जीवन लक्ष्य प्राप्ति का सूत्र

भारतीय जीवन दर्शन को छोड़कर यदि हम अपनी व्यक्तिगत या सामाजिक उन्नति करने चलेंगे तो भटक जाएंगे। आज ऐसा ही हो रहा है।

Publish: Jul 19, 2020, 08:32 PM IST

उपनिषदों के द्रष्टा ऋषियों ने हमें बताया है कि-

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:
अर्थात् धन से मनुष्य तृप्त नहीं हो सकता। सांसारिक भोग नश्वर हैं। वे इन्द्रियों के तेज को जीर्ण कर देते हैं। कितना ही लम्बा जीवन हो, थोड़ा ही है।

विज्ञान की चकाचौंध और आधुनिकता के प्रवाह से अन्धा मनुष्य जब-तक ऋषि मुनियों के जीवन सम्बन्धी दृष्टिकोण को नहीं अपनाएगा जब-तक भटकता ही रहेगा। भौतिक वादी दृष्टिकोण को छोड़कर ही हम अपने वैयक्तिक, सामाजिक, राजनीतिक जीवन को शुद्ध बना सकते हैं।भोगों की तृष्णा ने आज नव युवकों को अत्यधिक प्रभावित किया है। बहुत से तथा कथित विचारक भौतिक तृष्णा के औचित्य की स्थापना का प्रयास करके आग में घी डालने का काम कर रहे हैं।
वस्तुत: जिस ओर प्राणी की राग से सहज ही प्रवृत्ति होती है, उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं है। उपदेश की आवश्यकता उसके लिए है, जिसमें उसकी सहज प्रवृत्ति नहीं है।

पशु पक्षियों को सांसारिक भोगों की शिक्षा कौन देता है? आवश्यकता है प्रवृत्तियों को उचित दिशा देकर नियंत्रित करने की। धर्म यही कहता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि-


धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोSस्मि भरतर्षम

अर्थात् भरत श्रेष्ठ! धर्म से अविरुद्ध काम मेरा ही स्वरुप है। अर्थ भी बुरी वस्तु नहीं है। यदि उसका उपार्जन धर्मानुसार और धर्म के ही उद्देश्य से किया जाय। धर्म अर्थ और काम का सेवन मर्यादित रुप से करने की शिक्षा देता है।
मन और इन्द्रियों का नियंत्रण भोगों के लिए भी आवश्यक है। नियमों का पालन सर्वत्र अपेक्षित होता है। अर्थ और भोग की तृष्णा से ही परस्पर वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष, और हिंसा की भावना बढ़ती है। पारस्परिक प्रेम के ऊपर भी इसका प्रभाव पड़ता है। भारतीय जीवन दर्शन को छोड़कर यदि हम अपनी व्यक्तिगत या सामाजिक उन्नति करने चलेंगे तो भटक जायेंगे। आज ऐसा ही हो रहा है। बुद्धि वादी तो बहुत हैं पर बुद्धि योगी बहुत ही कम हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने बुद्धि वादी अर्जुन को बुद्धि योगी का उपदेश देकर स्वस्थ बनाया था।
हमारे गुरुदेव का यही उपदेश है कि यदि आचरण में पवित्रता लानी है तो अपने जीवन के चरम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति का निरंतर स्मरण रखते हुए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसकी प्रस्थापना करके सतत उपाय और समन्यव बनाये रखना चाहिए। इस बात पर सूक्ष्म दृष्टि रखनी चाहिए कि हमारे कार्य और भावनाएं हमें प्रतिकूल दिशा में तो नहीं ले जा रही हैं।
सब प्रकार प्रलोभन और भटकाव से मुक्त तीव्र अभीप्सा को लेकर लक्ष्य की प्राप्ति के साधनानुष्ठान करना चाहिए, जिससे इसी जीवन में अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो सके।