न्याय के पथ पर तिर्यक् भी हो जाते हैं सहायक

चिंतन करना ही है क्यूं न अनंत कल्याण गुण गण निलय राजाधिराज श्री राघवेन्द्र के गुणों का ही चिंतन करें

Publish: Jul 11, 2020, 10:08 PM IST

राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म करम अनंत नामानी।।

जैसे भगवान श्रीराम अनंत हैं उसी प्रकार से उनके गुण भी अनंत हैं। मनुष्य का मन निरंतर गुण दोष के चिंतन में लगा रहता है। यदि हमें चिंतन करना ही है क्यूं न अनंत कल्याण गुण गण निलय राजाधिराज श्री राघवेन्द्र के गुणों का ही चिंतन करें।

भगवान् श्रीराम को साक्षात् धर्म का श्रीविग्रह कहा गया है।

रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्यपराक्रमः

विद्वान् लोग बताते हैं कि श्रीराम के अवतरित होने से पूर्व धर्म निराकार था,  श्रीराम के रूप में वही निराकार धर्म साकार हो गया।

श्रीराम कल्याण की जन्मभूमि, सज्जन, दैन्यभाव-हीन, सत्यवादी और सरल थे। क्षोभ होने पर भी अक्षुब्ध रहनेवाले तथा धर्मार्थ का तत्त्व जानने वाले द्विजों से सुशिक्षित थे। वे धर्म, अर्थ, काम का तत्त्व जानते थे। लौकिक और सामयिक कार्यों में भी वे पूर्ण निपुण थे। उनकी स्मरण शक्ति और प्रतिभा अलौकिक थी। वे विनीत थे। अपना अभिप्राय व्यक्त नहीं होने देते थे। उनकी मंत्रणा तब तक गुप्त रहती थी जब-तक कि फलीभूत नहीं हो जाए, किसी को विदित नहीं होने पाती थी। उनके सहायक अच्छे थे। वे त्याग, संयम और समय के महत्व को जानते थे। गुरु जनों में उनकी दृढ़ भक्ति थी और उनकी बुद्धि शांत थी। वे बुरी बातों से सदा बचते थे। कभी दुर्वाक्य नहीं बोलते थे। वे अपने पराये दोनों को जानते थे। आलस्य उनसे दूर रहता था। वे सदा सावधान रहते थे। उनका हर्ष और क्रोध दोनों अमोघ होते थे। वे शास्त्र वेत्ता थे। किसी के उपकार को भूलते नहीं थे। उन्हें मनुष्य की मर्यादा का ज्ञान था। पुरुषों के अभिप्राय को समझते थे। किस पर दया और किस पर कोप करना चाहिए इसका उन्हें ज्ञान था। उन्हें सत्पुरुषों के संग्रह,पालन तथा दुष्ट पुरुषों का निग्रह के अवसरों का ठीक ठीक ज्ञान था। अनिंद्य कर्मों से धन संग्रह और उससे परिवार के पोषण का ढंग भी वे अच्छा जानते थे। आय और व्यय दोनों मार्ग का उन्हें ज्ञान था। वे अर्थ विभागविद् थे।

  धर्माय यशसेSर्थाय कामाय स्वजनाय च।

  पंचधा विभजन्वित्तम्, इहामुत्र च मोदते।।

अर्थात् मनुष्य अपनी आय के पांच विभाग करें। पहला भाग धर्म में, दूसरा भाग यश कार्यों में, तीसरा भाग मूलधन की रक्षा में, चौथा भाग स्वयं के लिए तथा पांचवां भाग अपने स्वजनों और आश्रितों के हित में लगाए। इसप्रकार धन का विभाग करने वाला इसलोक और परलोक में आनंदित रहता है। श्रीराम में ईर्ष्या और अभिमान नहीं थे और कोई उनका अपमान करनेवाला नहीं था। इसप्रकार वे असंख्य गुणों से सम्पन्न थे। अपने गुणों के बल पर ही उन्होंने सफलता अर्जित की। वानर,भालू भी उनके सहायक बन गये। नीति शास्त्रों में कहा है-

जो न्याय के पथ पर चलता है, उसके तिर्यक् भी सहायक हो जाते हैं और अन्याय, असन्मार्ग पर चलने वाले का भाई भी उसका साथ छोड़ देता है।

आज व्यक्ति और समाज को सद्गुणों की आवश्यकता है। भगवान श्रीराम को अपना आदर्श बनाकर हम उनका अर्चन कर सकते हैं। बाह्य परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने के प्रयत्न के साथ-साथ हमें अपने अन्त:करण को भी सुसंस्कृत बनाने का प्रयास करना चाहिए तभी हम लोक- परलोक के साधक और तरण- तारण बन सकते हैं।