हल-बैल बिके, खलिहान बिके, जीने ही के सब सामान बिके
हमारे देश की एक बड़ी समस्या यह है कि इसमें प्रभावितों से विमर्श की कोई गुंजाईश ही नहीं है। बात विस्थापन की हो या कृषि की, सारे निर्णय बंद कमरों में ले लिए जाते हैं। आज जब कोरोना की महामारी से देश में हाहाकार मचा है, ऐसे में इन विधेयकों को लेकर जल्दबाजी क्यों? क्या दो-तीन राज्यों में इस व्यवस्था को प्रायोगिक तौर पर लागू कर परिणाम नहीं जांचने चाहिए थे? पर हमें तो आपदा को अवसर में बदलना है। थोड़ा लिखे को ज्यादा समझें। तो बताईये कि किसान क्या करें?

गांधी विचार को आधार बनाकर भारतीय अर्थव्यवस्था पर मनन-चिंतन करने वाले प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे.सी. कुमारप्पा अपनी पुस्तक गांधी अर्थ विचार (गांधियन इॅकोनामिक थाॅट) में लिखते हैं, "गोरखपुर में गुबरिस नाम का रिवाज चलता है। यह गुबरिस क्या बला है? जमींदार मजदूरों को यह हक देता है कि वे गोबर बटोर लें। वह इसे धोकर इसमें से कुछ दाने अपने खाने के लिए निकाल सकता है। यह दाने कौन से हैं? वही, जो कि जमींदार के जानवर ने पूरी तरह हजम न कर सकने की वजह से पाखाने के रास्ते निकाल दिए! इन गरीबों के लिए यह रियायत समझी जाती है और यह उनकी मजदूरी का एक हिस्सा है। इससे पता चलता है कि किस तरह खेती पर काम करने वाली हमारी मदद को जलील किया जाता है।"
इस बात को लिखे 70 साल से ज्यादा बीत गए। भारत में जमींदारी प्रथा खत्म हो गई, परंतु जमींदारी अभी तक जारी है। अब यह संस्थागत स्वरूप ले चुकी है और एक तरह से इसे कानूनी मान्यता भी प्राप्त है। अभी तक यह कहा जाता था कि वन विभाग भू भाग का सबसे बड़ा जमींदार है परन्तु भारतीय कृषि में हो रहे हस्तक्षेप और शासकीय मनमानी ने यह साबित कर दिया है कि भारतीय कृषि अभी गुबरिस नामक रिवाज से मुक्त नहीं हो पाई है। सारी अर्थव्यवस्था में जो कुछ भी बचाकुचा है, जूठन है, वही उसके हिस्से में आना है।
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भारत सरकार जिन तीन कृषि कानूनों को पारित और लागू करवाने के लिए हताशा भरी जल्दबाजी और अतिशय उत्कंठा दर्शा रही है, वह यही बता रही है कि कृषि का और कृषक का अपना कोई पृथक अस्तित्व अब इस देश में नहीं है। यह भी बेहद रोचक है कि पिछले तीन महीनों से सुशांत सिंह राजपूत की हत्या या आत्महत्या की गुत्थी को और उलझाने वाला मीडिया एकाएक इन विधेयकों को लेकर इतना सचेत कैसे हो गया और सरकार का गुणगान करने में जुट गया? तो सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि मीडिया की इस "गुबरिस" में एकाएक इतनी रुचि कैसे हो गई।
बात आगे बढ़ाते हैं। मध्यप्रदेश के अखबारों में 18 सितम्बर 2020 को आधे पन्ने का एक विज्ञापन "प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना" के फसल बीमा भुगतान कार्यक्रम का छपा। इसमें ऊपर की ओर प्रधानमंत्री का चित्र है। दूसरी ओर थोड़ा नीचे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का चित्र है, जिसके नीचे उन्होंने लिखा है, "देश के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी किसानों की काफी चिंता करते हैं, उन्होंने तय किया है कि खेती को लाभ का धंधा बनाते हुए किसानों की आय दोगुनी करनी है।" कब तक करनी है, इसका उल्लेख नहीं है। विज्ञापन में इन दो चित्रों के बीच तीन चित्र एक महिला व दो पुरुष किसानों के हैं, जिन्हें खुशहाल मान लिया गया है। (विज्ञापन में नीचे लिखा भी है, खुशहाल किसान हमारी पहचान) अब सरकार कह रही है, तो मान ही लेना चाहिए कि ये खुशहाल ही होंगे।
