुर में आगे बढ़ा जा रहा है। मगर इसकी राह जितनी दिखती है उतनी आसान नहीं है। सड़कों पर मेला लगाए, रेल पटरियों पर देश के एक कोने से दूसरे कोने पाँव पाँव जाते भारतीयों की फ़ौज अपने हर कदम के साथ गुस्से और खीज का ओवरडोज ले रही है - वे असंतोष के सुप्त ज्वालामुखी हैं। कोरोना लॉकडाउन के बीच श्रमिक और किसान संगठनो के आंदोलनात्मक आह्वानों में लगातार बढ़ती हिस्सेदारी इस असंतोष को सही दिशा देने की पुरजोर कोशिशें हैं। चौथे लॉकडाउन के खुलने और बढ़ने दोनों ही स्थितियों में इस असंतोष के फूट पड़ने की संभावनाएं साफ़ दिख रही हैं। यह भी तय है कि इससे बचने के लिए कार्पोरेटी हिंदुत्व कोई नया विभाजन, कोई नया झूठ लेकर आएगा। इन दोनों ही मोर्चों पर लड़ाई तेज करके लोकतंत्र और संविधान सलामत रखा जा सकता है। आने वाले दिन इन्ही चुनौतियों के दिन होने वाले हैं।