हृदय की नीरसता को दूर करने का उपाय है भगवद्भक्ति

जब-तक कर्म शुद्ध नहीं होते तब तक अन्त:करण किसी भी साधना के अंकुरित, विकसित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होने की योग्य भूमि बन नहीं सकता

Publish: Jul 23, 2020, 12:38 PM IST

सनातन वैदिक धर्म में निर्गुण निराकार ब्रह्म, शिव-शक्ति,विष्णु-गणपति और सूर्य में से किसी को भी अपना इष्ट बनाया जा सकता है। इन छह रूपों में परमेश्वर की उपासना को षण्मत कहा जाता है। भगवान आद्य शंकराचार्य ने इन्हीं छः प्रकार की उपासनाओं का प्रचार किया था। इसीलिए उनको षण्मतस्थापनाचार्य कहा जाता है।

वेदों में उपासना काण्ड को भक्ति कहा गया है। भक्ति शब्द श्वेताश्वतर उपनिषद् में मिलता है यह वेदों के मंत्र भाग का उपनिषद् है, इसलिए मंत्रोपनिषद् कहा जाता है।वह मंत्र है-

यस्य देवे पराभक्ति: यथा देवे तथा गुरौ।

तस्यैते कथिता ह्यर्था:, प्रकाशन्ते महात्मन:।।

अर्थात् जिसकी अपने इष्टदेव परमात्मा में जैसी भक्ति है, उसी प्रकार गुरु में भी है। उपनिषद् के अर्थ उसी महात्मा के हृदय में प्रकाशित होते हैं।

इस प्रकार की साधना के लिए वैराग्य और सूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है।जो सर्व साधारण के लिए सहज सुलभ नहीं है।रसो वै स: इस श्रुति वचन के अनुसार आनंद को ही रस भी कहा जाता है। साहित्य शास्त्रियों की परिभाषा के अनुसार स्थायी- भाव से उपहित चैतन्य ही रस-शब्द-वाच्य होता है।

मधुसूदन सरस्वती के अनुसार यदि स्थायी श्री कृष्ण हों तो यही भक्ति रस हो जाता है। भक्ति रस की अद्भुत महिमा है।हम देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य यह चाहता है कि कोई सच्चा प्यार करने वाला उसको मिले, जिससे वह भी सच्चा प्यार कर सके। प्रत्येक व्यक्ति का कोई न कोई प्रेमास्पद अवश्य होता है। पर संसार में उसको निराशा ही हाथ लगती है। सभी में कुछ न कुछ स्वार्थ दिखाई पड़ता है। वह स्वयं भी स्वार्थ रहित प्रेम किसी से नहीं कर पाता। बिना सच्चे प्रेम के जीवन नीरस होता है। प्रियजनों की मृत्यु, विश्वासघात और अपनी शारीरिक असमर्थता भी नैराश्य जन्य नीरसता का अनुभव कराती है।

हृदय की नीरसता को दूर करने का एकमात्र उपाय है भगवद्भक्ति। जहां अपनत्व की भावना होती है, वहीं प्रेम होता है। भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ कर उनकी अपने ऊपर कृपा की अजस्र वर्षा का निरीक्षण करने से क्रमशः भक्ति रस का उद्गत स्रोत हृदय को सरस बना देता है। नवधा भक्ति भगवत्प्रेम का आधारभूत साधन है। इस मार्ग पर चलकर अनेकों गृहस्थों विरक्तों नर-नारियों ने अपने आपको धन्य बनाया है।

निर्विषय चित्त की ब्रह्माकारता को ज्ञान तथा द्रवित चित्त की भगवदाकारता को भक्ति कहते हैं। दोनों में रस एक ही है- एक में निरुपाधिक और दूसरे में सोपाधिक, और वह है परमानंद स्वरुप आत्मा। पर जब-तक कर्म के क्षेत्र में शुद्धि नहीं आती तब तक अन्त:करण किसी भी साधना के अंकुरित, विकसित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होने की योग्य भूमि नहीं बन सकता। इसलिए गुरु देव की वाणी का अनुसरण करते हुए हमें सर्व प्रथम कर्म शुद्धि, फिर भाव शुद्धि और अनन्तर तत्त्व जिज्ञासा की ओर अग्रसर होना चाहिए।