समझिए जीवन कब पूर्ण माना जाता है

जीवन के उद्देश्य की पूर्णता किसमें है, इसपर ध्यान न दिया जाए तो नहीं मिल सकेगी जन्म कर्म के प्रवाह से मुक्ति

Updated: Aug 14, 2020, 01:53 PM IST

मनुष्य शरीर को परमात्मा की सर्वोत्तम कृति माना जाता है क्योंकि चौरासी लाख योनियों में भटकते-भटकते जीव मानव शरीर में आकर चतुर्विध पुरुषार्थ का सम्पादन करने में समर्थ होता है। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष को ही पुरुषार्थ माना जाता है। जीवन के उद्देश्य की पूर्णता किसमें है, इसपर ध्यान न दिया जाए तो जन्म कर्म के प्रवाह से मुक्ति नहीं मिल सकेगी।

मनुष्य कर्म करता है और उसका फल भोगने के लिए जन्म लेता है और जन्म लेकर पुनः कर्म करता है। अनादिकाल से यह श्रृंखला चली आ रही है। परमेश्वर ने जीव को पूर्ण काम बनाने के लिए उसको बुद्धि,इन्द्रिय,मन और प्राण प्रदान किए हैं। जिनसे वह इन्द्रियों के द्वारा विषयों को जानते हुए मन से शुभ संकल्प कर बुद्धि से परलोक सुधारने के लिए सत्कर्म कर सकता है और वेदांत के श्रवण,मनन, निदिध्यासन से मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

पुरुषार्थ का अर्थ होता है पुरुष का प्रयोजन। इसमें पहला है- अर्थ-अर्थात् धन की प्राप्ति। प्राय: मनुष्य अपने जीविकोपार्जन के साथ इसीलिए धर्म करता है, जिससे उसको धन की प्राप्ति हो जाय और फिर धन के द्वारा वह सांसारिक भोग भोगता है। दूसरा प्रकार है काम- इसमें कुछ बुद्धिमान पुरुष इस बात पर ध्यान देते हैं कि वर्तमान जीवन के पश्चात् भी जीवन है और इस शरीर  के मृत होने पर भी आत्मा की मृत्यु नहीं होती। यहां की संपत्ति मृत्यु के पश्चात साथ नहीं जायेगी अतः धर्माचरण करके पुण्य अर्जित करना चाहिए, वही परलोक में सहायक होगा। इसीलिए धर्म के पश्चात् सुख प्राप्ति के लिए शास्त्र में बताए गए मार्ग पर चलने पर मरणोत्तर भी जीवन है, जिसका ध्यान इस तथ्य पर नहीं जाता है,वे जीवन में काम्य-विषय भोग के लिए लगे रहते हैं। विरले ही पुरुष निष्काम कर्म से अपने चित्त को निर्मल बनाकर जन्म कर्म के प्रवाह से मुक्त होने के लिए सदगुरु की शरण में आकर ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।

ज्ञानादेव तु कैवल्यम्

वस्तुत: उसी का जीवन पूर्ण माना जाता है जिसके जीवन में इन चारों का समन्वय होता है।अर्थ की तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती पर मरण पर्यंत कुछ लोग इसी में लगे रह जाते हैं। कुछ लोग इस जीवन की उपेक्षा करके परलोक की ही चिंता में लगे रहते हैं। आजकल कुछ लोग धर्म में लगे रहने पर लौकिक उन्नति में बाधा मानते हैं। कुछ लोग तो यह तक कहने का साहस करते हैं कि आद्य शंकराचार्य जी का सिद्धान्त ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या भारत की अवनति का कारण है।

पर वे यह भूल जाते हैं कि यही लोक सब-कुछ नहीं है।वे अपने सुख के लिए चाहे जिस उपाय का सहारा लेते हैं। आजकल जो धन की छीना-झपटी, हिंसा, दुराचार, सामाजिक अनुशासन हीनता फैल रही है, इसका कारण आध्यात्मिक उन्नति के लिए धर्म परायण न होना ही है।

भगवान आद्य शंकराचार्य जी ने अपने अद्वैत का प्रतिपादन करते हुए यह बतलाया है कि सच्चा सुख अपने भीतर है।आत्मा ब्रह्मा से लेकर चींटी तक सभी में एक है। जैसे माला की मनियां भले ही पृथक हों परन्तु वे एक सूत्र में बंधी होती है।इसी प्रकार सभी में एक ही आत्मा है,इस दर्शन से घृणा व द्वेष दूर होते हैं और अपने भोग के लिए दूसरों को कष्ट देना बंद होता है।