संविधान दिवस पर विशेष: पूंजीवादी ताकतों से देश के समाजवादी ढांचे को बचाने की चुनौती

भारत का संविधान 26 नवंबर 1949 को बनकर तैयार हुआ था, सामाजिक-आर्थिक बराबरी को बढ़ावा देने वाली समाजवादी सोच हमारे संविधान की आत्मा है, जिसे सुरक्षित रखना देश के लिए ज़रूरी है

Updated: Nov 25, 2020, 03:09 PM IST

Photo Courtesy: Scroll.in
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90 के दशक में जब दुनिया में उदारीकरण,वैश्वीकरण और निजीकरण का दौर प्रारम्भ हुआ तो इसका प्रभाव भारत के समाजवादी ढांचे पर पड़ना ही था। स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र होने से राजा महाराजाओं और जमींदारों के दिन लद चुके थे, सत्ता मुट्ठी भर लोगों के हाथों से फिसल चुकी थी और पूंजीवादी ताकतें अनुकूल समय का इंतजार कर रही थीं। वैश्वीकरण से पूंजीवाद को प्रश्रय मिला और सामंती शक्तियां भारत में भी क्रियाशील हो गईं। देश का संवैधानिक समाजवादी ढांचा पूंजीवाद को स्थापित होने से रोकने के लिए प्रतिबद्ध था।

ऐसे में 90 के दशक के अंत तक आते-आते पूंजीवादी और सामंतवादी शक्तियों ने जनता के नुमाइंदों को किसी भी तरह से अपने बाहुपाश में जकड़कर भारत के संविधान को ही नाकाम बताने और दिखाने की कोशिश की।    
संविधान में संशोधन की ज़रूरत पर विचार करने के लिए न्यायमूर्ति  वैंकटचेलैया की अध्यक्षता में 22 फरवरी 2000 को संविधान समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा किया गया। आयोग ने संसदीय ढांचे के अंतर्गत अब तक के कार्यों की समीक्षा का निर्णय लिया। साल 2002 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी। यह भी बेहद दिलचस्प है कि राष्ट्रीय आयोग ने विभिन्न विषयों पर विचार के लिए दस विशेषज्ञों के दल गठित किए थे। आयोग ने सार्वजनिक बहस के लिए बाईस परामर्श पत्र भी जारी किए थे। मगर जनता ने इन सार्वजनिक पत्रों पर कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई। 

न्यायमूर्ति वेंकटचेलैया ने स्वीकार किया कि विशाल आबादी वाले देश में आयोग को सिर्फ़ छब्बीस हज़ार प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं जो हर तरह से अपर्याप्त  थीं। इस आयोग के गठन का विरोध कई संस्थाओं के साथ तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर.नारायणन ने भी किया था। 26 जनवरी, 2000 को 50 वें गणतंत्र दिवस के मौके पर अपने संबोधन में उन्होंने संविधान समीक्षा की ज़रूरत पर सवाल उठाते हुए कहा था कि जब संशोधन की व्यवस्था है ही तो समीक्षा क्यों होनी चाहिए। बाद में राष्ट्रपति ने ऐसी कोशिशों पर नसीहत देते हुए कहा कि संविधान में परिवर्तन की जगह राजनेताओं को अपने आचरण में परिवर्तन करना चाहिए, क्योंकि संविधान निर्माताओं ने जिन आदर्शों का निर्माण किया था, उनका खुला उल्लंघन किया जा रहा है।” तत्कालीन राष्ट्रपति समाजवादी  ढांचे,सामाजिक न्याय को प्रभावित करने वाली कोशिशों और राजनेताओं के गैर जिम्मेदार कार्यों से नाराज थे।

संविधान निर्माण के समय भारतीय संविधान की शक्ति और क्षमताओं को लेकर डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने साफ किया था, “मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर  संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा।”

दरअसल भारत का संविधान स्वतंत्रता के प्रणेताओं और लब्ध प्रतिष्ठित विद्वानों के हाथों से लिखा गया संविधान है। यह नियमों का अद्भुत और ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। इसमें भारतीय संस्कृति और सभ्यता के मूलभूत आदर्श हैं, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय हासिल करने की भरपूर संभावनाएं है। विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता भी है। इसमें अवसर की समानता भी है। यह व्यक्ति की गरिमा को संरक्षण देता है तो राष्ट्र की एकता और अखंडता को मजबूत भी करता है। यह समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतांत्रिक, संप्रभु गणराज्य भारत की जनमानस की शक्ति का केंद्र है, जिससे यह देश दुनिया के सबसे बड़े और सफल लोकतंत्र के रूप में पहचान बनाने में सफल रहा है।

यहां लोगों के मौलिक अधिकार स्वयं सक्रिय हैं, अर्थात उन्हें चलायमान करने के लिए किसी विधि की आवश्यकता नहीं होती। राज्य के नीति निदेशक तत्वों में आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना की संभावनाएं बताई गई हैं। यहां लोकतंत्र का सबसे बड़ा केंद्र संसद है और लोकसभा उसका सबसे महत्वपूर्ण संस्थान है। जिसमें देश के कोने-कोने से 543 सदस्य चुनकर आते हैं और लोकतंत्र के इस मंदिर की गरिमा बढ़ाते हैं। सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं, जिससे देश के वंचित वर्ग को राजनीतिक स्तर पर प्रतिनिधित्व मिल सके। 