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परन्तु इस विज्ञापन के ठीक ऊपर, जी हां ठीक ऊपर एक खबर छपी है, जिसका शीर्षक है, "खराब फसल देख महिला ने जहर खाकर जान दी।" वह विदिशा जिले के बामौरी शाला गांव की 60 वर्षीय किसान मायावती शर्मा थीं। उनका चित्र भी खबर में छपा है। खराब फसल देखकर उन्होंने कहा था, "सब मिट गओ" और वहीं चक्कर खाकर गिर गई। उन्हें घर लाकर समझाया गया। मगर कुछ ही देर बाद उन्होंने जहर खा लिया। बेटे का कहना है बैंक और साहूकार का तीन लाख रुपये का कर्जा है। तो यह है खबर और विज्ञापन में विद्यमान विरोधाभास जो कि कृषि व कृषक और सरकार के बीच भी पूरी शिद्दत से मौजूद है।
गुबरिस प्रथा की कथा को आगे बढ़ाते हैं। फैज लिखते हैं "सब काट दो / बिस्मिल पौधों को / बेआब सिसकते मत छोड़ो / सब नोच लो / बेकल फूलों को / शाखों पे बिलकते मत छोड़ो / ये फसल उम्मीदों की हरदम / इस बार भी गारत जायेगी / सब मेहनत, सुबहों शामों की / अब के भी अकारत (अकारथ) जायेगी..." तो यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। अब सरकार ने फसल बीमा का दिलासा दिलाया। किसानों से बीमा किश्त भरीं। बड़ी उम्मीद थी कि नुकसान की ठीक से भरपाई होगी। लेकिन तभी यह सरकारी आदेश आया कि बीमा की राशि बैंक में आते ही ऋण की खाते में अदायगी के लिए स्वमेव हस्तांतरित हो जाएगी। किसानों में बेचैनी बढ़ गई। फिर कहा गया कि ऐसा नहीं होगा। राहत की ठंडी बयार बह गई। पर यह सब क्षणिक ही सुख दे पाया। अंततः बीमा राशि से फसल ऋण की रकम काट ली गई। परंतु उसी दिन और अगले दिन बीमा से जो भुगतान हुआ है, उसकी राशि प्रकाशित हुई।
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खण्डवा जिले के एक किसान को केवल चार रूपए (रुपए 4) का मुआवजा मिला जबकि उन्होंने 1,300/- रुपए किश्त भरी थी। डाॅ. आंबेडकर नगर (महू) में किसानों को दो, तीन, पांच और सात रुपये मुआवजे के मिले। बड़वानी जिले के किसान काफी भाग्यषाली रहे हैं। उन्हें क्रमश: 8, 11, 14 और 17 रुपए तक मिले हैं। धार जिले में तो जैसे लाटरी ही खुल गई। वहां एक किसान को 66 रुपए मिले हैं। आंकड़ों में तो यह राशि 4 हजार 688 करोड़ रूपए है जो कि 22 लाख किसानों में बाटी गई है। अब हर कार्य और उससे जुड़े कर्तव्यों को बताने के लिए उत्सव मनाया जाता है। बीमा राशि वितरण का भी उत्सव मना लिया गया। एक बार फिर "गुबरिस" का वितरण। इस पर तुर्रा यह कि हम तो किसानों के हितैषी हैं।
इस दौरान एक और विस्मयकारी घटना घटी। लोकसभा में पारित कृषि विधेयकों के समर्थन में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुलकर सामने आए। पिछले 6 वर्षों में संभवतः पहली बार है, जब प्रधानमंत्री ने किसी मामले में सार्वजनिक तौर पर हस्तक्षेप किया हो। उनका कहना है कि दशकों तक शासन करने वाले अब बरगला रहे हैं। तो क्या अकाली दल को भी कांग्रेस ने बरगलाया? गौरतलब है, प्रधानमंत्री ने एनडीए के सबसे पुराने साथी से अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने तक की सार्वजनिक अपील नहीं की। तुरत-फुरत मंत्री का इस्तीफा मंजूर किया और अपने विश्वस्त कृषि मंत्री को यह विभाग सौंप दिया।
