प्राणी का सच्चा स्वार्थ ईश्वर की प्राप्ति

जब-तक अंश अंशी से नहीं मिल जाता तब तक उसे शांति नहीं मिलती,इसी प्रकार जीव जब परमात्मा से मिलता है तभी उसको मिलती है शांति

Updated: Sep 01, 2020, 12:02 PM IST

हमारे वेद शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ में एक ब्रह्म ही था, जिसका लक्षण है-सत्य,ज्ञान और अनंत। इसी से जीव और जगत् की उत्पत्ति होती है। जीव ब्रह्म का अंश है,ब्रह्म अंशी है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ममैवांशो जीव लोके जीव भूत: सनातन:

यह नियम है कि जब-तक अंश अंशी से नहीं मिल जाता तब तक उसे शांति नहीं मिलती। समुद्र के जल से जो भाप बनती है, वही मेघ बनते हैं। मेघ समुद्र के अंश को वायु के द्वारा हिमालय ले जाते हैं। समुद्र का अंश रूप वह जल बर्फ के रूप में परिणत होकर स्थिर रहता है, जैसे ही उष्णता आती है,वह बर्फ गंगा का रूप लेकर तब-तक रहता है जब-तक समुद्र में पहुंच नहीं जाता। इसी प्रकार मिट्टी के ढेले को वेग से आकाश में उछालते हैं पर जब वह अपने अंशी मिट्टी में आकर मिल जाता है तभी उसको शांति मिलती है। इसी प्रकार जीव जब परमात्मा से मिलता है तभी उसको शांति मिलती है। परमात्मा की प्राप्ति के सम्बंध में श्रुति कहती हैं-

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्य:, तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं, स्वाम्।।

इसका अर्थ है- यह आत्मा न तो प्रवचन से मिलता है और न मेधा से मिलता है, बहुत अधिक श्रवण से भी नहीं मिलता। जिसको यह साधक वरण कर लेता है उसी के सामने परमात्मा अपना स्वरूप प्रकट करता है। वरण के सम्बंध में भगवान भाष्यकार शंकराचार्य जी ने कहा है कि-

यमेव स्वात्मानमेष साधको

वृणुते प्रार्थयते तेनैव आत्मना

वरित्रा स्वयमात्मा लभ्य:

अर्थात् यह साधक जिस परमात्मा का वरण कर लेता है उसी को उसकी प्राप्ति होती है। दूसरा एक मत यह भी है कि परमात्मा जिस साधक का वरण करता है उसको परमात्मा की प्राप्ति होती है।यह जानना आवश्यक है कि वरण क्या है?

प्राचीन काल में स्वयंवर की प्रथा थी। बहुत से राजा पंक्तिबद्ध होकर बैठ जाते थे और कन्या वरमाला लेकर उनके बीच में आकर जिसके गले में माला डाल देती थी, वही उसके द्वारा वरण किया जाता था। इस प्रक्रिया में कन्या जिसको चाहती है उसके अतिरिक्त सबकी उपेक्षा कर देती है।

इसका अभिप्राय यह हुआ कि जो अध्यात्म का साधक है, वह परमात्मा को ही प्राप्त करना चाहता है और सब प्रकार का प्रलोभन छोड़ देता है। भगवान अपने भक्त को कुछ भी भोग मोक्ष देना चाहें, उन सबको अस्वीकार करके भक्त केवल भगवान को ही चाहता है, यही उसका वरण है। जो उसकी उत्कंठा है,उसको देखकर ईश्वर उसका वरण करता है। प्राणी का सच्चा स्वार्थ ईश्वर की प्राप्ति में ही है। ईश्वर के वियोग से ही वह जन्म-मरण के चक्र में पड़कर दु:खों का अनुभव कर रहा है।