महात्मा गांधी ने सत्ता के विकेन्द्रीकरण का सपना देखा था और पंचायती राज्य उसी को प्रतिबिम्बित करता है। यह शासन सत्ता को आम लोगों तक पहुँचाने का प्रयास है। स्वतंत्र भारत में देश का पुनर्निर्माण करने की बड़ी चुनौती थी और इसे पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा बखूबी अंजाम भी दिया गया। भारत सांस्कृतिक, भाषाई और भौगोलिक विविधताओं के बाद भी अपनी संवैधानिक शक्ति से निरंतर आगे बढ़ता रहा। जबकि भारत का पड़ोसी पाकिस्तान संविधान आधारित समाज की स्थापना में बुरी तरह नाकाम रहा और बनने के महज 24 साल में ही उसके दो टुकड़े हो गए। 

इस समय भारत दुनिया भर में एक सफल समाजवादी लोकतांत्रिक देश के रूप में पहचाना जाता है और इसका श्रेय हमारे संविधान को जाता है। वहीं बाजारवादी समाज के भीतर समतामूलक समाज की स्थापना नहीं हो सकती, इसका एहसास आम जनमानस को होना चाहिए। पिछले कुछ सालों से भारत का समाजवादी ढांचा देश की लोकतांत्रिक सरकारों की नीतियों और चुनौतियों से बुरी तरह से जूझ रहा है। पूंजीपति ताकतें व्यवस्था पर हावी होकर सार्वजनिक क्षेत्र की समस्याओं का वैकल्पिक समाधान निजीकरण में करने का दबाव बना रही हैं और काफी हद तक इसमें सफल भी होती दिख रही हैं।

भारत जैसे समाजवादी और गरीब देश में यदि आर्थिक व्यवस्थाओं को पूंजीपति नियंत्रित करने लगें तो इसके परिणाम भयावह  हो सकते हैं। इस समय भारत की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है, करोड़ों लोग गरीबी और बेरोजगारी के कुचक्र में फंस गए हैं। यह स्थितियां आंतरिक शांति कायम  रखने के लिए चुनौती पूर्ण हैं। भारत निजीकरण की राह पर बढ़ता जा रहा है। यहां यह समझने की जरूरत है कि निजीकरण उन देशों में ही सफल हो सकता है जहां अर्थव्यवस्था बेहतर और सशक्त है। भारत जैसे विकासशील देश में सामाजिक और आर्थिक समानताएं व्यापक निजीकरण की इजाजत नहीं देतीं। दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब, पिछड़े और अशिक्षित लोग भारत में रहते हैं और बड़ी मुश्किल से जीवन यापन करते हैं।

स्वतंत्र भारत का भविष्य तय करते हुए बाबा साहब आम्बेडकर को सामाजिक न्याय की बड़ी चिंता थी। उन्होंने संविधान सभा को चेतावनी दी थी कि अगर हमने इस ग़ैरबराबरी को ख़त्म नहीं किया तो इससे पीड़ित लोग उस ढांचे को ध्वस्त कर देंगे, जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है। वे राज्य तंत्र पर सामंती और असमानता वाली सोच के दबदबे को लेकर बहुत असहज और फिक्रमंद थे। संविधान सभा के आख़िरी भाषण में बाबा साहब आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी के ख़ात्मे को राष्ट्रीय एजेंडे के रूप में सामने लाते हैं। 

अगस्त 1947 में संविधान सभा से मुखातिब होते हुए पंडित नेहरू ने कहा था, “भारत की सेवा करने का अर्थ है, दुख और परेशानियों में पड़े लाखों करोड़ों लोगों की सेवा करना। इसका अर्थ है दरिद्रता का, अज्ञान और बीमारियों का, अवसरों की असमानता का अंत। हमारे युग के महानतम आदमी की कामना हर आंख से आँसू पोंछने की है। संभव है यह काम हमसे पूरा न हो, पर जब तक लोगों की आँखों में आंसू है, कष्ट है तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा।” 

पंडित नेहरू, गांधी और डॉ. आंबेडकर हमारे बीच अब नहीं हैं, लेकिन उनके दिखाये मार्ग पर चलने की जरूरत हर समय महसूस होती है। आज़ादी के आठवें दशक में भी गरीबी और असमानता की चुनौतियां कहीं कम नज़र नहीं आतीं। इन सबके बीच विकास का जो सफर देश ने तय किया है, उसमें समाजवाद की बड़ी भूमिका रही है। समाजवाद से ही आम जनमानस ने बेहतर जीवन के सपने देखे, जबकि पूंजीवाद करोड़ों गरीब लोगों में निराशा और हताशा को बढ़ा सकता था। अंततः भारत का भविष्य समाजवाद में ही है और देश की विभिन्न सरकारों को इसे समझने और इसके अनुरूप व्यवहार करने की जरूरत है।