यह घटना ऊपर से जितनी सीधी स्पष्ट दिखती है, उतनी है नहीं। वैसे भी वे हमेशा चुनावी मोड (या मूड) में रहते हैं और अभी बिहार में विधानसभा चुनाव हैं। सहयोगी दल से आग्रह का शायद गलत संदेश जाता और रामविलास पासवान का दल भी कुछ अतिरिक्त की मांग कर सकता था। दुनिया भी तो चलती रहती है। फैज साहब आगे लिखते हैं, "खेती के कोनों, खुदरों में / फिर अपने लहू की खाद भरों / फिर मिट्टी सींचों अश्कों से / फिर अगली रुत की फिक्र भरो।" तो किसान तो आत्मविश्वास एक शाश्वत प्रक्रिया में लगा ही रहता है। अत:एव आगे भी लगा ही रहेगा।
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हमारे देश की एक बड़ी समस्या यह है कि इसमें प्रभावितों से विमर्श की कोई गुंजाईश ही नहीं है। बात विस्थापन की हो या कृषि की, सारे निर्णय बंद कमरों में ले लिए जाते हैं। अपनी जमीन पर किसान क्या बोना चाहता है या नहीं बोना चाहता। किसान किस तरह की नीतियां चाहता है, यह उसे थोड़ी ही पता है। ये तीनों अधिनियम यथा प्रथम कृषि उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्यिक अधिनियम, भारतीय कृषि में विद्यमान मंडी व्यवस्था पर कुठाराघात है।
दूसरा है किसानों के साथ मूल्य और सेवा आधारित अनुबंध यानी कान्ट्रेक्ट फार्मिंग। इसके परिणाम हाल ही पेप्सिको कंपनी और गुजरात के आलू उत्पादकों के बीच विवाद सामने आए हैं और तीसरा है आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में बदलाव। यानि स्टाॅक की सीमा समाप्त। आम शहरियों को इस सबसे लेना देना नहीं है। वे तो खाने से मतलब रखते हैं। इसे उपजाने वाले से नहीं। परन्तु हम यह भूल रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कृषि पर ही निर्भर है और भविष्य में भी रहेगी। तो अब किसान क्या करें?
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फैज साहब अंत में फरमाते हैं, "फिर अगली रुत की फिक्र करो / जब फिर एक बार उजड़ना है / इस फसल पकी तो भर पाया / जब तक तो यही कुछ करना है।" मंडी व्यवस्था समाप्त होने की विभीषिका बिहार भुगत रहा है। यहां दो दशक पहले यह समाप्त कर दी गई थी। अधिकांश किसान अपने और अपने पशुओं के खाने जितना उपजाते हैं और ज्यादातर समय प्रवासी मजदूर की तरह बिताते हैं। क्यों? क्योंकि मंडी न होने से उनका जबरदस्त शोषण होता है। बिहार का किसान पंजाब और हरियाणा के खेतों में मजदूरी क्यों करता है? कभी इस प्रश्न का उत्तर तलाशने की भी कोशिश कीजिएगा।
आज जब कोरोना की महामारी से देश में हाहाकार मचा है, ऐसे में इन विधेयकों को लेकर जल्दबाजी क्यों? क्या दो-तीन राज्यों में इस व्यवस्था को प्रायोगिक तौर पर लागू कर परिणाम नहीं जांचने चाहिए थे? पर हमें तो आपदा को अवसर में बदलना है। थोड़ा लिखे को ज्यादा समझें। तो बताईये कि किसान क्या करें? वैसे साहिर लुधियानवी तो बहुत पहले बता चुके हैं, अफलास जदा दहकानों के/ हल-बैल बिके, खलिहान बिके / जीने की तमन्ना के हाथों / जीने ही के सब सामान बिके। किसान के पास वैसे भी अब खोने के लिए ज्यादा कुछ बचा नहीं है। उम्मीद है आप गुबरिस का अर्थ तो समझ ही गए होंगे?