बुद्धि उत्तम निर्णय कब करती है

क्रिया शुद्धि से होती है भाव शुद्धि, भाव शुद्धि से होती है विचार शुद्धि और विचार शुद्धि से होते हैं उत्तम निर्णय

Updated: Aug 09, 2020, 07:32 PM IST

जीवन में प्रत्येक मनुष्य को द्वन्द्वों का सामना करना पड़ता है। हानि, लाभ, जय, पराजय, मान, अपमान, निंदा, स्तुति, शीत, उष्ण आदि का प्रभाव मन पर पड़ता है। यदि अपना मन संतुलित हो तो इन द्वन्द्वों को विवेकपूर्ण तरीके से झेला जा सकता है। इसलिए हमें अपने मन की ओर ध्यान देना चाहिए। श्रीमद् भगवत गीता के अनुसार जगत का कारण प्रकृति त्रिगुणात्मिका अर्थात् सत्व, रज और तम गुणों वाली है।

इसलिए प्रकृति से होने वाले प्राकृत जगत में और हमारे अंतःकरण में भी तीन गुण क्रमशः आते हैं। सत्वगुण के आने पर ज्ञान का उन्मेष और सुख की अनुभूति होती है। रजोगुण में मनुष्य के हृदय में अनेकों इच्छाओं का उदय होता है और उनकी पूर्ति के लिए कर्मों में प्रवृत्ति आती है। काम-क्रोध भी रजोगुण से उत्पन्न होते हैं। जो हमारी बुद्धि को प्रभावित करके हमें पाप कर्मों की ओर धकेलते हैं।

सत्वात्संजायते ज्ञानं, रजसो लोभ एवं च।

 प्रमाद मोहौ तमसो, भवतोSज्ञानमेव च।।   

सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से नि:संदेह लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है। यह नियम है कि उत्तम फल उत्तम कर्मों से ही प्राप्त होते हैं और अनिष्ट फल निकृष्ट कर्मों से प्राप्त होते हैं। यदि निश्चय उत्तम है तो उत्तम कर्मों में प्रवृत्ति होगी और यदि निश्चय अविवेकपूर्ण है तो अधम कर्मों में प्रवृत्ति होगी। निश्चय करना बुद्धि का कार्य है। निश्चय को ही अध्यवसाय कहते हैं। रजोगुण तमोगुण से होने वाले विकार बुद्धि को प्रभावित करते हैं और प्रभावित बुद्धि विकारों के अनुरूप निश्चय कर बैठती है। इसको कार्पण्य दोष भी कहा जा सकता है।

बुद्धि का विकारों से प्रभावित होना ही कार्पण्य है और अप्रभावित रहते हुए अपना निश्चय उत्तम बनाए रखना उदार बुद्धि का लक्षण है। बुद्धि उत्तम निर्णय तब करती है जब निर्विकार होती है,काम,क्रोध,लोभ आदि दोषों से अप्रभावित होती है। इसलिए बुद्धि को विवेक युक्त बनाए रखना और शम, संतोष, दया आदि सद्गुणों से दुर्गुणों को अपने मन में ना उठने देना आवश्यक है। ऐसा तभी हो सकता है जब हमारे कर्मों में शुद्धि हो।

यह निश्चय है कि क्रिया शुद्धि से भाव शुद्धि होती है। भाव शुद्धि से विचार शुद्धि होती है। और विचार शुद्धि से उत्तम निर्णय होते हैं। इसीलिए अपने जीवन में तमोगुण और रजोगुण को कम करते हुए सत्वगुण को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। सत्वगुण बढ़ाने के लिए सत्वगुणी आहार आवश्यक होता है। शास्त्र कहते हैं-

आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि:, सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति:। स्मृति शुद्धौ सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:।।

इसका अर्थ हुआ- आहार की शुद्धि से अंतःकरण की शुद्धि अंतः करण से स्मृति में दृढ़ता एवं स्मृति शुद्धि से मनुष्य की मानस ग्रंथियों का मोक्ष हो जाता है।

आहार केवल वह नहीं है जो हम मुख से खाते हैं जो कुछ भी इंद्रियों से गृहीत होता है वह भी आहार ही है। हम आंख से अच्छा देखें, कान से अच्छा सुनें, और मन से भी सबके कल्याण की बात सोचें। इंद्रियों से विषयों का जो ग्रहण होता है, उनको भी आहार कहते हैं। इन आहारों को शुद्ध करने के लिए उत्तम व्यक्तियों का संग करना चाहिए। अच्छे साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। और सबसे मुख्य बात यह है कि प्रातः काल उठकर अपने इष्टदेव का ध्यान करना चाहिए। सुबह चार बजे से लेकर छह बजे तक का समय ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है। उस समय इष्टदेव का ध्यान करने से मन इंद्रिय सब पवित्र हो जाते हैं।